Thursday, August 10, 2017



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संतोष पाठक का नया उपन्यास
खतरनाक साजिश
सब-इंस्पेक्टर नरेश चैहान पर इल्जाम था कि उसने दो महिलाओं की बड़े ही बर्बरता पूर्ण ढंग से, गला घोंटकर! ना सिर्फ हत्या की थी, बल्कि हत्या से पहले उन्हें जमकर नोंचा-खसोटा भी था। उसके खिलाफ, सबसे ज्यादा डैमेज करने वाली बात ये थी कि गिरफ्तारी के वक्त वो एक ऐसी यूनीफाॅर्म पहने था जो मरने वाली दोनों महिलाओं के खून से रंगी हुई थी। जबकि पुलिस का दावा था कि उनके पास मुलजिम के खिलाफ सिक्केबंद सबूत थे, लिहाजा उसका जेल जाना महज वक्त की बात थी। ऐसे में सिर्फ एक शख्स था, जिसे पुलिस की राय से इत्तेफाक नहीं हुआ, और वो था फेमस प्राइवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले।


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खतरनाक साजिश
आप सबूतों को पेश करते वक्त ये भूल गये कि मुलजिम पुलिस डिपार्टमेंट में ना सिर्फ एक काबिल अफसर है बल्कि अपनी दिमागी सूझ-बूझ से जाने कितने कत्ल के केस सुलझा चुका है। ऐसे में भला कैसे उससे उम्मीद की जा सकती है ना सिर्फ उसने दो औरतों की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी, बल्कि हत्या के बाद अपनी खून लगी वर्दी और जूतों से पीछा छुड़ाने की बजाय वो नशे में धुत्त होकर, अपने फ्लैट का दरवाजा खुला छोड़कर सो गया। यानि उसने पुलिस को निमंत्रण दिया था कि आओ मैं ही हत्यारा हूं आकर मुझे गिरफ्तार कर लो। 

विक्रांत गोखले उवाच!साहबान लड़कियों की एक खास आदत होती है। जब तक उन्हें लगता है कि उन्हें कोई भाव नहीं दे रहा तब तक वो सबको भाव देती हैं - अखबार वाले, दूध वाले, कैंटीन वाले, यहां तक कि गोलगप्पे वाले को भी नहीं छोड़तीं - मगर ज्योंहि उन्हें पता लगता है कि कोई उन्हें भाव देने लगा है तो बस वहीं से वो भाव देने की बजाय भाव खाना शुरू कर देती हैं।खतरनाक साजिशशीध्र प्रकाशित

