Saturday, March 2, 2013

मोती महल: उसके दिल में अजीब तरह की हलचल हो रही थी, जैसे तूफान के आने से पहले मासूम परिन्दे की हालत होती है।

मोती महल


रजिया बेगम ने नवाब वजीहत अली से शादी कर उनका कीमती महल बतौर मुंह दिखाई हासिल किया था। फिर अकस्मात नवाब की मृत्यु के बाद रजिया ने महल का एक हिस्सा बुरहानउद्दीन को बेच दिया। फिर उससे शादी कर ली। उसने उसे महल का वह हिस्सा मुंह दिखाई में दिया और फिर साल बाद बुरहानउद्दीन की मृत्यु हो गई। मगर वे दोनों मौतों का रहस्य मोती महल की दीवारों में ही दफन होकर रह गया...।


उन्नीसवीं सदी का लखनऊ। उन दिनों लखनऊ के सीने में दो दिल हुआ करते थे। एक तो अवध की अमीरजादी रजिया बीबी और दूसरा नवाब वजाहत अली का मोती महल।
उस रोज रजिया बीबी की मां बेगम नादिर ने एक खास जश्न का इंजताम किया था। शाम ढल चुकी थी और उनका दीवानखाना कार्बाइड के लैम्पों की रोशनी से जगमगा रहा था। अंदर हॉल मंे दीवार से दीवार तक बिछा कालीन और मखमल के गिलाफ चढे़ मसनद सब तरफ पसरे हुए थे। रेशमी परदों के साये हुए रंग रोशनी की किरणों से जगमगा रहे थे और कदावर गुलदानों के फूल हैरतजदा बच्चों की तरह बेगम नादिर को देख रहे थे।
बेगम नादिर ने इत्मीनान से दीवानखाना का जायजा लिया और फिर घड़ी की तरफ देखा। किसी भी लम्हे मेहमान आने शुरू हो जाएंगे। बेगम ने आबनूस के नेमत-खाना से एक मुर्दा परवाने को उंगली के टहोक से नीचे गिरा दिया, एक खाली जाम पर टपक पड़ा था। नेमत-खाना पर करीने से अंग्रेजी शराब की बोतलें और कीमती विलायती जाम चुने हुए थे।
बेगम नादिर ने सोचना शुरू किया। मेहमानों को किस तरतीब से बिठाया जाएगा। किसकी बीबी सिके शौहर के साथ और कौन सी कमसिन कली किस कुवारे के साथ...? क्योंकि उनके ख्याल के मुताबिक मियां-बीबी का ज्यादा साथ रहना दोनों के लिए बवाले-जान बन जाता है। इसलिए जरूरी है कि वक्त-वक्त पर एक दूसरे से जुदा कर दिए जाएं। यूं भी उन दोनों के मुर्दा गोश्त ताजा जिस्मों की कुरबत से जी उठते हैं। फिर उस वक्त तो मुर्दा गोश्त जिन्दा से ज्यादा महंगा और शराब खून से ज्यादा सस्ती थी। ऐसे वक्त में इतनी बड़ी दावत का इंतजाम आसान काम न था।
यह जश्न जरूरी भी था। बेगम नादिर की बड़ी बेटी रजिया बीवी ने मां-बाप की खुशी की खातिर पहले शौहर से तलाक लेकर दूसरा ब्याह रचाया था। समाज में इस अहम बात का ऐलान जरूरी था। इसके अलावा डॉक्टर नादिर ने यह जान लिया था कि उनकी बिना ब्याही बेटियां लखनऊ की नई सड़कों पर दिन दहाड़े अपना जोबन छिड़का करती हैं और उनकी हर अदा कहती है कि अब हमारी निगहेबानी किसी जवान मर्द से सुपुर्द होनी चाहिए। चुनांचे डॉक्टर नादिर ने अपनी बीवी को उन शरीफजादे के नाम बता दिए थे, जिनकी नजरंे-इनायत साहबजादियों पर है।
एक-एक करके मेहमान आने लगे और जरा-सी देर में दीवान-खाना की यह हालत हो गई कि गोया गुलशन में भंवरों और तितलियों की भीड़ लग गई हो। मेजबानों ने बातों-बातों में मेहमान मर्दों और औरतों को इस तरह से बांट दिया कि हर एक ने एक नए फूल की महक और एक नई आरजू की खनक महसूस की।
उसी वक्त गलियारे का दरवाजा खुला और अपने नए शौहर नवाब वजाहत अली के हाथ में हाथ लिए दुल्हन दीवान-खाना में दाखिल हुई। इनकी इज्जत-अफजाई के लिए सब उठ खड़े हुए। फिर हर तरफ से मुबारक-सलामत की आवाजें बुलंद हुई। धड़कते दिलों के साथ मर्दों की नजरें नई-नवेली दुल्हन रजिया पर जम गई, जिसका बेपनाह हुस्न उन पर कयामत बन कर टूटा था।
रजिया बहुत खूबसूरत थी। उसका रंग इतना साफा कि सीने से गले तक और माथे से गालों तक अंगारे दहक रहे थे। उनकी हिरणी जैसी बड़ी-बड़ी काली आंखों के ऊपर-नीचे बड़ी-बड़ी पलकों की झालरें पहरा दे रही थीं। कमर इतनी पतली थी कि दोनों हाथों में आ जाए। चेहरे की बनावट ऐसी दिलकश कि ना हंसे, मगर मुस्कराहट का शक हो। पतली-पतली लंबी उंगलियां, दरम्याना कद और जिस्मानी सुडौल देखकर लोग दंग रह गए।
जवानी उसके अंग-अंग से फूट पड़ रही थी, लेकिन रजिया की मिसाल उस भरी हटनी की थी, जिसे पाला मार गया हो। उस वक्त भी जब उसने अपनी जिंदगी के दूसरे अध्याय का एक नया शीर्षक कायम किया था। वह अपने पहले चाहने वाले को ना भूल सकी थी, जिसने पढ़ाई-लिखाई के जमाने में मोहब्बत में फंस गई और उसने बिना सोचे-समझे जमील से शादी कर ली, लेकिन जमील आजादी का परवाना था। वैसे भी यह शादी खानदान की रिवायतों के खिलाफ थी। उस घराने ने दो पुश्तों में तीन खान साहिबों और आधा दर्जन मनसबदारों को जन्म दिया था। यह पहला मौका था कि उनकी खानदानी रिवायतों में बदलाव आया हो।
चुनांचे उन्होंने इस बगावत को हरगिज माफ नहीं किया, मगर पहली मोहब्बत में इतनी कशिश होती है कि रजिया ने खानदान और समाज का विरोध सहन कर लिया। उसे शिकस्त तब हुई, जब जंग शुरू होते ही मलिक मोजअम की हुकूमत ने जमील को हिरासत में ले लिया। बेगम नादिर रजिया को घर ले आई। तीन साल बीत गए। जमील को जेल दमा हो गया, लेकिन वह समाजी अमन के लिए ऐसा खतरा बन चुका था कि उसे अब तक रिहाई ना मिल सकी थी, रफ्ता-रफ्ता मोहब्बत की गर्मी सर्द होने लगी। फिर खानदान ने हर तरह का दबाव डालकर रजिया को मजबूर कर दिया कि वह जमील से तलाक लेकर नवाज वजाहत अली से शादी कर ले। वह हार गई, उसने नवाब वजाहत अली से शादी कर ली।