Thursday, July 13, 2017

         कॉलगर्ल का आत्मसम्मान
                                           

रजनी अप्सराओं जैसी खूबसूरत थी, कसावदार सेक्सी बदन, रसभरे होंठ और बड़ी-बड़ी आंखें किसी को भी सहज ही उसका दीवाना बना देती थीं। वह खुद भी तो यही चाहती थी मर्दों की निगाहों में आना! यही तो उसकी कमाई का जरिया था।
रात के दस बजने को हैं, इसका अहसास रजनी को, अभी-अभी घड़ी देखने के पश्चात ही हुआ था। वक्त का अहसास होते ही न जाने क्यों एक अंजाना-सा भय धीरे से उसके दिल में उतर आया और धमनियों में बहते लहू के साथ जा मिला। दस बजना कोई नई बात नहीं है, अक्सर ऐसा हो जाया करता है, फि़र भी आज वह फि़क्रमंद हो उठी है। उसने धीरे-धीरे गर्दन घुमाकर अपने आस-पास का जायजा लिया। बस-स्टॉप तकरीबन खाली हो चुका था, जो बचे हुए लोग दिखाई दिये, उन्हें वह अपनी उंगलियों पर गिन सकती थी।
जैसे कि---मूंगफ़ली वाला, जलेबी वाला, पान वाला और उसके आजू-बाजू खड़े दो मर्द। कुल पांच लोग मौजूद हैं, वहां जिनके होने का उसके लिए कोई महत्व नहीं था। उन सबके बीच रहकर भी वह नितांत अकेली ही है। ऊपर से जानबूझकर सबसे अलग-थलग बने रहने की मुसीबत लड़की जो ठहरी।
ऐसे वक्त में स्वयं का लड़की होना उसे किसी भयंकर अपराध से कम नही महसूस होता। फ़ुरसत के क्षणों में वह अक्सर सोचती है, ईश्वर ने उसे लड़की क्यों बनाया, लड़का क्यों नहीं? तब कम से कम हर वक्त उसके भीतर यह असुरक्षा की भावना तो नहीं बनी रहती। बात अगर सिफऱ् इतनी होती तो गनीमत थी, किन्तु यहां तो हर तरफ़ एक के बाद एक मर्द, सर्प की तरह फ़न उठाये, दंश मारने को एकदम से तैयार मिलते हैं। क्या-क्या नहीं बर्दाश्त करना पड़ता है उसे, कहीं अपनी गर्दन पर महसूसती उनकी गर्म सांसों की फ़फ़ुंकार, तो कहीं शरीर पर चुभती उनकी तेज धारदार निगाहें, कपड़ों के भीतर तक एक्सरे करती हुई सी---भला इनसे भी बचा जा सकता है?
अब इन्हीं दो हरामजादों को देखो, आजू-बाजू यूं तन कर खड़े हैं, जैसे दोनों उसके ‘बॉडीगार्ड’ हों। ऊपर से धीरे-धीरे अपनी तरफ़ फि़सलती उनकी टांगों का अहसास! वह बेखबर नहीं है, सब कुछ समझ रही है वह, रग-रग से वाकिफ़ है वह इन पुरुषों की, जो मन ही मन उसे हजम कर जाना चाहते हैं---या फि़र कर भी चुके और जता यूं रहे हैं जैसे कोई मतलब ही नहीं हाें उससे। मानो सब-कुछ अनजाने में ही होता चला जा रहा है। ये लोग मांस खाना तो चाहते हैं, किन्तु हड्डियों को गले में लटकाकर घूमने की कुव्वत उनमें नहीं है। वे नहीं चाहते की कोई उन्हें मांसाहारी समझे, रजनी उन दोनों से ही दूर हो जाना चाहती है, किन्तु क्या करें, एकांत का सामना करने की हिम्मत उसमें नहीं है बस, कभी-कभार जब उन दोनों का सामीप्य बर्दाश्त से बाहर होने लगता है, तो आगे-पीछे सरक कर स्वयं को उनसे दूर रखने की कोशिश भर कर लेती है।
किन्तु सब व्यर्थ साबित हो रहा है, अगले ही पल दोनों ने पुनः अपने स्थान से सरकना शुरू कर दिया और उसके एकदम करीब पहुंच गये। रजनी ने निगाहों से ऐतराज जताने की कोशिश की। बारी-बारी से उन दोनों को घूरकर देखा। एक पल को दोनों उधर से अपनी निगाहें फ़ेरकर तनिक सिमट से गये, किंतु उसकी निगाह हटते ही फ़नः पुराना सिलसिला चल निकला। गुजरते वक्त के साथ रजनी की परेशानी बढ़ने लगी, वह कुछ अधिक नर्वस हो उठी। घड़ी देखने पर ज्ञात हुआ कि साढ़े दस बज चुके हैं। वह अपनी जगह से हटकर तनिक आगे बढ़ी दूर-दूर तक सड़क पर निगाह दौड़ाकर देखने की कोशिश की, निराशा ही हाथ लगी, बस का कहीं पता नहीं था। पिछले एक घंटे से यहां खड़ी वह अपनी बस का इंतजार कर रही है, ऑटो से भी जा सकती है, किन्तु बस के साथ-साथ मानो ऑटो वालों  ने भी हड़ताल कर दिया हो, वह कर भी क्या सकती है? बस इंतजार किये जा रही है।
ऐसे वक्त में अचानक बज उठे मोबाइल फ़ोन की घंटी सुनकर उसे तनिक राहत-सी महसूस हुई, बैग में हाथ डालकर उसने फ़ोन बाहर निकाला और बातें करने लगी। ‘‘हॉय’’ उधार से कहा गया, ‘‘कहां हो जानेमन, क्या इस दीवाने को मार डालने का इरादा है, जल्दी आओ ना सारा नशा उतरा जा रहा है। मैं बेकरार हूं तुम्हारी तनी हुई पु"ट छातियों को सहलाने के लिए, तुम्हारे भारी कूल्हों को थपथपाने के लिए---।’’ फ़ोनकर्ता इससे पहले की शराब के नशे में कुछ और कहता रजनी ने ‘बस आधा घंटा और’ कहकर काल डिस्कनैक्ट कर दिया। रजनी ने फ़ोन पुनः बैग में रख लिया और इंतजार करने लगी।
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दरियागंज के बस स्टॉप पर रुकने के बाद बस, अभी-अभी आगे बढ़ी थी। अनायास ही रजनी की निगाह खिड़की से बाहर झांकती हुई, अगले दरवाजे तक पहुंच गई। एक नवयुवक बड़ी ही तेज गति से बस के साथ-साथ दौड़ रहा था, मानो यह उसके जीवन की आखिरी बस हो। वह बार-बार बस के भीतर दाखिल होने की कोशिश कर रहा था, एक पल को लगा बस उसके हाथ से छूट चुकी है। किन्तु वह हार मानने को तैयार नहीं था। दौड़ता रहा, दौड़ता रहा और अंततः वह मानो हवा में उड़ता हुआ-सा बस के भीतर दाखिल हो गया।
‘अबे , बहन चो----मरेगा क्या?’
यह खूबसूरत-सा वाक्य निश्चय ही ड्राइवर के मुख से निकला था। मालूम नहीं, वह किस बात पर क्रोधित है, युवक द्वारा बस की स्पीड को धता बताने पर या फि़र वह सचमुच उसके लिए फि़क्रमंद था। गाली देने के पश्चात वह पुनः अपनी ड्राइविंग में खो गया, मुड़कर अपने शब्दबाण का असर तक देखने की कोशिश नहीं की। युवक ने भी जवाब में कुछ नहीं कहा, वह बस की छत में लगे लोहे के डण्डे को पकड़कर झूलता हुआ आगे बढ़ा और रजनी के बगल में धम्म से बैठ गया। इस प्रक्रिया में उसकी कोहनियां रजनी की छातियों को सहला गई, हाथ, उसकी जांघों पर दबाव बना गए। रजनी को तनिक असुविधा-सी महसूस हुई। किन्तु वह मुंह से कुछ नहीं बोली---आदत-सी पड़ गई है उसे इस तरह धक्के खाने की, फि़र सोचती है, अब बचा ही क्या है उसके पास सहेज कर रखने के लिए, वक्त से बहुत पहले ही तो गंवा चुकी है वह अपना सब कुछ---अब तो आत्मसम्मान, सतीत्व इत्यादि के विषय में सोचना भी भारी मजाक का विषय जान पड़ता है। वह यकीन पूर्वक कह सकती है कि उसके बगल में बैठा युवक जान-बूझकर हड़बड़ी जताता हुआ वहां आ बैठा था, वह सिफऱ् उसे स्पर्श करना चाहता था, कर चुका था।
‘ऊंह, हरामजादा---स्साला।‘
युवक ने हड़बड़ाकर उसकी तरफ़ देखा, वह अचम्भित है, यकीन नहीं कर पा रहा है कि उसके बगल में मौजूद इस खूबसूरत रमणी ने उसे गाली दी है।
‘आपने मुझसे कुछ कहा?‘ वह स्वयं को प्रश्न करने से नहीं रोक पाया।
‘जी नहीं।‘ कहकर रजनी ने मुंह फ़ेर लिया और खिड़की से बाहर फ़ैंसी रंग-बिरंगी रोशनियों में स्वयं को उलझाने का प्रयत्न करने लगी, मगर इस दौरान उसका पूरा ध्यान युवक के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहां वह चाहकर भी उसके ख्यालों को दिमाग से खुरच नहीं पा रही थी। उसे बार-बार महसूस हो रहा था जैसे वह युवक  उस पर हंस रहा हो और उसकी खामोश निगाहें रजनी के शरीर को टटोलने का प्रयत्न कर रही हो। क्या सचमुच ऐसा ही था, या फि़र यह एक नया भ्रम है। जिसने उसके भीतर का दरवाजा खोज लिया है और अब उस बंद दरवाजे पर दस्तक देने की कोशिश कर रहा है। वह परेशान हो उठी।
अचानक उसे लगा बगल में बैठा युवक उसके खुले गले से झांकते उरोजों को घूर रहा है, वह एकदम से युवक की ओर पलट गई मगर वह दूसरी ओर देख रहा था। अचानक ही उसे अपने चारों तरफ़, माहौल कुछ बदला-बदला-सा प्रतीत होने लगा। भीतर कहीं एक अनजाना-सा अहसास रह-रहकर करवटें बदलने लगा। जाने यह सब क्या है, क्यों हो रहा है? वह जानने की कोशिश करने लगी ढूंढने लगी, उस नयेपन के अहसास को, रास्ते में छिटकी पड़ी चांदनी और लैम्प पोस्ट की रोशनी में। हर जगह, हर तरफ़, किन्तु जो भी दिखाई दिया वह सामान्य ही लगा, बिल्कुल पहले जैसा। उसका दिल इसे स्वीकारने को तैयार नहीं था, कुछ तो होना ही चाहिए---वह जो अब अपना स्वरूप त्याग चुका है, जिसके होने का अहसास उसे अपने चारों तरफ़ फ़ैला हुआ महसूस हो रहा है। रजनी की परेशानी बढ़ने लगी। उसने आगे-पीछे, बस के अन्दर, बस के बाहर हर तरफ़ तलाश करके देख लिया---सबकुछ सामान्य ही दिखाई दिया। फि़र क्यों उसका दिल यूं बार-बार किसी असामान्यता के घेरे में कसता चला जा रहा है?
रजनी इस बारे में जितना अधिक सोच रही है, उतना ही उलझती जा रही थी। उसने एक के बाद दूसरी, तीसरी---कई कोशिशें कर डालीं, खुद को उस असामान्यता के घेरे से बाहर निकालने की, किन्तु सफ़ल नहीं हो सकी। हार मानकर वह शांत बैठ गई, उसने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। किन्तु मन ज्यों का त्यों भटकता रहा। निगाहों को साथ लिए वह जाने कहां-कहां फि़रता रहा। यूं भटकती उसकी निगाह जब अपने सहयात्री पर पड़ी, तो वह चौंक उठी---उसके बगल में बैठा युवक सीट की दूसरे किनारे की हदों को पार करता हुआ अपने आप में सिमट-सा गया था। मानो रजनी कोई छूत की बीमारी हो, जिसके स्पर्श से वह बचना चाहता है। मानो, वह कोई आम लड़की हो, जिस पर ध्यान देना उसने गैरजरूरी समझा था। आज से पहले उसके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ था। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सभी उसका सामीप्य पाने को आकुल दिखाई देते थे, दूर खड़े लोग एक-दूसरे को धकियाते हुए उसके करीब पहुंचने की चेष्टा करते थे और अगर उसके बगल में कोई नवयुवक बैठा हो, फि़र तो हर मोड़ पर रजनी को उसके शरीर का भार झेलना पड़ता था। कभी-कभी तो पीछे मर्द के उत्तेजक अंग की कठोरता वह कपड़ों के ऊपर से ही अपने नितम्बों पर महसूस करती थी मानो यूं खड़े-खड़े पीछे से ही मुफ्त में मजा मार लेना चाहता हो। अब उसे यह सब बुरा नहीं लगता था---वह भीतर तक आनंदित हो उठती थी, श्रेष्ठता के अभिमान में उसका चेहरा जगमगा उठता था, मानो, उसने कोई मैडल जीत लिया हो।
वह थी ही खूबसूरती की हदों को पार करती हुई सी, एक बार जो उसे देख लेता बस---कभी-कभी तो उसे स्वयं भी रश्क हो आता, अनजान नहीं थी वह खुद से। किन्तु आज सब कुछ बदल-सा गया है, उसके बगल में बैठा यह अनजान युवक उसमें तनिक भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। रजनी को लगा सारी असामान्यता यहीं है, जो कि बेवजह उसके भीतर कसमसाहट उत्पन्न कर रही थी। उसने चोर निगाहों से युवक की तरफ़ देखा, सूरत से वह निहायती शरीफ़ नजर आया, पढ़ा-लिखा भी मालूम हुआ, फि़र इतनी बेरुखी? रजनी सोच में पड़ गई। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है कि वह उससे जरा-भी प्रभावित नहीं हुआ हो। सोचते वक्त अनजाने में ही उसकी निगाह सामने के शीशे पर जा पड़ी और वहीं थमकर रह गई। शीशे में अपना अक्स देखकर वह पहले की भांति फ्रुल्लित नहीं हो सकी, कुछ बुझ-सी गईं उसे लगा यह चेहरा तो उसका है ही नहीं, यह तो कोई अजनबी सूरत है, जो ठीक से पहचानी भी नहीं जाती। देखते ही देखते उसके केश बिखर से गये, गालों पर झुर्रियां उभर आईं और उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी आंखें अंदर को धंस गई प्रतीत होने लगी, वह भयभीत हो उठी, उसका दिल कर रहा है कि वह चीख-चीखकर सबको बता दे कि यह वो नहीं है, यह चेहरा जो दिखाई दे रहा है, यह उसका नहीं है।
चिल्लाने की कोशिश में वह पसीने से तर हो गई, भयभीत होकर उसने अपनी निगाहें फ़ेर लीं और धीरे-धीरे पुनः अपना ध्यान युवक पर केन्द्रित करने लगी, किन्तु यहां भी उसको सकून नहीं मिल रहा, युवक का बर्ताव बार-बार उसके भीतर चुभन-सी पैदा कर रहा है। रजनी को यह सरासर अपनी तौहीन दिखाई दे रही है, उसका अहम इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा कि वह युवक उसकी तरफ़ से उदासीन बना बैठा रहे, प्रति पल उसके भीतर की कसमसाहट बढ़ती जा रही है, युवक को झुकाने की कोशिश में वह स्वयं झुकती चली गई। वो युवक से बातें करने को उतावली हो उठी, किसी अजनबी से बात करने में तनिक झिझक तो अवश्य महसूस हुई, किन्तु वह खामोश नहीं रह सकी।
‘एक्सक्यूज मी!‘ उसने हौले से कहा, आवाज गले में फ़ंसती हुई महसूस हुई।
आवाज सुनकर वह रजनी की दिशा में घूम-सा गया, ‘यस प्लीज।‘
‘जी---जी, वो---दरअसल।‘ वह हड़बड़ा-सी गई, क्या कहे, क्या पूछे? अचानक कुछ खास न सूझ सका तो टाईम ही पूछ लिया।
‘पौने ग्यारह!‘ जवाब देकर वह पुनः पहले वाली स्थिति में पहुंच गया। रजनी लाचार हो उठी। धीरे से पहलू बदलकर उसने अपना मुख खिड़की की तरफ़ घुमा लिया और पुनः कोशिश करने लगी, उसी युवक को अपने ख्वाबों से खुरच देने की। किन्तु यह कोशिश हार के करीब पहुंचने पर उत्पन्न हुई, जीत की प्रबल आकांक्षा के समान थी। धीरे-धीरे उसकी कल्पनाशीलता बढ़ने लगी। उसने युवक को अपने भीतर बिठाकर तमाम खिड़की-दरवाजों को मजबूती से बंद कर लिया। फि़र शुरू किया सपने बुनने का एक लम्बा सिलसिला! जिसमें तरह-तरह के सुखद स्वप्न उसके सामने उपस्थित थे, जिन्हें वह मनमाने ढंग से बना-बिगाड़ सकती थी, यहां वह अपनी मर्जी की मालिक है। सपने में वह युवक उसके होंठों को चूम रहा था और वह उसे बार-बार पीछे धकेल देती थी। युवक गिड़गिड़ा रहा था उसके जिस्म को पाने के लिए मिन्नतें कर रहा था और वह उसे दुत्कार रही थी। आखिर युवक ने उसके आगे हाथ जोड़ दिए और गिड़गिड़ाता और बोला, ‘‘ऐ हुस्नपरी मुझे अपने इस खूबसूरत जिस्म का स्वाद चख लेने दे। मुझे अपना गुलाम समझ और अपने हुस्न की सेवा करने का मौका दो।’’
‘‘ठीक है’’ वह किसी महारानी की तरह गर्वांवित स्वर में बोली, ‘‘अगर तू मेरी गुलामी करने को तैयार है तो पहले मेरे खूबसूरत पैरों को अपनी जीभ से चाट फि़र टांगों को चाटता हुआ जांघो तक पहुंच और यूं मेरे अंग प्रत्यंग भीतरी और बाहरी दुनिया को अपनी जुबान से तर-बतर कर और फि़र मेरे जिस्म की गहराइयों में उतर जा।’’
रजनी अपने ख्वाब को लगातार मनमाना रूप दिए जा रही थी, उसका ख्वाब जारी था, युवक उसका हुक्म बजा रहा था। अपने बदन पर फि़रती उसकी जीभ के स्पर्श से रजनी जल्दी ही कामुक सीत्कारें भरने लगी। मारे उत्तेजना के उसने युवक को कसकर अपनी बांहों में भीच लिया---।
तभी बस ने तेज झटका खाया। रजनी का सिर आगे वाली सीट के पुज्त से टकराया और उसका हसीन ख्वाब छिन्न-भिन्न हो गया।
 ख्वाबों के घेरे से बाहर निकलकर वह विनम्र हो उठी---युवक के बारे में उसकी राय तब्दील होने लगी। कुछ समय पूर्व जो निष्ठुरता उसके अहम पर चोट कर रही थी। अब अचानक ही वह भली लगने लगी---रजनी मजबूर हो उठी, फि़र एक नये सिरे से उसके बारे में सोचने लगी, ‘ओह कितना शरीफ़ है, बेचारा! आजकल भला इतने सीधे-सादे लोग मिलते ही कहां हैं, खासतौर से हम लड़कियों के मामले में, सभी की फि़तरत एक होती है। उनका दृष्टिकोण एक होता है, सोचने-समझने का नजरिया एक होता है और उन सबकी हरकतें भी एक जैसी होती हैं, किन्तु यह---यह तो सबसे अलग है, जैसे फ़ुरसत ही नहीं है किसी और के बारे में सोचने की।‘
रजनी जाने कब मुग्ध हो उठी, उसके इस भोलेपन पर।
पहली बार उसके दिल के किसी कोने में झनकार उठी है, पहली बार उसने अपनी संकीर्ण मानसिकता के घेरे से बाहर निकलकर कुछ अलग सोचा है। महसूस किया है उन कोमल अनुभूतियों को जिनसे आज तक वह अनजान ही रही थी। उसका मन युवक की तरफ़ खिंचा-सा जा रहा है। वह उससे ढेरों बातें करना चाहती है, घनिष्ठता बढ़ाना चाहती है। यह मानव मन की एक दुर्बलता ही है---जो चीज हमसे जितना अधिक दूर होती है, उतनी ही आकर्षक दिखाई देती है और हम उसके उतने ही ज्यादा करीब पहुंचने की कोशिश करते हैं।
युवक की उदासीनता भी रजनी को बार-बार अपनी तरफ़ खींच रही है और वह सम्मोहित-सी खिंचती चली जा रही है। वह बार-बार युवक से बातें करने की कोशिश कर रही है और हर बार कुछ कह पाने से पूर्व ही खामोश हो जाती है, किन्तु वह हार मानने को कदापि तैयार नहीं है। एक के बाद एक---ऐसी कई कोशिशों के बाद आखिर वह बोल ही पड़ी।
‘सुनिये।‘
युवक तकाल उसकी दिशा में पलट गया, ‘आपने मुझसे कहा।‘
‘जी हां, दरअसल---मैं, एकच्युली में---आप?‘ वह हड़बड़ाकर चुप हो गई, जो कहना चाहती थी वह बात जुबान पर नहीं आ सकी। स्त्रीओचित लज्जा ने कुछ बोल पाने से पूर्व ही उसे खामोश कर दिया, युवक असमंजस में पड़ गया, किन्तु बोला कुछ नहीं, बस! पहले की भांति ही मुंह फ़ेरकर बैठ गया।
रजनी पुनः तलाशने लगी, कुछ नये किन्तु ऐसे प्रश्न जिनके जरिये वह उस युवक से बातें कर सके, उसके बारे में जान सके, अंदाजा लगा सके, अपनी सोचों के अनुरूप और अभिव्यक्ति कर सके अपने विचारों की, क्या वह युवक से उसका नाम पूछे? ---यह उचित होगा, अगर वह बुरा मान गया तो---शायद नहीं, फि़र इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है?
‘एक्सक्यूज मी!‘
‘आं---हां---कहिए।‘ वह मानो नींद से जागा हो।
‘क्या, मैं आपको नाम जान सकती हूं?‘
‘जी---आशीष---आशीष कुमार।‘ वह बेहिचक बोला। रजनी की प्रसन्नता का अनुमान न रहा। वह इतरा उठी अपनी विजय पर---इतना ज्यादा कि एक के बाद दूसरा प्रश्न करने में संकोच का अनुभव न हुआ।
‘आप जॉब करते हैं---शायद।‘
‘जी हां, यहीं एक प्राइवेट फ़र्म में एकाउंट मैनेजर हूं, माफ़ कीजिए, किन्तु आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया।‘
‘मैं!‘ वो इठला उठी, ‘रजनी श्रीवास्तव।‘
‘स्टूडेंट हैं आप---।‘
‘जी नहीं।‘
‘तो फि़र जॉब करती होंगी---।‘
‘अब तो शायद वो भी नहीं करती, कुछ देर पूर्व ही न जाने क्यों सब कुछ बदल-सा गया! कल तक जो कुछ भी मेरा अपना था, मेरे जीवन का अवलम्ब था, आज अचानक ही महत्वहीन हो उठा है, यूं महसूस हो रहा है, जैसे मैंने जिन्दगी को पहचानने में बड़ी भूल की है, अब तक तो मैं सिफऱ् खोती ही चली आई हूं, पाया कुछ भी नहीं। बस, समझते की कोशिश में लगी हूं कि इतना सब कुछ यूं पलक झपकते ही केसे घटित हो गया?‘
‘कुछ समझ में आया?‘
‘नहीं, बस! उलझ-सी गई हूं।‘
‘सूरत से तो ऐसी नहीं दिखती आप।‘
‘माफ़ कीजिए आशीष मैं आपका मंतव्य नहीं सझ सकी।‘
‘दरअसल आपको देखकर लगता है, बस इतना ही पर्याप्त है आपके बारे में सब कुछ जान लेने के लिए। किन्तु मेरा अंदाजा गलत था, आप तो बेहद गहरी हैं---कई परतों से मिलकर बनी हैं और हर परत अपने-आप में सम्पूर्णता का अहसास कराती है। आपके पहलू में बैठते वक्त लगा था, आप महज एक खूबसूरत लड़की हैं। आपने बोलना शुरू किया, तो लगा कॉफ़ी वाचाल हैं आपकी बातें सुनकर लगा, आप बेहद दुःखी हैं और अब मैं सोचने को विवश हो गया हूं कि आप कोई लेखिका या 'ाायरा तो नहीं हैं।‘
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रात के बारह बजने को हैं, किन्तु नींद रजनी की आंखों से कोसों दूर है। वह आशीष के साथ बिताये गये एक-एक क्षण, एक-एक बात को, कई-कई बार मन ही मन दोहरा चुकी है और अब उनका विश्लेषण करके अपनी सोचों के अनुरूप नये-नये अर्थ तलाशने की कोशिश कर रही है। ऐसी हर कोशिश उसे आशीष की तरफ़ खींचती चली जा रही है। उसे महसूस हो रहा है कि वह आशीष से मोहब्बत कर बैठी है। ‘मोहब्बत’ एक नई अनुभूति थी उसके लिए। अब तक वह सिफऱ् सेक्स को ही प्रेम समझती आई है, किन्तु आज ऐसा नहीं है---आज प्रेम का एक नया अर्थ, नया रूप उभर कर उसके सामने आ रहा है।