वह मसनद पर निढाल पड़ी हुई, फीकी मुस्कराहट और झूठे दिल से मेहमानों की मुबारकबाद का शुक्रिया अदा कर रही थी। खादिम जामों से लबरेज शराब मेहमानों को पेश कर रहे थे। जिसमें मर्दों के कहकहे और औरतों की चीखें घुली-मिली थीं। उनके लिबासों की खुशबू फिजा का महका रही थी। मय-नोश का पहला दौर अपना काम कर चुका था। सबकी जुबानों और टांगों के बंधन खुल गए थे। बड़ी उम्र की औरतें एक तरफ सिर जोड़ कर बैठ गई और ठंडी आहंे भरते हुए अपनी बीती हुई जवानी की मस्त यादों में गुम हो गईं। जवान औरतों को घेरकर मर्द खड़े हो गए। उन औरतों के सुर्ख गालों और भीगे हांेठों पर उनकी नजरें गड़ी हुई थीं और औरतों कमसिन लड़कियों की तरह खिलखिला रही थीं।
गुफ्तुगू कई तरह की हो रही थीं, लेकिन घूम-फिर कर सबकी तान मोटापे पर टूटती थी। महसूस होता था कि मोटापा कोई बला है, जो समाज में तेजी से फैल रहा है और इसका कोई इलाज नहीं है।
बेगम नादिर ने अफसोस भरे लहजे में कहा, ‘‘मैं तो वर्जिश भी करती हूं। खाने में हर तरह की एहतियात रखती हूं, लेकिन मुआ जिस्म है कि हर साल फैलता ही जा रहा है।’’
मिसेज नोट वाला, जो किसी तरह भी भैंस से कम नहीं थी, शिकायती लहजे में बोली, ‘‘बहन, आपकी शिकायत बेजां है। हमारे मुकाबले में तो आपका जिस्म फूल है।’’
बेगम नादिर ने यूं ही हंसते हुए कहा, ‘‘आप मजाक कर रही हैं, नहीं तो मुझे बना रही हैं। नीचे से देखिये...चौड़ी पड़ गई हूं या नहीं?’’
बेगम नादिर ने यह बात इतने अपनेपन से और इतनी आहिस्ता से कही थी कि कोई मर्द इसे न सुने। लेकिन इत्तफाक से उसकी भनक सर दाऊद बख्श के कानों तक पहुंच गई। उन्होंने अपने गंजे सिर को झुकाकर बांकपन से कहा, ‘‘बेगम साहिब! मुझे यह कहने की इजाजत दें कि मैंने आप जैसी हसीन नहीं देखी।’’
सर दाऊद बख्श की उम्र पचास साल से लगभग होगी। उन डील-डौल इतना भारी-भरकम था कि अगर चारों हाथ-पांव से चलने लगते, तो यकीनन उस सांड का गुमान होता, जिस पर तस्वीरों में महादेव जी बैठे हुए होते हैं। चेहरे और सिर पर एक बाल न था...और उन पर घनी-घनी काली भवों ने यह कैफियत पैदा कर दी थी, गोया सुनसान और वीरान रेगिस्तान में काले कौए ने पंख फैला दिए हों।
बेगम नादिर को अचानक अखबारों की यह खबर याद आई कि सर दाऊद बख्श वायसराय की कौंसिल के मेम्बर हो सकते हैं। अब भी अगर वह चाहें, तो नई बस्ती की जमीन पर बहुत बड़ा हिस्सा उन्हें कोड़ियों के दामों में दिलवा सकते हैं। इन सब बातों का हिसाब लगाकर बेगम नादिर ने चालीस सावन से भरी अंगड़ाई ली और उनकी आंखों में ऐसी मस्ती आ गई, जो सचमुच काबिले-गौर थी।
बेगम नादिर ने मेहमान का बाजू थामकर कहा, ‘‘क्यों ना हो? आपकी दरियादिली तो मशहूर है।’’
बेगम नादिर उन्हें लिए हुए खाने के कमरे में चली गई, जहां सब लोग मेज के आसपास बैठ चुके थे। खाने के दौरान में सर दाऊद बख्श का पैर, जो किसी जाट के लठ से कम न था, बेगम नादिर के पैर से चिपक रहा। मर्दों की राज भरी सरगोशियों के जवाब में औरतें ‘उई, नोज’ कहती रहीं और निवालों एक साथ चलने से ‘चपड़-चपड़’ की आवाजें आती रहीं। मुर्ग, मछली और क्रीम के विभिन्न पकवानों को उन सबने डटकर खाया, जो अभी-अभी मोटापे का रोना रो रहे थे। उनके जिस्मों में चर्बी की नई तहें चढ़ गईं।
इस दौरान में किसी दूर-अंदेश ने बंगाल के अकाल का किस्सा छेड़ दिया था। इस किस्से में भूख से तड़पते हुए इंसानों के गिद्ध नोच-नोच कर खा रहे थे। लेकिन यह गुफ्तुगू अकाल के हालात से हमदर्दी नहीं कर रही थी, बल्कि गांधी बैंक के डायरेक्टर सेठ बालक राम से सम्बंधित थी कि किस तरह उन्होंने एक लाख मन चावल खरीद कर अपने गोदाम में बंद कर दिया और बाद में उसे चौगुनी कीमत पर बेच दिया। इस तरह उसने लाखों रुपये का मुनाफा कमाया।
‘‘कुछ वक्त और इंतजार करता तो ज्यादा दाम मिलते, मगर भूखों की पुकार सुनी न गई।’’ नजमा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘कलकत्ता में यह क्रिसमस इतना बुरा गुजरा, जिधर देखो, भिखारी, भूखे और बीमार...। मुझे तो हर कदम पर उबकाई आ रही थी।’’
शराब के चार पैग पीकर नवाब वजाहत अली का सिर चकरा गया और उसने जानबूझकर या अंजाने में दुल्हन के बजाय उसकी छोटी बहन नजमा की कमर में हाथ डाल दिया था। नजमा दिल ही दिल मंे मुस्कराते हुए कनखियों से मिस्टर सईद आई.सी.एस. का अवलोकन कर रही थी, जो उसे काफी वक्त से चाहते थे, मगर शादी के नाम से कतराते थे। अपनी मां को सलाह पर नजमा ने अपने सारे दांव इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया था। उसे देखकर यूं गुमान होता था कि उसकी जवानी नर्मदा नदी है, जो संगेमरमर की चट्टानों में उछल-कूद कर रही है।