मन के विचार बार-बार करवट बदल रहे हैं, उसी अनुपात में उसके अंतर्मन की उलझन गहराती जा रही है। किसी एक रास्ते को वह पूर्ण नहीं मान पा रही है---लग रहा है कोई भी राह अपने आपमें पूर्ण नहीं हेाती, कहीं न कहीं उसे दूसरे किसी रास्ते में समाहित होना ही पड़ता है, फि़र वे दोनों एकाकार होकर किसी तीसरे रास्ते से जा मिलते हैं। बस, इसी तरह रास्ते बनते चले जाते हैं। वह इनसे अलग हटकर चलना चाहती है, किन्तु किसी नये राह के निर्माण की क्षमता उसमें नहीं है, फि़र! कितना आसान होता है किसी बने-बनाये रास्ते पर नाक की सीध में आगे बढ़ते चले जाना और कितना मुश्किल होता है नई राह का निर्माण---हर कदम पर फि़सल जाने का खतरा, कहीं चट्टानों से टकराने का भय, तो कहीं किसी गहरे अंधड़ में गिर पड़ने की आशंका।
वह जाने क्या-क्या सोचती रही, अंततः अपनी ही भयावह सोचों से भयभीत हो, वह चिल्ला कर उठ बैठी, मानो अभी-अभी नींद से जागी हो, उसे अपना समूचा अस्तित्व सागर की अन्नत गहराइयों में विलीन होता-सा प्रतीत हो रहा है।
ओह! जाने क्या-क्या सोचती रहती वह---पहले भी तो उसने ऐसे ही किसी नये रास्ते के निर्माण की कोशिश की थी, नतीजा क्या हुआ एक बार जो पांव फि़सला तो जीवनभर फि़सलती ही चली गई। लीक से अलग हटकर चलने की कोशिश मे वह परत दर परत के गर्त में समाती चली गई और आज वह महज एक कॉलगर्ल बनकर रह गई है। अपनी स्वेच्छा से ही तो चुना था, उसने यह ‘धंधा’ न कि किसी ने मजबूर किया था, जैसा कि इस दो़ करोड़ की आबादी वाले महानगर में अक्सर होता ही रहता है।
वह करती भी क्या? आठ हजार रुपये की माहवारी पगार में पेट तो शायद भर जाता, किन्तु उसकी ऊंची महत्वाकांक्षाएं, जिनके लिए वह स=ह साल की उम्र की उम्र में भागकर दिल्ली चली आई थी---उनका क्या होता? बस, लोगों को अपने ऊपर आशिक करवाना उसका शगल बन गया और शरीर बेचना रोजगार।
उसे याद है अपना पहला ग्राहक जो उसी फ़र्म में मैनेजर था जहां उसने क्लर्क की नौकरी पकड़ी थी। इस काम का कोई तजुर्बा नहीं था मगर जब उसे अप्वाइंट कर लिया गया तो वह हैरान रह गयी। उसे नौकरी क्यों मिली इसका पता उसे तीसरे रोज चला था जब छुट्टी के समय मैनेजर ने उसे अपने कमरे में बुलाया। सारा स्टाफ़ जा चुका था। मैनेजर ने उठकर उसका स्वागत किया और स्पष्ट लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें ये नौकरी इसलिए मिली क्योंकि तुम बहुत हसीन हो। तुम्हारी पगार आठ हजार है पर तुम अगर मुझे खुश कर दो तो पांच हजार का बोनस अभी मैं तुम्हें दूंगा।’’ कहकर मैनेजर ने 500 के दस नोट सामने रख दिए, ‘‘फ़ैसला तुम्हारा है, तुम सिफऱ् नौकरी करना चाहती हो या बोनस भी पाना चाहती हो।’’
रजनी की बोलती बंद हो गई। मगर वह ज्यादा देर तक असमंजस की स्थिति में नहीं रही, उसने सामने पड़़े नोट अपने पर्श में रखे और उठकर स्वयं ही कमरे का दरवाजा भीतर से बंद कर दिया।
मैनेजर की बांछें खिल गई। वह 40 के पेटे में पहुंचा दो बच्चों का बाप था। मगर रजनी पर यूं झपका मानों पहली बार किसी जवान खूबसूरत लड़की को देखा हो उसने कुछ ही पलों में रजनी की सलवार कमीज उतार फ़ेंकी, फि़र उसके ब्रा को नोचकर उसके जिस्म से अलग किया और उसके नग्न बदन को जी भरकर चूमने-चाटने और मसलने के बाद मैनेजर ने अपने अरमानों की तपती सलाख उसकी गहराइयों में उतार दी। रजनी के हलक से चीख निकलते-निकलते बची। वह दांत पर दांत जमाए दर्द बर्दाश्त करती रही और वह उसके कौर्माय को खंडित करता चला गया। कुछ पल बाद मैनेजर कुत्ते की तरह हाफ़ं रहा था और वह दर्द से तड़प रही थी। मगर मैनेजर अपने पैसों की पूरी वसूली चाहता था। थोड़ी देर बाद उसने अपनी मेज की दराज से निकालकर कोई कामवर्धाक कैप्शूल खाया और कुछ ही मिनटों में उसका घोड़ा रेस में दौड़ने को एकदम तैयार था।
रजनी ने जब दोबारा उसे तैयार होते देखा तो सहम सी गई मगर उस वक्त तो वह बिदक ही गई जब मैनेजर ने उसे पीठ के बल लिटाकर सवारी करनी चाही। उसने साफ़ इंकार कर दिया मगर अब तक मैनेजर की कामनाओं का घोड़ा हवा से बातें कर रहा था। उसने रजनी को दो तीन तमाचे जड़े और जबरन उल्टा लिटाकर सवारी करने लगा। रजनी के हलक से एक मर्मातक चीख निकली मगर कमरा साउंड फ्रू था। उसकी चीख कमरे में ही गूंजती रही और मैनेजर ने अपनी मनमानी कर डाली। इससे पूर्व की मैनेजर को वह भला बुरा कहती, मैनेजर ने चुपचाप दो हजार रुपये और उसे पकड़ा दिया।
दो घंटो में सात हजार की कमाई। रजनी सारा दर्द भूल गई। इसके बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज क्या नहीं है उसके पास, सब कुछ तो पा लिया था उसने।
कल तक वह सम्पूर्ण थी, संतुष्ट थी, किन्तु आज अचानक ही सब कुछ खाली-खाली-सा महसूस होने लगा है, आज पहली बार उसे अपनी अंतरआत्मा की आवाज सुनाई पड़ी है, जो उसे बार-बार धिक्कार रही है, उसके चरि= पर लानत भेज रही है। गुजरा हुआ वक्त किसी भयानक ख्वाब की तरह उसे बार-बार उसकी तुच्छता का अहसास करा रहा है। ऊफ़! क्या-क्या करती रही है, वह अब तक, हर रात एक नया मर्द, नई गंध, नया तर्जुबा। वह इतना ज्यादा गिर गई और आज से पहले अहसास तक नहीं हुआ, उसका जी मिचलाने लगा, उठकर बाथरूम की तरफ़ दौड़ी। खाया-पिया सब बाहर, किन्तु तसल्ली नहीं हुई----मुंह में उंगली डालकर जबरन और उल्टियां की, फि़र निर्वस्= होकर ‘शावर’ के नीचे खड़ी हो गई, कोशिश करने लगी, रगड़-रगड़कर स्वयं को साफ़ करने की, इस कोशिश में उसने अपने हर उस अंग को रगड़-रगड़कर घोया जहां से अंजान, अय्याश मर्दों की गंदगी से उठती बू उसे महसूस हो रही थी। मगर जो गंदगी भीतर तक गहरी पैठ बना चुकी थी, वह भला यूं कैसे धुल जाती।
‘हे भगवान---मुझे क्षमा करना।‘ वह हिचक-हिचक कर रोने लगी, जितना रोई, रोने की भावना उतना ही प्रबल होती गई।
इस वक्त उसकी दशा उस जुआरी की भांति हो रही है, जो जुए में अपना सर्वस्व हार चुकने के बाद स्वयं को जी भरकर कोसना शुरू कर देता है। वह भी जाने कब तक खुद को कोसती रही, गालियां देती रही, मन का उद्वेग फि़र  भी शांत नहीं हुआ---बेडरूम में पहुंचकर भीगे बदन ही बिस्तर पर पसर गई। आंखों के समक्ष पुनः आशीष का चेहरा नाच उठा, उससे पुनः मिलने की चाह हर पल बढ़ती जा रही है। इस गहरे अंतर्द्वंद में रात कब बीत गई, कब सवेरा हो गया? यह रजनी नहीं जान सकी।
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बस स्टॉप पर खड़े-खड़े तकरीबन एक घंटा गुजर चुका था, अभी जाने कितना लम्बा खिंचना था यह इंतजार का सिलसिला, किन्तु आज वह मायूस नहीं हो रही, बल्कि उत्सुक है, आशीष से मिलने को। सारी बातें पहले से तय कर चुकी है। एक-एक वाक्य बहुत सोच-समझकर चुना है उसने, बस एक बार वह दिखाई दे जाये---उसकी उत्सुकता हर पल बढ़ती जा रही है, पिछले पांच मिनट में वह दस बार घड़ी देख चुकी है, किन्तु वक्त था कि बीतने का नाम ही नहीं ले रहा। सेकेण्ड की सुई मानो घंटे के हिसाब से चलने लगी हो, एक-एक पल एक-एक युग के समान महसूस हो रहा है।
‘अगर वह नहीं आया तो?‘ सोचने मा= से वह भीतर तक हिल उठी, लगा कोई प्राण खींचे ले जा रहा हो।
‘आयेगा क्यों नहीं?‘ खुद को तसल्ली देने लगी,  ‘बस, तो पकड़नी ही है उसे--अभी तो कल वाला वक्त भी नहीं गुजरा, मैं तो बस---खामखाह परेशान हो रही हूं?‘
यूं ही सिलसिला चलता रहा।
इंतजार करते-करते वह थक-सी गई, कल वाला वक्त भी पीछे छूट गया। मगर वह नहीं आया। गुजरते लम्हों के साथ उसकी उदासी बढ़ने लगी, आशा का स्थान निराशा ने ले लिया। अपने दिल के भीतर बार-बार उसे कुछ चटकता-सा प्रतीत होने लगा, एक-एक करके सारे स्वप्न महल धराशाही होने लगे। फि़र भी अवाक-सी खड़ी वह टकटकी लगाये उसके आने की राह देख रही थी। किन्तु वह नहीं आया। जो कभी उसका था ही नहीं, उसे खोने के गम में रजनी की आंखें छलक आईं---वहीं खड़े-खड़े वह रो पड़ी, जाने कब तक रोती रही।
ध्यान उस वक्त भंग हुआ, जब अचानक ही उसका मोबाइल फ़ोन बज उठा। घंटी की आवाज सुनकर उसके आंसू थम से गये, कुछ क्षण इंतजार करती रही---किन्तु जब घंटी बजनी बंद नहीं हुई तो उसने ‘काल अटैण्ड’ कर ली और बिना कुछ कहे दूसरी तरफ़ से आती आवाज को सुनती रही। इस दौरान उसके चेहरे का तनाव बढ़ने
लगा---आंखें सुलग उठी। कोई कह रहा था, ‘‘अरे रानी कितनी देर लगाओगी, मेरा मन बेकरार हो रहा है।’’
‘सॉरी मैं नहीं आ सकती।‘ वो खुद को जब्त करके बोली।
‘--------------------------------------------‘
‘बकवास मत करो।‘ वह चीख-सी पड़ी, ‘मैं तुम्हारी रखैल नहीं हूं, जो तुम्हारे इशारों पर नाचती फि़रूं।‘
‘----------------------------------------------‘
‘अगर तुम पैसा देते हो तो बदले में जानवरों की तरह रात भर रौंदते हो मुझे।‘
‘-----------------------------------------------‘
‘शटअप! आइंदा मुझे फ़ोन मत करना।‘
कहकर उसने ‘कॉल डिस्कनैक्ट’ कर दी। उसका यह फ़ोन भी अद्भुत चीज है---उसका हमसफ़र---उसके हर गुनाह में शरीक कोई नहीं जानता वह कहां रहती है। बस, यह फ़ोन ही था जो दूसरों को उससे जोड़ता था।
फ़ोनकर्ता उसका ‘रेग्यूलर कस्टमर’ था, जो कि गैर-सरकारी बैंक में उच्च अधिकारी था, किन्तु अब उसे किसी की परवाह नहीं है, आज रजनी अपने अतीत से नाता तोड़ आई थी---उधर मुड़कर देखने मा= से उसे दहशत होने लगी है। वह अपने अतीत को भुला देना चाहती थी, जिसके प्रथम प्रयास स्वरूप उसने मोबाइल फ़ोन का बैटरी वाला  हिस्सा खोलकर ‘सिम कार्ड’ बाहर निकाला और तोड़कर एक तरफ़ पड़े कूड़े के ढेर में उछाल दिया।
‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।‘
उसने हाथ देकर एक ऑटो रुकवाया और उसमें सवार हो गई।