नजमा की छोटी बहन का कोना अवध के नौजवान ताल्लुकदार अमजद शाह संभाले हुए थे। कांटे-छुरी का इस्तेमाल उनके लिए बरछी-भाले से कम मुश्किल न था और अभी उनके एक वार से मुर्ग की टांग को डाल कर मिस्टर नोट वाला की लंबी नाक तक पहुंचा दिया था। इस दावत में उनकी मौजूदगी की असल वजह यह थी कि वह दस लाख की जायदाद के इकलौते मालिक थे। बेगम नादिर ने यह सोचकर सलमा के पहलू में जगह दी थी कि दस लाख रुपये का वजन जहालत से कहीं ज्यादा है। अगर चूल बैठ गई तो खानदान के मुनीम का फर्ज बखूबी अंजाम दे सकेंगे।
अमजद शाह मिस्टर नोट वाला गजबनाक आंखों से नजरें चुराने लगे। वह अपनी हसीन हमसाया को उर्दू के किसी पुराने शायर का एक शेर सुनाने लगे। अमजद शाह को सैकड़ों शेर याद थे, जिनको वह अक्सर हसीनाओं को सुनाया करते। उनके मशहूर होने का दूसरा सबब यह था कि वह हसीनाओं को शक्कर की बोरियों और घी के टिनों के पार्सल भेजा करता था और औरतें इतनी हकीकत पसंद होती थीं कि उनको ऐसे तोहफे आशिकों के खून-ए-जिगर से ज्यादा भाते थे।
रजिया की आंखें यह सब देखती रहीं और उसे कोई हैरत न हुई। वह जानती थी कि उनकी रूहें सोने की सलाख से दाग दी गई हैं, लेकिन उसे अपनी रूह की खुदकशी पर रोना आया, जो एक बार जाग कर खानदान की कब्र में सो गई थी। उसने उस लम्हे अपने शौहर को कहते सुना, ‘‘मुझे डोरथी लामोर बेइंतहा पसंद है।’’
और वह समझ गई कि अगर पुराने जमाने की बीवी की हैसियत लौंडी की थी, तो इस जमाने की बीवी की हैसियत एक रखैल की है, जिसके शौहर की मोहब्बत का मरकज उसके बदन की थिरकन है।
नजमा कह रही थी, ‘‘डोरथी लामोर तो मुझे भी पसंद है।’’ और रजिया भांप गई कि नवाब वजाहत और नजमा के दरम्यान डोरथी लामोर की कल्पना कुटनी का काम कर रही है।
फिर उसने अपनी मां को देखा, जो बासी छार की तरह सर दाऊद बख्श से जबरदस्ती चिपकी हुई थी और उसकी ढीली रंगों में तनाव पैदा हो गया था। घृणा के कारण रजिया का मन विचलित होने लगा। जमील की दमा की बीमारी में भी कितनी शराफत थी, कितना प्यार था। उसकी रूह इतनी पाक थी कि खुद अपने उजाले से झुलस गई और अचानक जमील का यह जुमला उसके कानों में गूंजा।
‘‘रजिया! दुनिया इतने अर्से अंधेरे में रही है कि अब उसमें चमगादड़ की आदतें पैदा हो गई हैं। सूरज से उसे डर लगने लगा है और उजाला फैलाने वालों से उसे नफरत होती है’’, ‘‘लेकिन जिसके दिल में मोहब्बत की शमा जल रही हो क्या करें?’’
‘‘जमील! तुम सच कहते थे, लेकिन तुम अपनी रोशनी में खुद जल गए और तुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि अंधेरे में तन्हा मशाल जला सकंू।’’ वह सोच रही थी।
अचानक वह सवाल उसके दिमाग में बिजली की तरह दौड़ गया कि जमील को दमा कैसे हुआ? वह खुद पर झुंझलाने लगी कि यह सवाल पहले क्यों न पूछा। ज्योत एक जुर्म बनकर किसी के फेफड़े में बैठ जाती है और किसी की गिरफ्त में नहीं आती। कैदखानों का दमा से सीधा ताल्लुक नहीं होता। कोई जरूरी नहीं कि हर कैदी दमा का मरीज बन जाए। मगर हर कैदी जमील भी नहीं होता, हर सीने में शमा नहीं जला करती।
खाना खत्म हो चुका था। शराब और कबाब का वजन उठाए हुए कुछ लोग दीवान-खाना में, कुछ चमन की सैर को और कुछ उस हाल की तरफ चले गए, जो वाच घर में बदल चुका था।
ग्रामोफोन ने टंेग्गो नाच का मधुर संगीत छेड़ा और एकाएक अमजद शाह ने शराब का जाम हवा में हिला कर उसी धुन पर तराना छोड़ाµ
‘‘दिल में जिगर...तन से बदन।’’ और कमरा तालियों से गूंजने लगा। नाचने वालों के बदन धीरे-धीरे मटकने लगे।
दीवान-खाना के एक गोशे में कुछ मर्द खड़े होकर सर दाऊद बख्श की जुबानी, वह किस्से सुन रह थे, जो ऐसी महफिलों में हाजमे के चूरन का काम करते हैं और जिन्हें औरतें दूर बैठ कर सुना करती हैं। चुनांचे व अलग बैठी जाहिरी तौर पर कपड़ों, गहनों और गैर-हाजिर औरतों का जिक्र कर रही थीं, लेकिन दरअसल उनके कान उन कहकहों की तरफ लगे हुए थे। फिर जब किस्सा खत्म होता, तो वे घोड़ियों की तरह कनपटियां तान कर अर्थपूर्ण अंदाज से मुस्कराने लगती थीं।
डॉक्टर नादिर रजिया को लेकर बाग में चले गए थे और उसके कान में कह रहे थे, ‘‘बेटी! अब तुम्हें अपनी तबीयत को नई जिंदगी के मुताबिक ढालना होगा।’’
रजिया ने चांदनी में से शख्स के अंदर झांकने की कोशिश की, जो उसका बाप था। मआजून की गोलियों में ज्यादा इस्तेमाल की वजह से उसका चेहरा फूल गया था और सांस में उसके अंदर का गरूर बसा हुआ था। बातें करते हुए वह बेताबी से उस कुंजी की तरफ देख रहा था, जहां मिसेज नोट वाला तन्हा बैठी हुई कुछ गुनगुना रही थी।
रजिया को महसूस हुआ कि वह अपने तबके के दूसरे लोगों की तह खुद भी एक मर्ज की गिरफ्त में है। वह मर्ज बेनाम है, लेकिन इसके खतरनाक होने में कोई शक नहीं। इसके बीमार यह भी नहीं जानते कि वे क्या जिन्दा हैं? और वक्त काटने के लिए नए-नए तरीके ढूंढ़ते हैं, वरना वक्त उन्हें काटने लगता है। जिस तरह निठल्ले बंदर एक-दूसरे की जुएं मारा करते हैं, इसी तरह वे दूसरों की हमदर्दी हासिल करने के लिए ख्याली बीमारियों का बखान करते हैं।