!! समाप्त !!

Wednesday, May 31, 2017

                       आखिरी शिकार 
नीलेश तिवारी एक लेखक था! ऐसा लेखक जो अपने लेखन से मिलने वाली वाहवाही का लुत्फ नहीं उठा सका। उसकी पहली रचना ‘आवारा लेखक‘ प्रकाशित क्या हुई मानो उसकी जिंदगी को ग्रहण लग गया। अगले ही रोज वो अपने फ्लैट के बाथरूम में मरा हुआ पाया गया। फिर एक के बाद एक हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ वो तो जैसे रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था। पुलिस हैरान थी, परेशान थी! कातिल को पकड़ना तो दूर रहा, पुलिस हत्यारे का मकसद तक नहीं तलाश कर पा रही थी....!

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                                   अनदेखा खतरा

जूही मानसिंह को लगता था, कोई है जो उसकी जान लेना चाहता है। वो हर वक्त खुद को एक अनजाने अनदेखे खतरे से घिरा हुआ महसूस करती थी। उसका दावा था कि उसकी हवेली में नर-कंकाल घूमते थे! मरे हुए लोग अचानक उसके सामने आ जाते और फिर पलक झपकते ही गायब हो जाते थे। बंद कमरे में उसपर गोलियां चलाई जाती थीं, बाद में ना तो हमलावर का कुछ पता चलता, ना ही उसकी चलाई गोलियां ही बरामद होती थीं। हद तो तब हो गई जब वो एक ऐसे डाॅक्टर की प्रिस्क्राइब की हुई दवाइयां खाती पाई गई - जिस डाॅक्टर का कोई वजूद ही नहीं था। क्या पुलिस, क्या मीडिया! यहां तक कि उसके भाई को भी यकीन आ चुका था कि पिता की मौत के सदमे ने उसका दिमाग हिला दिया था! वो पागल हो गई थी। बावजूद इसके वो पुरजोर लहजे में चीख-चीख कर कह रही थी- मैं पागल नहीं हूं! सुना तुमने मैं पागल नहीं हूं.....! ऐसे में जब प्राइवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले ने मामले की तह में जाने की कोशिश की, तो एक के बाद एक हैरतअंगेज, दिल दहला देने वाले वाकयात सामने आते चले गये--

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ये कैसी दीवानगी







दोनों एक दूजे पर जान छिड़कते थे मगर घर वालों व समाज को उनका मिलन कबूल न था। हिम्मत करके वह लिव-इन रिलेशनशिप में रहने लगे, यह भी गवारां न हुआ तो एक दिन दोनों एक दुसरे का साथ निभाने के लिए एक अलग ही रास्ता चुन लिया-----




मूलरूप से उत्तर प्रदेश प्रांत के गाजीपुर जिले की निवासी कंचन सिंह उम्र के 17वें पड़ाव पर पहुंच गई थी। उसका निखरता हुआ शरीर इस बात की सूचना दे रहा था कि वह जवानी की दहलीज में कदम रख चुकी है। यूं तो खूबसूरती उसे कुदरत ने जन्म से ही तोहफे में बख्शी थी, लेकिन अब जब उसने लड़कपन के पड़ाव को पार कर यौवन की बहार में कदम रखा तो खूबसूरती संभाले नहीं सम्भल रही थी।
कंचन, जितना प्यारा नाम था। उतना ही खूबसूरत चेहरा भी था। गोरा रंग होने के साथ-साथ उसके चेहरे पर एक अजीब सी कशिश थी। वह मुस्कराती तो लगता जैसे गुलाब का फूल सूरज की पहली किरण से मिलते हुए मुस्करा रहा है। अक्सर उसकी सहेलियां इस पर उसे टोक देतीं, फ्ऐसे मत मुस्कराया कर कंचन, अगर किसी मनचले भंवरे ने देख लिया तो बेचारा जान से चला जाएगा।य् वह मुस्करा कर रह जाती थी।
कंचन खूबसूरत तो थी ही, साथ ही अच्छे संस्कार उसकी नस-नस में बसे थे। उसका व्यवहार कुशल होना, आधुनिकता और हंसमुख स्वभाव उसकी खूबसूरती पर चांद की तरह थे। जो किसी को भी उसका दीवाना बना देती थी। हसमुख होने के कारण वह सहज लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाया करती थी।
सत्रह बसन्त पार कर लेने के बाद अब कंचन उम्र के उस नाजुक दौर में पहुंच चुकी थी, जहां युवतियों के दिल की जवान होती उमंगे, मोहब्बत के आसमान पर बिना नतीजा सोचे उड़ जाना चाहती है। ऐसी ही हसरतें कंचन के दिल में भी कुचांले भरने लगी थी, पर उम्र के इस पायदान पर खड़ी कंचन ने अभी तक किसी की तरफ नजर भरकर देखा तक नही था।
यूं तो कंचन बचपन से ही महत्वाकांक्षी थी। वह वह घर के काम-काज अलावा पढ़ाई-लिखाई भी मेहनत और लगन से किया करती थी। लिहाजा 2011 के बैच में वह पुलिस विभाग में कांस्टेबल बन गयी और मुस्तैदी से वाराणसी में ड्यूटी करने लगी। यहीं पर उसकी मुलाकात अखिलेश यादव से हुई।
अखिलेश मूलरूप से गाजीपुर के ही बसुखारी सैदपुर के रहने वाले रामजीत यादव का बेटा है। रामजीत यादव भी उत्तर प्रदेश पुलिस में हैं और वर्तमान में चौक थाने में हेड कांस्टेबल हैं। अखिलेश पढ़ाई में तेज था साथ ही साथ बेहद महत्वाकांक्षी और देखने में हष्ट-पुष्ट भी था। पिता के नक्शे-कदम पर चलते हुए 2011 के बैच में वह भी पुलिस विभाग में कांस्टेबल बन गया और उसकी पोस्टिंग भी वाराणसी में हुइ र्थी।
लगभग साल-डेढ़ साल पहले की बात है, उस समय अखिलेश वाराणसी के चेतगंज थाने पर तैनात था। एक दिन सुबह-सुबह अखिलेश किसी काम से कही जाने के लिए थाने से बाहर निकला ही था कि थाने के अंदर आ रही एक महिला कांस्टेबल से अचानक टकराया गया। महिला कांस्टेबल गिरते-गिरते संभली और तल्ख स्वर में बोली, फ्दिखाई नहीं देता?’’
फ्साँरी---य् अखिलेश के मुख से निकला।
अब तक महिला कांस्टेबल का गुस्सा कम हो गया था और वह बोली, फ्सामने देखकर चला किजिए--य् कहते हुए महिला कांस्टेबल थाना परिसर की तरफ चल पड़ी। अखिलेश जाती हुई महिला कांस्टेबल को गौरे से देखता ही रह गया।
महिला कांस्टेबल तो चली गयी पर अखिलेश को लगा कि महिला कांस्टेबल में कुछ खास है जो उसे दूसरी लड़कियों से अलग करता है पर काम के ध्यान में अखिलेश के मन का यह ख्याल कहीं खो गया। कुछ दिन बाद वह महिला कांस्टेबल अखिलेश को मार्केट में मिली। अखिलेश से उसकी नजरें मिली तो अखिलेश ने उसे नमस्ते किया और पूछा, फ्इधर कहां मैडम?य्
महिला कांस्टेबल चौकी, फिर अचानक याद आते वह मुस्कुराते हुए बोली, फ्बस कुछ खरीददारी करनी थी---’’
बातचीत के दौरान महिला कांस्टेबल ने अपना नाम कंचन सिंह बताया और वह गाजीपुर जिले की रहने वाली है। हाल ही में चेतगंज थाने पर उसकी नियुक्ति हुई है। बातों ही बातों में अखिलेश ने उसे बताया कि वह भी गाजीपुर के ही बसुखारी सैदपुर के रहने वाला है। एक ही जिले का होने के चलते उनके बीच बातों का सिलसिला तो बस चलता ही चला गया, इसी बीच पता नहीं दोनों कब और कैसे नजदीक आ गए कि एक दूसरे से मिलने बात चीत करने को दिल बेचौन रहने लगा।
एक ही थाने पर नियुक्ति के चलते अकसर अखिलेश की कंचन से मुलाकात हो जाती थी। एक दिन अखिलेश ने कंचन से कहा, फ्क्या आप मुझे अपना मोबाइल नंबर दे सकती है।य्
कंचन ने गहरी नजर से उसे देखा कहा कुछ नहीं और अपना मोबाइल नम्बर उसे दे दिया।
कुछ दिनों तक अखिलेश सोचता रहा कि कहीं मोबाइल पर काल करने पर कंचन नाराज न हो जाए। लेकिन फिर हिम्मत करके उसने एक दिन कंचन को नम्बर मिलाया और बताया कि अखिलेश बोल रहा हूं। अखिलेश ने कहा कि वह उससे मिलकर कुछ कहना चाहता है। शाम को वह संकठमोचन मंदिर आ जाए। कंचन ने कुछ सोचकर हामी भर लिया।
जिस समय अखिलेश का फोन आया कंचन की एक सहेली उसके साथ ही थी। सहेली के पूछने पर कंचन ने कहा, फ्अपने ही थाने पर तैनात एक कांस्टेबल का फोन था मिलना चाहता है। सहेली कुछ गंभीर हो गई। उसने कंचन से कहा लड़कों से ज्यादा मेल-जोल ठीक नहीं। कंचन ने सहेली से कहा, फ्मुझे नहीं मालूम की लड़का मुझसे क्यों मिलना चाहता है पर मुझे लगता है कि यह दूसरे लड़कों से अलग है, बेहद शांत और गंभीर।य्
सहेली ने कहा, फ्खुद ही सोच समझ लो, मैं क्या कह सकती हूं।य्
सच तो यह था कि कंचन के मन में भी अखिलेश के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा था। वह जवानी की दहलीज पर खड़ी थी। अखिलेश पहला नौजवान था जो उसे भा गया था पर अपने मन की बात को उसने मन में ही दबा रखा था।