रजिया की इस बेनाम मर्ज की शिकार होने लगी थी, लेकिन किसी दूसरे तरीके से यह बीमारी जाहिर हुई थी। इस माहौल ने गोया उसे बर्फ के तले दबा दिया था। उसके दिल में हमेशा बर्फानी हवाएं चला करती थी और उसके हर रोम पर एक नामालूम बोझ था। उसके दिमाग में अतीत के निशान थे, जो उसे उठते-बैठते, सोेते-जागते याद दिलाते रहते थे कि तेरी जिंदगी व्यर्थ नष्ट हो रही है।
महकती हुई हवा कह रही थी कि बहार आ गई है और इसमें वे सरगोशियां समाई हुई थी, जो रात में गुनाहों पर शोक व्यक्त करती है। नाच घर में हंगामों, दीवान-खाना के कहकहों और चमन की सरगोशियों का एक ही मतलब था कि तमाम जानवर एक ही हालात की गिरफ्त में हैं।
पुलिस लाइन से आधी रात का घंटा बजा। स्टेशन से आखिरी रेल एक गहरा सांस भर कर कहीं चली गई। औरतें जम्भाई लेेने लगी। मुलजिमों ने बिखरी हुई चीजों को संभालना शुरू किया और आम के पेड़ से किसी परिन्दे ने एक नारा लगाया। इन सबका एक ही मतलब था कि महफिल बरखास्त हो जाए।
एक-एक कर सब उठने लगे और रजिया मेहमानों का शुक्रिया अदा करने के लिए अपने नए शौहर नवाब वजाहत अली के पास आकर खड़ी हो गई। उसके दिल में अजीब तरह की हलचल हो रही थी, जैसे तूफान के आने से पहले मासूम परिन्दे की हालत होती है।
सबके रूखसत होेने के बाद नवाब साहब की बग्घी आई और नवाब वजाहत अली रजिया जैसी परी को विदा कराके अपने आलीशान मोती महल में ले आए। नवाब साहब को रजिया इतनी भाई थी कि उन्होंने अपनी नई नवेली दुल्हन की मुंह दिखाई में मोती महल रजिया के नाम कर दिया था।
दरवाजा खटखटाते हुए शफ्फन मिर्जा को यकीन नहीं आ रहा था कि गोमती के किनारे स्थित यह आलीशान महल भी बेचा जा सकता है। मोती महल का शुमार लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों में होता था, जिसने बड़े-बड़े इंकलाब देखे थे और उन नवाबों को अपनी चारदीवारी में पनाह दी थी किस्मत जिनका साथ छोड़ चुकी थी।
शफ्फन मिर्जा स्टेट एजेंट थे। उसे यह कारोबार विरासत में मिला था। अपनी अक्ल और ईमानदारी की बदौलत उसने बाप के छोड़े हुए इस छोटे कारोबार को इतना फैला दिया था कि कई मुलाजिम होने के बावजूद सिर खुजाने की फुरसत नहीं थी। इमारत और जायदाद के खरीद के सिलसिले में उसका नाम विश्वास की जमानत समझा जाता था। वे बड़े-बड़े रईस ऐसे मामलात में उससे मिला करते थे। छोटे-मोटे का उसके मुलाजिम ही अंजाम देते, लेकिन अमीर व रईस के मामले वह खुद निपटता था।
कल शाम की उसे मुलाजिम ने इत्तिला दी थी कि मोती महल की ऐतिहासिक इमारत का कुछ हिस्सा रजिया बेगम बेचना चाहती हैं। मोती महल के हवाले में उसने कई बार नवाब वजाहत अली का नाम सुना था। लगभग छः माह पहले एक दावत में उनसे मुलाकात भी हुई थी फिर यही मुलाकात आखिरी मुलाकात साबित हुई। क्योंकि उसके दूसरे रोज ही नवाब वजाहत अली जहरीले सांप के काटने से मर गए थे।
इसके बाद मोती महल के साथ रजिया बेगम का नाम सुना जाने लगा। मगर शफ्फन मिर्जा को रजिया बेगम से मिलने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ था। उसका ख्याल था कि वह भी नवाब वजाहत अली की तरह पचपन-साठ साल के लपेटे में जरूर होगी। पिछले रोज जब उसे इत्तिला मिली कि रजिया चाहती है, तो उसके जेहन में एक धान-पादन की गवीली बूढ़ी महिला का खाका उभर आया और इस वक्त भी वह रजिया के बारे में ऐसी ही कल्पना किए हुए थे।
पहले तो मोती महल के बेचने की खबर सुनकर उसे हैरत हुई थी, मगर बाद में उसने इस ख्याल को जेहन से झटक दिया था। वह बहुत से अमीर व रईस को जानता था, जिनकी जाहिरी आन-बान और रख-रखाव तो कायम था, मगर अंदर से वे खोखले हो चुके थे। उनका बाल-बाल कर्ज में जकड़ा हुआ था। बहुत से नवाब कर्जा चुकाने के लिए अपनी पुश्तैनी जायदाद फरोख्त कर चुके थे। उसका ख्याल था कि नवाब वजाहत अली भी विरासत में मोती महल के साथ लाखों का कर्जा छोड़कर मरे होंगे और रजिया बेगम हवेली का कुछ हिस्सा बेचकर कर्जा चुकाना चाहती हैं।
शफ्फन मिर्जा को कछ वक्त इंतजार करना पड़ा, तब कहीं दरवाजा खुला और एक बूढ़े मुलाजिम का चेहरा दिखाई दिया।
‘‘आप जरूर शफ्फन मिर्जा हैं और बेगम साहिबा से मिलने आए हैं?’’ वह उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लेते हुए बोला।
‘‘ठीक समझे। क्या इस वक्त बेगम साहिबा से मुलाकात हो सकती है?’’ शफ्फन मिर्जा बोले।
‘‘वह तो आप ही का इंतजार कर रही हैं।
तशरीफ लाइए।’’ मुलाजिम रास्ते से हट गया, ‘‘वह मोती महल का एक हिस्सा फरोख्त करना चाहती हैं। उनका ख्याल है कि यह लंबी-चौड़ी इमारत उनकी जरूरत से ज्यादा है। मगर मैं खूब समझता हूं कि वह महल का एक हिस्सा बेचकर नवाज साहब के कर्जे चुकाना चाहती हैं, लेकिन मैं आपको एक बात बता दूं। ज्यादा कमीशन की उम्मीद न रखिये। नवाब साहब के इंतकाल के बाद रजिया बेगम रुपये-पैसे के मामले में होशियार हो गई हैं।’’
‘‘बुढ़ापे में अक्सर लोग ऐसे मामलात में जरूरत से ज्यादा होशियार हो जाते हैं।’’ शफ्फन मिर्जा उसकी बातें से लुत्फ-अंदाज होते हुए बोले। वह बड़े लोगों के बारे में ज्यादातर मालूमात उनके मुलाजिम से हासिल किया करता था और रजिया बेगम का यह मुलाजिम कुछ ज्यादा ही बातूनी था।
‘‘बुढ़ापा?’’ मुलाजिम ने उसे घूरा, ‘‘आपके ख्याल में क्या उम्र होगी रजिया बेगम की?’’