सच तो यह था कि कंचन के मन में भी अखिलेश के प्रति लगाव बढ़ता जा रहा था। वह जवानी की दहलीज पर खड़ी थी। अखिलेश पहला नौजवान था जो उसे भा गया था पर अपने मन की बात को उसने मन में ही दबा रखा था।

शाम को करीब 6 बजे वह संकठमोचन मंदिर पहुंची तो अखिलेश वहाँ पहले से ही खड़ा था। कंचन को देखकर उसके चेहरे पर चकम आ गई। कंचन ने कहा चलिए किसी रेस्तरां में बैठकर बात करते हैं। इसके बाद वे दोनों एक रेस्तरां में आ गए। जहां वे लोग केबिन में बैठ गए तभी बैरा आर्डर लेने आ गया। कंचन ने कहा, एक प्याला काफी।
अखिलेश ने दो प्याला काफी का आर्डर दे दिया। केबिन में खामोशी छाई हुई थी। अखिलेश कुछ कहने की हिम्मत जुटा रहा था तभी कंचन ने कहा, फ्लगता है कुछ कहने में काफी हिम्मत जुटानी पड़ रही है।य्
फ्हां सोच रहा हूं पता नहीं क्या प्रतिक्रिया जाहिर करोगी, कहीं नाराज ही न हो जाओ।य् अखिलेश ने कहा।
तब तक बैरा काफी रख गया था। अखिलेश ने हिम्मत करके कंचन का हाथ पकड़ लिया और बोला, फ्मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं कंचन क्या तुम मुझे मेरे हालात के साथ स्वीकार करोगी। तुम्हें देखकर मुझे हर बार यही लगता है कि तुम्हीं वो लड़की हो जिसे मेरे मन को तलाश थी।य्
कंचन का दिल जोरों से धाड़कने लगा। लेकिन उसने खुद को संभाला और बोला, फ्जिस राह पर तुम चलना चाहते हो उस पर कितने कांटे हैं, इसकी समझ है तुम्हें? कभी-कभी तो मंजिल हासिल करने के लिए जान भी देनी पड़ सकती है। कहो कहां तक साथ दे सकते हो, कहीं बीच रास्ते में छोड़ तो नहीं दोगे।य्
फ्जब तक जिस्म में जान रहेगी मैं तुम्हारे साथ रहूंगा और मैं क्या मेरा दिल, मेरी जिंदगी अब तुम्हारी अमानत है।य् अखिलेश ने कहा।
उस दिन के बाद कंचन और अखिलेश की जैसे दुनिया ही बदल गई अक्सर दोनों कहीं न कहीं मिलने का मौका निकाल ही लेते थे। दोनों साथ घूमते-फिरते भी थे।
कहते है इश्क-मुश्क छिपाये नहीं छिपती। धीरे-धीरे उनके प्रेम के चर्चे पुलिस महकमे में होने लगे। उड़ते-उड़ते यह खबर वाराणसी में ही तैनात अखिलेश के पिता रामजीत यादव को लगी तो उनके कदमों से जमीन खिसकती हुई प्रतीत होने लगी। क्योंकि सरकारी नौकरी में होने कारण अखिलेश की शादी के लिए एक से बढ़कर रिश्ते आ रहे थे। दहेज में भी मोटी रकम के आफर मिल भी रहे थे। बेटे के प्यार करने से रामजीत यादव के सपने टूटते हुए लगने लगे।
मौका पाकर एक दिन उन्होंने अखिलेश से पूछा, फ्क्या तुम किसी लड़की से मिलते हो, देखो, जो बात हो तुम मुझे सच-सच बता दो। क्योंकि आज कल तुम्हारी बहुत शिकायत मिल रही है।य्
अखिलेश सोच में पड़ गया लेकिन फिर बोली, फ्मैं कोई गलत काम नहीं करूंगा। आप मेरा विश्वास करो। जिस लड़की के बारे में आप पूछ रहे हैं। उसका नाम कंचन है, वह बहुत ही अच्छी लड़की है, मैं कभी-कभी उससे बात कर लेता हूं। इसमें बुरा क्या है।य्
बेटे की बात सुन रामजीत का पारा सातवें आसमान पर  चढ़ गया और भड़क उठे। उस समय अखिलेश कुछ कहने के बजाय वहां से हटकर चला जाना उचित समझा और चुपचाप वहां से हट गया। बेटा हाथ से निकल न जाय यह सोचकर रामजीत यादव ने प्रयास कर अखिलेश की शादी तय करने की कोशिश में लग गये। इस की जानकारी अखिलेश को हुई तो और भी परेशान हो उठा। इधर कंचन के घर वालों को इसकी जानकारी हुई तो उसके घर वालों ने भी काफी ऊंच-नीच समझाते हुए अखिलेश से रिश्ता न रखने की सख्त हिदायत देने के साथ ही उसके रिश्ते के लिए प्रयास करने लगे।
घर वालों की सख्ती से दोनों परेशान रहने लगे। इसी दौरान अखिलेश और कंचन की प्रेम कहानी की जानकारी वरिष्ठ अधिकारियों को हुई तो विभाग की इज्जत दागदार होने से बचाने के लिए अखिलेश को चेतगंज थाने से हटाकर पुलिस लाइन भेज दिया। अलग जगहों पर तैनाती हो जाने से दोनों को मिलने में परेशानी होने लगी तो दोनों ने बिना शादी के ही एक साथ रहने का निश्चय कर किराये के कमरे के तलाश करने लगे। जल्द ही उन्होंने कैंट थानाक्षेत्र के पांडेयपुर नई बस्ती में ममता सिंह के मकान की दूसरी मंजिल पर स्थित एक कमरा किराये पर लेकर पति-पत्नी की तरह रहने लगे।
अखिलेश व कंचन के लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने की जानकारी दोनों के घर वालों को हुई तो वह लोग अलग करने के प्रयास में लग गये। एक तरफ जहाँ दोनों सोचा था कि अगर वह पति-पत्नी की तरह रहने लगे तो शायद घर वाले उनकी शादी के लिए राजी हो जाये। लेकिन दोनों के घर वाले तो उन्हें अलग करने के प्रयास में कुछ अधिक ही दिलचस्पी लेने लगे तो दोनों और भी परेशान हो उठे। आखिरकार घर वालों के दबाव के चलते 25 मार्च 2013 अखिलेश व कंचन विभाग व घर वालों को बिना कुछ बताए कहीं चले गए।
अखिलेश व कंचन कई दिन तक ड्यूटी से गायब रहने की जानकारी पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को हुई तो उनके निर्देश पर दोनों को तलाश करने के लिए उनके खिलाफ विभागीय रपट लिखकर जाँच की जाने लगी। जाँच के दौरान पता चला कि अखिलेश ने अपनी सर्विस राइफल भी विभाग में नहीं जमा किया हैं तो पुलिस ने दोनों के कमरे का ताला तोड़कर अखिलेश की सर्विस राइफल को बरामद कर लिया गया।
लगभग एक सप्ताह तक लापता रहने के बाद जब दोनों को शांति न मिली तो अखिलेश व कंचन 30 मार्च 2013 को वापस कैंट थानाक्षेत्र के पांडेयपुर नई बस्ती स्थित अपने किराए के कमरे पर लौट आए। 31 मार्च पूरा दिन जब दोनों कमरे से बाहर नहीं निकले तो शक होने पर उसी मकान की तीसरी मंजिल पर रहने वाले एक सिपाही ने इनके दरवाजे की बारीक झिर्री से अंदर देखा। अंदर का नजारा देखते ही वह चिल्लाने लगा। उसकी आवाज सुनकर मकान मालकिन ममता का बेटा संतोष ऊपर पहुंचे और देखा कि कमरे की सीलिंग में लगे हुक से मफलर के सहारे सिपाही अखिलेश व महिला सिपाही कंचन सिंह स्कार्फ के सहारे झूल रही थी। अंदर का नजारा देख संतोष ने आनन-फानन में इसकी सूचना पुलिस को दे दी।
अपने थानाक्षेत्र एक साथ दो पुलिसकर्मी द्वारा एक साथ आत्महत्या करने की जानकारी मिलते ही कैंट थाना प्रभारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारी एसएसपी अजय कुमार मिश्र एएसपी सिटी राहुलराज को घटना की जानकारी देने के साथ ही दल-बल के साथ मौके पर पहुंच गये।

कहते है इश्क-मुश्क छिपाये नहीं छिपती। धीरे-धीरे उनके प्रेम के चर्चे पुलिस महकमे में होने लगे। उड़ते-उड़ते यह खबर वाराणसी में ही तैनात अखिलेश के पिता रामजीत यादव को लगी तो उनके कदमों से जमीन खिसकती हुई प्रतीत होने लगी। क्योंकि सरकारी नौकरी में होने कारण अखिलेश की शादी के लिए एक से बढ़कर रिश्ते आ रहे थे।