‘‘जब नवाब वजाहत अली का इंतकाल हुआ, तो उनकी उम्र साठ साल के आसपास थी। इस हिसाब से रजिया बेगम पचास पचपन के दरम्यान होंगी।’’
शफ्फन मिर्जा ने जवाब दिया।
‘‘पचास-पचपन?’’ मुलाजिम ने हल्का सा कहकह लगाया, ‘‘अजी हजरत! उनकी उम्र पच्चीस से ज्यादा नहीं है। नवाब साहब चार साल पहले ही तो उन्हें कहीं से ब्याह कर लाए थे। मुंह दिखाई में यह हवेली दी थी। ऐसा सूरत पाई हैं रजिया बेगम ने कि नजरें चेहरे से चिपक कर रह जाएं। बला की मासूमियत है उसके रूख पर। चेहरे से उन्हें फरिश्ता कहा जा सकता है, लेकिन जहीन और चालाक इतनी कि बड़े-बड़े सियानों के कान कतरती हैं। मैं तो यह कहूंगा हुजूर कि बच कर रहियेगा।’’
‘‘मुझे रजिया बेगम के हुस्न व शबाब से क्या सरोकार?’’ शफ्फन मिर्जा ने उसे घूरा, ‘‘मै स्टेट एजेंट हूं। उन्होंने मुझे जायदाद की फरोख्त के लिए बुलाया है। सौदा तय कराकर अपनी कमीशन वसूल करूंगा और फिर मेरा ताल्लुक खत्म।’’
वे लंबा-चौड़ा गलियारा तय करके बरामदे में पहुंच गए। मुलाजिम ने उसे बिठाया और खुद अंदरूनी कमरे में गायब हो गया। शफ्फन मिर्जा को पहली बार मोती महल आने का इत्तेफाक हुआ था। वह लम्बे चौड़े कमरे का जायजा लेेने लगे। फर्श पर ईरानी कालीन बिछा हुआ था और उस पर कीमती फर्नीचर सजा हुआ था। कमरे की छत औंधे प्याले की तरह और बेहद बुलंद थी। दीवारों और छत पर पच्चीकारी का काम नजर आ रहा था। फानूस की रोशनी में छत पर लगे हुए शीशे के रंग-बिरंगे टुकड़े जरूर जगमगा उठते होंगे। एक दीवार पर नवाब वजाहत अली की बहुत बड़ी तस्वीर टंगी हुई थी। शफ्फन मिर्जा करीब पहुंचकर तस्वीर का जायजा लेने लगे। उसे बेशक किसी माहिर फनकार का अजीम शाहकार करार दिया जा सकता था।
लगभग आधे घंटे बाद मुलाजिम दोबारा कमरे में दाखिल हुआ, ‘‘आईये जनाब! रजिया बेगम अपने कमरे में आपका इंतजार कर रही हैं।’’
उसने अंदरूनी दरवाजे की तरफ इशारा किया। शफ्फन मिर्जा उठा और मुलाजिम के साथ चल दिया। वे विभिन्न कमरों और राहदारियों से होते हुए ऊपर की मंजिल पर पहुंच गए। एक कमरे में दरवाजे में दाखिल होते हुए शफ्फन मिर्जा जरा हिचकिचाया। फिर अंदर कदम रखते ही वह एक तरह रुक गया, जैसे जमीन ने पैर पकड़ लिए हों।
रजिया बेगम सामने की एक शाहाना कुर्सी पर अपने हुस्न के जलवे से जगमगा रही थी। मुलाजिम ने उसके बारे में जो कुछ कहा था, वह गलत नहीं था। उसे देखकर शफ्फन मिर्जा का लम्हे के लिए तो पलक झपकाना ही भूल गया था। हसीन व जमील चेहरा, चमकती हुई आंखें, मोटी-मोटी और रोशन-रोशन। जिन पर लंबी काली पलकें साया किए हुए थी। सुतवां नाक, गुलाबी होंठ, काली रेशमी जुल्फें, गुलाब से ज्यादा गुलाबी गाल और मरमर्री से हाथ। एक हाथ की लंबी उंगलियों में अंगूठियों के हीरे जगमगा रहे थे। उसने नजरें उठाकर देखा तो शफ्फन मिर्जा को सीने में अपना सांस रुकता हुआ महसूस होने लगा। उसको देखकर सचमुच किसी मासूम फरिश्ते का गुमान होता था।
उसे नवाब वजाहत अली की किस्मत पर बहुत अफसोस होने लगा, जो सिर्फ चार साल बाद ही उसे छोड़कर दूसरे जहां को सिधार गए थे।
‘‘आओ शफ्फन! तुम रुक क्यों गए?’’