अब तक घटना की जानकारी जंगल में लगी आग की तरह चारों तरफ फैल चुकी थी। लिहाजा घटना स्थल पर काफी भीड़ जमा हो चुकी थी। लोग तरह-तरह की चर्चा कर रहे थे, जितनी मुहँ उतनी बातें थी।
घटना स्थल पर पुलिस को पहुंचा देख भीड़ यहां-वहां तितर-वितर हो गई। कैंट थाना प्रभारी कमरा खोलने का प्रबंध कर ही रहे थे कि एसएसपी अजय कुमार मिश्र एएसपी सिटी राहुलराज भी घटनास्थल पर पहुंच गये। पुलिस अधिकारी अखिलेश, कंचन के कमरे दरवाजा तुड़वाकर अंदर पहुंचे तो अंदर का नजारा देखकर हतप्रभ रह गए। दुपट्टे से बने फंदे पर कंचन और उसका प्रेमी अखिलेश यादव झूल रहे थे। पुलिस ने दोनों के शव को नीचे उतरवाकर कमरे का निरीक्षण किया तो मौके से उनका लिखा सुसाइड नोट मिला। सुसाइड नोट में दोनों ने लिखा था कि उनकी मौत का जिम्मेदार कोई नहीं है और परिजनों को परेशान न किया जाए, क्योंकि हम दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे और शादी करना चाहते थे। लेकिन दोनों के परिवार वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। इसीको लेकर दोनों में अंतःद्वंद चल रहा था।
पूछताछ के दौरान मकान मालकिन ममता सिंह से पता चला कि दोनों कमरा लेने आये तो दोनों ने खुद को पति, पत्नी बताया था। लिहाजा पुलिस ने अनुमान लगा लिया कि अखिलेश व कंचन लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे थे। पुलिस जाँच चल ही रही थी, इसी दौरान पुलिस महानिरीक्षक जी एल मीना व डीआईजी ए सतीश गणेश भी मौके पर पहुंचकर घटना स्थल का मुआयना कर विडिओग्राफ़ी भी करवाया।
अब तक घटना की जानकारी अखिलेश व कंचन के घर वालों को भी हो चुकी थी। बेटे द्वारा आत्महत्या करने की जानकारी मिलते ही अखिलेख के पिता घटनास्थल पर पहुंचे और बेटे का शव देख वहीं गश्त खाकर वही गिर पड़े। मामला आईने की तरह साफ था। अंततः सारी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद पुलिस ने दोनों प्रेमियों के शव को सील कर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया।
(नाट्य रुपांतरित कथा सत्य घटना पर आधारित है।)



Sunday, April 16, 2017


                                       लुधियाना - सत्यकथा


                            ऑनली फ़ॉर लव

मोहब्बत की खातिर लोग क्या क्या नहीं कर गुजरते उसने भी जो कुछ किया वह अपनी मोहब्बत को अंजाम तक पहुंचाने और अपने घर वालों को रूसवाई से बचाने के लिए किया मगर उसने जो किया उसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।

जिस वक्त वह अपने घर से सुन सान दोपहरी में बाहर निकली उस वक्त उसने एक भयानक फैसला ले लिया था। उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि सीधी सादी और ऊपर से एकदम शांद नजर आने वाली वह युवती अपने भीतर इस वक्त एक भयानक तूफान को समेटे हुए थी। वह जो करने जा रही थी आने वाले कुछ घंटों में उसकी वजह से एक भयानक जलजला उठने वाला था। 
उसका नाम मनप्रीत था। वह लुधियाना के रहने वाले अमरप्रीत की तीन संतानों में सबसे बड़ी थी। और 12वीं क्लास की स्टूडेंट थी।
उस दिन अधिकतर लोग अपने- अपने काम पर गये हुये थे। मनप्रीत ने इसी बात का फायदा उठाया, पड़ोस की सुनसान गलियों को पार करते हुये वह कोमल के घर पहुंची और दरबाजे पर दस्तक दी। कुछ देर बाद एक जवान लड़की ने दरवाजा खोला और बोली, फ्अरे मनप्रीत, तुम इस वक्त?य्
फ्थोड़ा-सा वक्त मिला तो चली आयी।य्
वह जवान लड़की कोई और नहीं, उसके पड़ोस में ही रहने वाली कोमल थी। घर के अंदर आकर मनप्रीत ने कोमल से कहा, फ्कोमल, आज मैं अपने घर में अकेली हूं। इसलिये मेरा मन काम करने में नहीं लग रहा। क्या कुछ देर के लिए तुम हमारे घर चल सकती हो?य्
फ्हां--- हां--- क्यों नहीं? अभी चलती हूं।य् कहकर कोमल तैयार हुई और मनप्रीत के साथ ही उसके घर आ गई।
घर पर मनप्रीत ने कोमल को अपने कमरे में बैठाया फिर कुछ क्षण में आने को कहकर बाहर निकल गयी। कोमल हर बात से अन्जान कुछ सोच रही थी। तभी पीछे से आकर मनप्रीत ने एकदम से एक रस्सी का फंदा उसके गले में फंसा दिया और उसका गला कसने लगी। कोमल ने खुद को बचाने की बहुत कोशिश की मगर क्योंकि मनप्रीत उसके पीछे खड़ी थी इसलिए वह उसके चंगुल से खुद को छुड़ा न सकी। नतीजा ये हुआ कि कुछ ही देर में मनप्रीत ने कोमल का गला घोंटकर हत्या कर दी। फिर मिट्टी का तेल डालकर उसने पहले तो कोमल के चेहरे को जला दिया, फिर उसके बाकी शरीर पर भी तेल छिड़क कर आग लगा दी। इसके बाद for continue reading click on linkwww.santoshpathak.in/story

Sunday, April 9, 2017

अनदेखा खतरा     

जूही मानसिंह को लगता था, कोई है जो उसकी जान लेना चाहता है। वो हर वक्त खुद को एक  अनजाने अनदेखे खतरे से घिरा हुआ महसूस करती थी। उसका दावा था कि उसकी हवेली में नर-कंकाल घूमते थे! मरे हुए लोग अचानक उसके सामने आ जाते और फिर पलक झपकते ही गायब हो जाते थे। बंद कमरे में उसपर गोलियां चलाई जाती थीं, बाद में ना तो हमलावर का कुछ पता चलता, ना ही उसकी चलाई गोलियां ही बरामद होती थीं। हद तो तब हो गई जब वो एक ऐसे डाॅक्टर की प्रिस्क्राइब की हुई दवाइयां खाती पाई गई - जिस डाॅक्टर का कोई वजूद ही नहीं था।
                 क्या पुलिस, क्या मीडिया! यहां तक कि उसके भाई को भी यकीन आ चुका था कि पिता की मौत के सदमे ने उसका दिमाग हिला दिया था! वो पागल हो गई थी। बावजूद इसके वो पुरजोर लहजे में चीख-चीख कर कह रही थी- मैं पागल नहीं हूं! सुना तुमने मैं पागल नहीं हूं.....!
ऐसे में जब प्राइवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले ने मामले की तह में जाने की कोशिश की, तो एक के बाद एक हैरतअंगेज, दिल दहला देने वाले वाकयात सामने आते चले गये--------