कानों में अमृत-रस टपकती हुई आवाज सुनकर शफ्फन मिर्जा को होश आया। रजिया बेगम को होंठों की हरकत से उसे यूं महसूस हुआ था। जैसे गुलाब खिल उठे हैं। वह सम्मोहित-सा चलता हुआ एक कुर्सी पर बैठ गया। कुछ लम्हे बाद ही वह अपनी हालत पर काबू पा सका था। उसे याद आ गया था कि वह स्टेट एजेंट है और यह हुस्न के जलवों में खोने नहीं, बल्कि कारोबार के सिलसिले में आया है। रजिया बेगम उसे मोती महल के बारे में विस्तार से बता रही थी और उस हिस्से के बारे में खासतौर से बता रही थी, जिसे वह बेचना चाहती थी। इस दौरान में मुलाजिम ने उनके सामने अंग्रेजी लिपटन चाय रख दी। शफ्फन मिर्जा चाय की चुस्कियों के साथ हूं, हां, में रजिया बेगम की बातों का जवाब दे रहा था।
‘‘मेरा ख्याल है। अब मैं तुम्हें महल का वह हिस्सा दिखा दूं, जिसे मैं बेचना चाहती हूं।’’ रजिया बेगम ने उठते हुए कहा।
‘‘जी हां, जरूर।’’ शफ्फन मिर्जा ने चाय छोड़ दी।
वे कमरे से निकलकर राहदारी में आ गए और फिर ऊपर की ही मंजिल पर विभिन्न राहदारियों और कमरों में घूमते हुए बरामदे के उस हिस्से में आ गए, जो इमारत के एक हिस्से को दूसरे हिस्से से मिलाता था। अगर इस बरामदे में दीवार उठा दी जाए तो दोनों हिस्से बिल्कुल अलग हो सकते थे। इमारत के इस दूसरे हिस्से में ऊपर आने-जाने के लिए एक अलग जीना मौजूद था। रजिया बेगम आगे-आगे चलती हुई उसे विभिन्न कमरों के बारे में बता रही थी, मगर शफ्फन मिर्जा का जेहन कुछ और ही सोच रहा था।
उसकी नजर रजिया बेगम के हुस्न पर गड़ी हुई थी।
रजिया बेगम एक कमरे में रुक गई। फर्श के टाइलें कहीं कहीं से उखड़ चुकी थीं। दीवारों का रंग-रौगन भी पुराना हो चुका था। इस कमरे की छत भी गुंबदनुमा थी, जिस पर पच्चीकारी नजर आ रही थी। कमरे का एक दरवाजा बॉलकनी में खुलता था, जहां से शाह बगफ, सिकंदर आग और कदम रसूल के इलाके नजर आ रहे थे।
वे दूसरे कमरे में आ गए। उसकी छत नीची थी। शफ्फन मिर्जा रजिया बेगम के साथ चलता हुआ छोटी-सी बॉलकनी में आ गया, जहां से गोमती नदी, किश्तियों का घाट और आयरन बुर्ज के दिलफरेब मंजर दिखाई दे रहे थे। रजिया बेगम मोती महल के इस हिस्से की तारीफ में जमीन-आसमान एक कर रही थी और शफ्फन मिर्जा को सिर्फ उसके हिलते हुए गुलाबी होंठ नजर आ रहे थे। रजिया बेगम निचले हिस्से में आ गई। वह एक-एक चीज के बारे में विस्तार से बता रही थी। आखिर में वे जीना तय करते हुए फिर ऊपर वाले कमरे में आ गए।
‘‘इमारत तुमने देख ली। क्या तुम अंदाजा लगा सकते हो कि हमें इसकी कितनी कीमत मिल जाएगी?’’ रजिया बेगम ने पूछा, मगर शफ्फन मिर्जा तो कहीं और ही खोया हुआ था। उसने रजिया बेगम की बात सुनी ही नहीं थी। उसकी नजरें निरंतर उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं।
‘‘हमने कीमत के बारे में पूछा था मिर्जा।’’ इस पर रजिया बेगम ने बेहद बुलंद आवाज में कहा। उसे यह समझते हुए देर नहीं लगी थी कि शफ्फन मिर्जा का जेहन इस वक्त किस उलझन में गिरफ्तार है। उसके होंठों पर दिलकश मुस्कराहट छा गई।
‘‘अनमोल।’’ शफ्फन मिर्जा बड़बड़ाया, ‘‘हुस्न की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती।’’
‘‘क्या मतलब, क्या कहना चाहते हो?’’ रजिया बेगम ने उसे घूरा।
‘‘मोती महल।’’ शफ्फन मिर्जा घबरा गया, ‘मैं माती महल के हुस्न की बात कर रहा हूं बेगम साहिबा।’’
रजिया बेगम के होंठों पर फिर वही मुस्कुराहट छा गई, ‘‘हां तो फिर तुम्हारे ख्याल में इसकी क्या कीमत लग सकती है?’’
‘‘देेखिये बेगम साहिबा।’’ शफ्फन मिर्जा अपने हवास पर काबू पाते हुए संभलकर बोला, ‘‘मैं इस वक्त यही सोच रहा था कि किस ग्राहक से इसकी क्या कीमत वसूल की जा सकती है। इमारत का यह हिस्सा बहुत खस्ता हालत में है। इसे मरम्मत करने में मोटी रकम खर्च हो जाएगी। लेकिन मेरा ख्याल है कि इस हाल में भी हमें दस लाख मिल सकते हैं।’’
‘‘दस लाख?’’ रजिया बेगम ने उसे घूरा, ‘‘यह तो बहुत कम हैं। मैं इसके कम से कम बीस लाख चाहती हूं।’’
‘‘इतनी बड़ी रकम में तो शायद कोई भी इसे खरीदने के लिए तैयार न हो। आप मोती महल का जो हिस्सा फरोख्त करना चाहती हैं। उसकी ...।’’
‘‘बात हालत की नहीं, इस इमारत के ऐतिहासिक महत्व की है।’’ रजिया बेगम ने उसे टोक दिया, ‘‘मोती महल के इतिहास से कौन परिचित नहीं है। इसके लिए तो बड़ी से बड़ी कीमत लगाई जा सकती है।’’
‘‘ठीक कहा आपने।’’ शफ्फन मिर्जा ने उसकी तरफ बगैर देखते हुए कहा, ‘‘लोग मोती महल को अंदर से देखने के लिए ख्वाब देखते हैं, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस ख्याब की ताबीर बहुत महंगी है। कोई आम आदमी तो इसे खरीदने की कल्पना तक नहीं कर सकता। अमीरों और नवाबों की हालत से आप जरूर वाकिफ होंगी। इस शख्स किसी न किसी तरह अपनी साख कायम रखे हुए है। इतनी बड़ी रकम खर्च करने के लिए तो कोई शायद तैयार न हो।’’
कीमत को लेकर दोनों में बहस शुरू हो गई। आखिरी अंजाम पन्द्रह लाख पर बात तय हो गई। शफ्फन मिर्जा का ख्याल था कि अंग्रेजी टैक्स और ऊपर के खर्चे मिलाकर खरीदने वाले को मोती महल का यह हिस्सा लगभग अट्ठारह लाख में पडे़गा। उसके ख्याल में यह सौदा महंगा नहीं था। इस सौदे में उसे भी तकरीबन डेढ़ लाख कमीशन मिलने की संभावना थी।
दूसरे ही रोज शफ्फन मिर्जा ने अपने खास कारिन्दों के जरिये अमीरों व नवाबों के इलाके में मोती महल के एक हिस्से की फरोख्त की चर्चा शुरू कर दी। लगभग एक हफ्ते बाद उसे एक शख्स मिल गया, जो इमारत खरीदने के लिए तैयार नजर आता था। वह अधेड़ उम्र का साहूकार था। गंजा सिर, पेट आगे की तरफ निकला हुआ। शफ्फन मिर्जा उसे लेकर उसी रोज मोती महल पहुंच गया।
रजिया बेगम ने उसे देखकर नाक-भौं चढ़ाई, मगर महल का वह हिस्सा दिखाने में कोई एतराज नहीं किया। इमारत देखने के बाद जब सौदे की बात की तो ममाला बारह लाख पर आकर रुक गया, मगर शफ्फन मिर्जा ने उसे किसी न किसी तरह पन्द्रह लाख पर राजी कर लिया।
दूसरे रोज शफ्फन मिर्जा अभी सो रहा था कि बीवी ने उसे झंझोड़ कर जगा दिया। उसने आंखें मलते हुए कहा, ‘‘क्या बात है? क्यों इस तरह बदहवास हो रही हो?’’
‘‘वह कोई रजिया बेगम का मुलाजिम है। कह रहा है कि रजिया बेगम ने बुलाया है। वह तुमसे कुछ बात करना चाहती है।’’ बीवी ने उसे घूरते हुए रुक-रुक कर कहा।
शफ्फन मिर्जा की नींद अचानक गायब हो गई। वह लपक कर तैयार हुआ और दौड़ता हुआ मोती महल पहुंच गया। रजिया बेगम से मुलाकात हुई तो रजिया बेगम की आवाज कानों के जरिये दिल की गहराइयों से उतरती महसूस हो रही थी। वह अपने आपको हवा में उड़ता हुआ महसूस करने लगा, लेकिन फिर एकदम जैसे होश में आ गया।
‘‘क्या कहा...? बीस लाख...।’’ वह बदहवास-सा होकर बोला, ‘‘यह कैसे हो सकता है? हम तो उसने पन्द्रह लाख में सौदा तय कर चुके हैं।’’
‘‘देखो शफ्फन! यह कारोबार है, जिसमें उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं। कल मोती महल की कीमत पन्द्रह लाख थी, लेकिन आज बीस लाख से कम बात नहीं होगी। यह आखिरी कीमत है।‘‘ रजिया की आवाज गूंजी।
‘‘लेकिन वह सौदे को खत्म कर देगा।’’ शफ्फन मिर्जा ने जवाब दिया।
‘‘कोई बात नहीं। कोई और ग्राहक तलाश कर लो।’’
‘‘बहुत मुश्किल है। इतनी कीमत पर शायद कोई भी राजी न हो।’’
‘‘तुम निरे गाउदी हो।’’ रजिया बेगम ने हल्का-सा कहकहा लगाया, ‘‘कोशिश करो। तुम नाकामी नहीं होगी।’’
अगर कोई और उसे ‘गाउदी’ कहा तो शफ्फन मिर्जा मरने-मारने पर तुला जाता। मगर वह लफ्ज रजिया बेगम के मुंह से निकला था, जो उसे बड़ा प्यारा लगा था। वह गहरी सांस लेते हुए बोला, ‘‘मैं कोशिश करूंगा, मगर इसके लिए कुछ रोज इंतजार करना पड़ेगा।’’
‘‘कोई बात नहीं। मैं इंतजार कर लूंगी।’’ रजिया बेगम ने कहा।
शफ्फन मिर्जा मरे-मरे कदमों से मोती महल से बाहर निकला और सीधा उसी साहूकार के पास पहुंच गया और उसे रजिया बेगम की नई मांग से आगाह किया। मगर वह तयशुदा कीमत से एक पाई ज्यादा अदा न करने के लिए तैयार नहीं था। इस तरह वह मामला यही खत्म हो गया।
शफ्फन मिर्जा ने एक बार फिर ग्राहक की तलाश शुरू कर दी। पन्द्रह-बीस रोज गुजर गए। वह जिस ग्राहक को भी ले जाता, रजिया बेगम उसे लौटा देती। कभी बात कीमत पर अटक जाती और कभी आने वाले की शख्सियत को नापसंद करके मामला टाल दिया जाता। शफ्फन मिर्जा को भागदौड़ तो खूब करनी पड़ रही थी, लेकिन इसका इतना फायदा जरूर हुआ कि उसे रजिया बेगम के करीब होने का मौका मिला गया। अब वे बेतकल्लुफी से एक-दूसरे को मुखातिब करते।
शफ्फन मिर्जा आंखों के रास्ते उसे दिल में उताने की कोशिश कर रहे थे। वह रजिया बेगम से कुछ हद तक जज्बाती लगाव महसूस करने लगा था। उस पर खुद-फरमोशी की सी कैफियत छाने लगी थी। बीवी उसकी इस हालत से परेशान हो गई। घर पर जब रजिया बेगम का खादिम आता और उसे पैगाम देकर चला जाता, तब कुछ ही देर में मियां-बीवी का झगड़ा शुरू हो जाता। एक-दो बार तो बीवी ने मायके चले जाने की धमकी भी दे डाली थी, मगर शफ्फन मिर्जा को भला ऐसी धमकियों की परवाह कब थी। उसके दिलो-दिमाग में तो रजिया बेगम छाई हुई थी। वह बीवी को रोता छोड़ घर से निकल जाता और अक्सर सोचता-काश! उसके पास बीस लाख रुपये होते, तो वह ग्राहकों के पीछे मारा-मारा फिरने के लिए बजाए मोती महल का वह हिस्सा खुद खरीद लेता। इस तरह रजिया बेगम की परेशानी खत्म हो जाती और रजिया बेगम के ज्यादा करीब होने का मौका मिल जाता।
लगभग एक माह बाद एक दावत में शफ्फन मिर्जा मिर्जा की मुलाकात कानपुर के एक ऐसे रईस से हो गई, जो लखनऊ में कोई ऐतिहासिक इमारत खरीदना चाहता था। वह तीस-बत्तीस साल का एक सेहतमंद नौजवान था। उसका कारोबार पूरे हिन्दोस्तां में फैला हुआ था। शफ्फन मिर्जा को तो ऐसे ही आदमी की तलाश थी। उसने फौरन ही मोती महल का जिक्र छेड़ दिया।
दूसरे रोज सुबह ही वह बुरहानउद्दीन नामी उस शख्स को मोती महल दिखाने के लिए ले गया। रजिया बेगम ने उस खूबसूरत जवान का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया और महल दिखाने के लिए खुद उसके साथ चल पड़ी। निचली मंजिल से होते हुए वे ऊपर की मंजिल पर पहुंच गए। विभिन्न कमरो में घूमते हुए वह उस कमरे में रुक गया, जिसकी बॉलकनी गोमती नदी की तरफ थी।
शफ्फन मिर्जा भी कमरे में रुक गया और रजिया बेगम बुरहानउद्दीन को बाहरी मंजर दिखाने के लिए बॉलकनी पर ले गई। वह उसे बता रही थी कि शाम के वक्त सूरज डूबने से जरा पहले दरिया का मंजर किस कदर हसीन और दिलफरेब होता है। शफ्फन मिर्जा कमरे में खड़ा उनकी बातों की आवाजें सुन रहा था। फिर उसने बॉलकनी की तरफ जाने के लिए जैसे ही कदम उठाया, वैसे ही उस तरह रुक गया। जैसे जिस्म बेजान होकर रह गया हो। उसकी नजरें बॉलकनी की रेलिंग पर थीं, जहां रजिया बेगम और बुरहानउद्दीन ने हाथ टिका रखे थे।
बुरहानउद्दीन का हाथ आहिस्ता-आहिस्ता बाएं तरफ सरक रहा था। फिर देखते ही देखते रजिया बेगम का नाजुक-सा हाथ उसके भारी-भरकम हाथ के नीचे छुप गया। बुरहानउद्दीन की उंगली में अंगूठी का हीरा चमका और शफ्फन मिर्जा को यूं महसूस हुआ कि जैसे आंखों की रोशनी चली गई हो। उसे यह देखकर बेहद दुख हुआ था कि रजिया बेगम ने बुरहानउद्दीन का हाथ हटाने की कोशिश नहीं की थी।
कुछ देर बाद वे दोनों भी कमरे में आ गए और फिर इमारत के उस हिस्से से निकलकर दीवान-खाना में आ गए। चाय के दौरान सौदे की बात होने लगी। बुरहानउद्दीन ने पंद्रह लाख की पेशकश की, जिसे मामूली-सी हिचकिचाहट के बाद रजिया बेगम ने कबूल कर लिया। शफ्फन मिर्जा को इस पर हैरत भी हुई थी। रजिया बेगम ने पंद्रह लाख वाले कई ग्राहक लौटा दिये थे। जब वह बुरहानउद्दीन के साथ मोती महल से निकला तो उसका दिल बुझा-बुझा सा था।
दूसरे रोज सुबह सवेरे ही रजिया बेगम का मुलाजिम आ गया। उसने शफ्फन मिर्जा को मोती महल बुलाया था। वह आदत के मुताबिक बीवी को बकता-झिकता छोड़कर नाश्ता किए बगैर घर से निकल गया। जब वह मोती महल पहुंचा, तो रजिया बेगम अपने कमरे में उसका इंतजार कर रही थी। शफ्फन मिर्जा की आंखों में आज वह चमक नहीं थी, जो रजिया बेगम को देखकर पैदा हो जाती थी। कुछ रस्मी जुमलों के तबादले के बाद वह फौरन असल बात पर आ गया।
‘‘बुरहानउद्दीन कुछ देर बाद यहां आने वाले हैं। मैं सोच रहा हूं कि आज ही कागजात तैयार कराकर इस सौदे को आखिरी रूप दे दिया जाए।’’ शफ्फन मिर्जा बोला।
‘‘अभी नहीं।’’ रजिया बेगम के होंठों पर फिर वही दिलफरेब मुस्कुराहट छा गई, ‘‘मुझे पंद्रह लाख कम लग रहे हैं। मेरा ख्याल है, हमें बीस लाख में सौदा करना चाहिये।’’
‘‘क्या?’’ शफ्फन मिर्जा बुरी तरह चौंक गया, ‘‘लेकिन पंद्रह लाख में सौदा तय हो चुका है। अगर हम ज्यादा रकम की बात करेंगे, तो वह इंकार कर देगा।’’
‘‘तुम सचमुच गाउदी हो।’’ रजिया बेगम ने दिलफरेब मुस्कराहट के साथ कहा, ‘‘लोहे पर चोट उस वक्त मारनी चाहिए, जब वह खूब गरम हो।’’
आज शफ्फन मिर्जा को रजिया बेगम के मुंह से निकलने वाला यह लफ्ज ‘गाउदी’ बहुत बुरा लगा, लेकिन वह बर्दाश्त कर गया। उसके जेहन में कल शाम वाला मंजर घूम गया। जब बॉलकनी में खड़े हुए बुरहानउद्दीन ने रजिया बेगम के हाथ पर हाथ रखा था और रजिया बेगम ने कोई एतराज नहीं किया था। यह अमल अगरचे कुछ लम्हों से ज्यादा बड़ा नहीं था, लेकिन शफ्फन मिर्जा को यह समझने में देर नहीं लगी कि रजिया बेगम उन लम्हों की पूरी-पूरी कीमत वसूल करना चाहती थी और उसे यकीन था कि बुरहानउद्दीन उसका नया सौदा ठुकरा नहीं सकेगा। उसके लिए बीस लाख की कोई हैसियत नहीं थी।
शफ्फन मिर्जा का दिमाग सुलग उठा। ईर्ष्या व प्रतिद्वन्द्विता की भावना ने उसके सीने में आग लगा दी। उसका चीखने का दिल कर रहा था, मगर वह बड़ी मुश्किल से बर्दाश्त किए बैठा रहा। लगभग एक घंटे बाद बुरहानउद्दीन भी पहुंच गया। शफ्फन मिर्जा का यह ख्याल ठीक निकला। रजिया बेगम ने पंद्रह लाख की जगह बीस लाख की बात की, तो वह सिर्फ मुस्कुराने लगा और फिर उस रोज मोती महल के उस हिस्से का सौदा बीस लाख में तय हो गया।
इस बात को लगभग एक साल बीत गया। इस दौरान में शफ्फन मिर्जा ने यह खबर बड़े अफसोस के साथ सुनी थी कि रजिया बेगम ने बुरहानउद्दीन से शादी कर ली। वह दिल ही दिल में ताव खाकर रह गया।
एक रोज शफ्फन मिर्जा अपने दफ्तर में बैठा था कि रजिया बेगम का वही बूढ़ा मुलाजिम पहुंच गया।
‘‘अरे खैरियत! तुम कैस आए?’’ शफ्फन मिर्जा ने पूछा।
‘‘आपको बेगम साहिबा ने याद फरमाया है। आज ही मिल लीजिये।’’ वह बोला।
‘‘और वह बुरहानउद्दीन?’’ शफ्फन मिर्जा के मुंह से बेइख्तियार निकल गया।
‘‘आपको शायद मालूम नहीं। शादी के फौरन बाद ही बुरहानउद्दीन ने मोती महल का खरीदा हुआ वह हिस्सा रजिया बेगम को मुंह दिखाई में दे दिया था। कुछ माह पहले की बात है बुरहानउद्दीन अचानक महल की ऊपरी मंजिल से नीचे गिर पड़े। यह हादसा उनकी मौत का सबब बन गया। बेचारी रजिया बेगम का दुख देखा नहीं जाता। अब इतने बड़े महल में वह तन्हा नहीं रह सकती। इसलिए रजिया बेगम महल का वह हिस्सा दोबारा फरोख्त करना चाहती है। आपको इसीलिए बुलाया है। कोई अच्छा-सा ग्राहक तलाश करने के लिए।’’
शफ्फन मिर्जा का दिमाग भक से उड़ गया। वह भयभीत नजरों से रजिया बेगम के बूढ़े मुलाजिम की तरफ देखने लगा, जिसके होंठों पर अर्थपूर्ण मुस्कुराहट थी।


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