                                    अनदेखा खतरा


             मैं अपने फ्लैट में सोफा चेयर में धंसा हुआ, सिगरेट का कस लेने में मशगूल था। दस बज चुके थे मगर आॅफिस जाने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं था। सिगरेट के कश लेता हुआ मैं ये तय करने की कोशिश कर रहा था कि क्या करूँ, आॅफिस ना जाने की सूरत में क्या करूं?
इन दिनों कोई खास काम मेरे हाथ में नहीं था और गैर-खास काम करने की आपके खादिम को आदत नहीं थी, बर्शते कि बहुत ही ज्यादा कड़की भरी जिंदगी ना चल रही हो। मेरी रिसेप्शनिष्ट कम सेक्रेटरी-कम-पार्टनर-कम-सब कुछ-शीला वर्मा पिछले दो दिनों से छुट्टी पर थी। दरअसल वह अपनी किसी दूर के रिश्तेदार से मिलने सीतापुर गई हुई थी। मेरी उसे सख्त हिदायत थी कि वहाँ पहुँचकर पहली फुर्सत में वो मुझे फोन करे।
मगर थी तो आखिर एक औरत ही! एक बार में कोई बात भला भेजे में कैसे दाखिल हो सकती थी। लिहाजा दो दिन बीत जाने पर भी मुझे उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली थी।
मैं उसके लिए फिक्रमंद था।
उतना ही जितना मैं अपनी काम वाली बाई के लिए फिक्रमंद होता हूं! भला जूठे बर्तन धोना क्या कोई हंसी मजाक है।
बहरहाल शीला के बिना अपने आॅफिस जाकर, तनहाई की बोरियत झेलते हुए किसी क्लाइंट का इंतजार करना, अपने आप में निहायती लानती काम था। टेलीफोन के लिए आॅनसरिंग सर्विस की सुविधा मुहैया थी। अगर कोई मुझे फोन करता तो मैसेज मुझे मिल जाना था। इसलिए आॅफिस जाना भी जरूरी नहीं था।
वैसे तो आज के मोबाइल के दौर में शायद ही कोई लैंडलाइन पर काॅल करता हो फिर भी कमबख्त शीला को जैसे कोई अलामत थी वह जब तक जीभरकर लैंडलाइन की घंटी ना बजा ले मोबाइल पर काॅल करना तो उसे सूझता ही नहीं था।
अब आप सोच रहे होंगे कि अगर मैं उसके लिए फिक्रमंद हूं तो खुद उसके मोबाइल पर काॅल क्यों नहीं कर लेता।
उसकी माकूल वजह पहले ही बयान कर चुका हूं कि मैं उसके लिए किस हद तक फिक्रमंद हूं। ना-ना, आप मेरे बारे में गलत धारणा बना रहे हैं। मेरी बातों का मतलब ये हरगिज ना लगायें कि मुझे उसकी परवाह नहीं है। उल्टा इस दुनियां में खुद के बाद अगर बंदा किसी की परवाह करता है तो वह शीला वर्मा ही है। मगर है वो पूरी की पूरी आफत की पुड़िया। और आफत! जैसा कि आप जानते ही होंगे, जहां जाती है दूसरों को फिक्र में डाल डेती है, फिर भला आफत की क्या फिक्र करना।
क्या नहीं आता कम्बख्त को! मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट है। निशाना उसका इतना परफेक्ट है कि क्या कहूं! अगर वह एकलब्य की जगह होती तो द्रोणाचार्य ने सिर्फ उसका अंगूठा मांगकर तसल्ली ना की होती बल्कि पूरा हाथ ही निपटवा दिया होता। अर्जुन को हीरो जो बनाना था।
और डांस!....माई गाॅड, डांस फ्लोर पर जाते ही उसके जिस्म की सारी हड्डियां जगह-जगह से टूटी हुई महसूस होने लगती हैं? जरूर प्रभु देवा साहब का असर होगा। कहती है बचपन से उनका डांस देखती हुई बड़ी हुई है, पता नहीं वो प्रभुदेवा साहब को उम्रदराज साबित करना चाहती थी या खुद को कमसिन साबित करना चाहती थी। वैसे भी जो प्रभू भी हो और देवा भी हो उसकी चेली ने कुछ तो खास होना ही था और वो खास बात उसके डांस में दूर से ही नुमायां हो जाती थी।
खूबसूरत इतनी कि मत पूछिये, ऐश्वर्या जी पर रहम खाकर उसने मिस वल्र्ड 1994 की प्रतिस्पर्धा से अपना नाॅमीनेशन वापस न लिया होता तो आज आप उसके जलवे देख रहे होते और मुझे उसपर डोरे डालने का कोई चांस ही हांसिल न होता।
सबकुछ वाह-वाह! वाला था, बस कमबख्त में एक ही ऐब था - मुझे जरा भी भाव नहीं देती थी।
बहरहाल जैसा की मैंने बताया - घर में बैठा सिगरेट फूंकने का निहायत जरूरी काम कर रहा था और आॅफिस जाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। अब सवाल ये था कि आॅफिस ना जाने की सूरत में क्या किया जाए? सिगरेट का कश लगाने के अहम काम को मुल्तवी करके क्या किया जाय! अभी मैं इसी उधेड़बुन में फंसा हुआ था कि टेलीफोन की घण्टी बज उठी।
जनाब मेरी सलाह है कभी भी टेलीफोन या मोबाईल की काॅल पहली घंटी पर हरगिज ना अटैंड करें, बल्कि उसे बजने दें, ताकि काॅल करने वाले को यकीन आ जाय कि आप कितने व्यस्त हैं-जो कि आप बिल्कुल नहीं होते-मगर इससे सामने वाले को एहसास होता है कि उसकी काॅल अटैंड करके आपने उसकी आने वाली सात पुश्तों पर कितना बड़ा एहसान किया है।
मैंने कुछ देर तक घंटी बजते रहने के बाद रिसीवर उठाकर कान से सटा लिया।
”हैल्लो“-मैं माऊथपीस में बोला, ”विक्रांत हियर।“
”विक्रांत“-दूसरी तरफ से उसकी खनकती आवाज कानों में पड़ी। कसम से! सच कहता हूं पूरे शरीर में चींटियां सी रेंग उठीं, ”मैं शीला बोल रही हूँ।“
खामोशी छा गयी, मगर इयर-पीस में उसकी सांसों के उतार-चढ़ाव की आवाज आती रही। मैं उन लम्बी-लम्बी सांसों के साथ उसके बदन के फ्रंट पेज पर उठते-गिरते उभारों का तबोस्सुर करने लगा। मैं तो जनाब अभिसार के सपने भी संजो लेता मगर कमीनी ने पहले ही टोक दिया।
”तुम सुन रहे हो।“
”यस, माई डियर, एक ही तो अहम काम है इस वक्त, जो मैं कर रहा हूं।‘‘
”मैं सीतापुर में हूं।“
”अच्छा, मैं तो समझा था तू चाँद पर है।“
”मजाक मत करो प्लीज, गौर से मेरी बात सुनो।“
”नहीं सुनता कोई जबरदस्ती है।“
”ओफ-हो! विक्रांत।“ वह झुंझला सी उठी- ”कभी तो सीरियस हो जाया करो।“
उसकी झुंझलाहट में कुछ ऐसा था जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सका, तत्काल संजीदा हुआ।
‘‘सुन रहे हो या मैं फोन रखूं।‘‘
”अरे-अरे तू तो नाराज हो गई, अच्छा बता क्या बात है, वहां सब खैरियत तो है।“
”पता नहीं यार! यहां बड़े अजीबो-गरीब वाकयात सामने आ रहे हैं। कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करूं।‘‘
”तू ठीक तो है।“
”हाँ तुम सुनाओ क्या कर रहे हो?“
”झख मार रहा हूँ।“
वह हँस पड़ी। क्या हंसती थी कम्बख्त, दिल के सारे तारों को एक साथ झनझनाकर रख देती थी।
”सोचता हूं जासूसी का धंधा बंद करके, मूँगफली बेचना शुरू कर दँू।“
”नाॅट ए बैड आइडिया बाॅस, लेकिन मूँगफली नहीं गोलगप्पे! सच्ची मुझे बहुत पसंद हैं।“
”क्या, गोलगप्पे?‘‘
”नहीं गोलगप्पे बेचने वाले मर्द़“
”ठहर जा कमबख्त, मसखरी करती है।“
”क्या करूं तुम और कुछ करने ही कहां देते हो, बस मसखरी करके ही काम चला लेती हूं।“
”और कुछ! और कुछ क्या करना चाहती है?“
     ”ओह माई गाॅड! यार विक्रांत तुम मतलब की बात हमेशा गोल कर जाते हो।“
”मतलब की बात!“
”हाँ मतलब की बात जो इस वक्त मैं कर रही हूं।‘‘ वह बेहद संजीदा लहजे में बोली, ‘‘ये तो तुम जानते हो कि मैं यहाँ क्यों आई थी।“
”हाँ तेरे किसी पुराने आशिक का फोन आया था जो तुझसे मिलने को तड़प रहा था। उसी की पुकार सुनकर तू बावली-सी, दिल्ली से सीतापुर पहुंच गई। एक जो यहां पहले से बैठा है उसका तुझे ख्याल तक नहीं आया।“
”नानसेंस, वह फोन मेरे आशिक का नहीं बल्कि हमारे दूर के रिश्तेदार मानसिंह की लड़की जूही का था।”
”तो पहले बताना था कि वो कोई लड़की है, मैंने खामखाह ही पांच सौ रूपये बर्बाद कर दिये।‘‘
‘‘किस चीज पर!‘‘
‘‘कल ही थोड़ा सा संखिया खरीद कर लाया था।‘‘
‘‘किसलिए?‘‘
‘‘सुसाईड करने के लिए।‘‘
‘‘हे भगवान!‘‘उसने एक लम्बी आह भरी,‘‘विक्रांत आखिरी बार पूछ रही हूं तुम ध्यान से मेरी बात सुन रहे हो या मैं फोन रख दूं।‘‘
‘‘जूही को तुम कब से जानती हो।‘‘ मैं मुद्दे पर आता हुआ बोला।
”जानने जैसी तो कोई बात नहीं थी, क्योंकि इससे पहले बस दो-तीन बार अलग-अलग जगह पर रिश्तेदारों की शादियों में हाय-हैलो भर हुई थी, बस उसी दौरान थोड़ी जान-पहचान हो गई थी। तुम यकीन नहीं करोगे सप्ताह भर पहले जब उसने काॅल करके बताया कि वो जूही बोल रही है तो मैं उससे पूछ बैठी कि कौन जूही! कहने का तात्पर्य ये है कि मुझे उसका नाम तक याद नहीं था। मगर पिछले दो दिनों मैं उसके बारे में सबकुछ जान चुकी हूं। वो तो जैसे एकदम खुली किताब है! छल-कपट जैसी चीजें तो जैसे उसे छूकर भी नहीं गुजरी हैं। बहुत ही मासूम है वो, एकदम बच्चों की तरह! ग्रेजुएट है मगर दुनियादारी से एकदम कोरी। ऐसे लोगों की जिन्दगी कितनी कठिन हो जाती है, इसका अंदाजा तुम बखूबी लगा सकते हो।‘‘
”मैं समझ गया तेरी बात, मगर ये समझ नहीं आया कि उसने खास तुझे क्यों बुलाया, जबकि तेरे कहे अनुसार तुम दोनों एक दूसरे को ढंग से जानते भी नहीं थे?“
‘‘उसने खास मुझे नहीं बुलाया विक्रांत, बल्कि चाचा, मामा, मौसा, फूफा वगैरह-वगैरह को फोन कर करके, हर तरफ से निराश होकर, उसने मुझे फोन किया था और झिझकते हुए पूछा था-‘क्या मैं कुछ दिनों के लिए उसके साथ उसके घर में रह सकती हूं।‘‘
‘‘उस वक्त उसका लहजा इतना कातर था विक्रांत, कि मैंने उससे वजह पूछे बिना ही हामी भर दी।‘‘
‘‘बुलाया क्यों था?‘‘
”क्योंकि वो मुसीबतों के ढेर में नीचे-बहुत नीचे कहीं दबी पड़ी है। हाल ही में हुई पिता की मौत तो जैसे उसके लिए सूनामी बनकर आई और उसकी तमाम खुशियां अपने साथ बहा ले गई। सुबह से शाम तक आंसू बहाना और फिर बिना खाए-पिए अपने कमरे जाकर बिस्तर के हवाले हो जाना, यह दिनचर्या बन चुकी है उसकी।‘‘
”यानी कि तू हकीम-लुकमान साबित नहीं हो पाई उसके लिए।“
‘‘समझ लो नहीं हो पाई।‘‘
‘‘ओके अब मैं तुझसे फिर पूछ रहा हूं कि असली मुद्दा क्या है, क्या उसे कोई आर्थिक मदद चाहिए।‘‘
जवाब में वह ठठाकर हंस पड़ी।
‘‘मैंने कोई जोक सुनाया तुझे!‘‘
‘‘कम भी क्या था। तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं-उसके पास इतनी दौलत है कि उसकी सात पुश्तें बिना हाथ-पांव हिलाए ऐश की जिन्दगी गुजार सकती हैं।‘‘
‘‘जरूर बिल गेट्स की बेटी होगी, अब मैं फिर पूछ रहा हूं कि उसकी प्राॅब्लम्स क्या हंै, कैसी मदद चाहिए उसे?‘‘
”पता नहीं उसे किस किस्म की मदद चाहिए। वह बुरी तरह डरी हुई है। वो समझती है कि उसकी जान को खतरा है। कोई हैै, जो उसे मार डालना चाहता है, वह हर वक्त किसी अनजाने-अनदेखे खतरे से खुद को घिरा हुआ महसूस करती है।“
”घूंट लगाती है?“
”क्या!....कौन?“
”तेरी सहेली और कौन?“
”नहीं वो ड्रिंक नहीं करती?“
”तू कहती है वो डरी हुई है, हर वक्त खुद को किसी खतरे से घिरा हुआ महसूस करती है। ये बता कोई पड़ा क्यों है यूं उसकी जान के पीछे। मेरा मतलब है उसने कोई वजह तो बताई हो, किसी का नाम लिया हो, किसी पर शक जाहिर किया हो?“
”ऐसा कुछ नहीं है, वो किसी का नाम नहीं लेती। मैंने भी बहुत कोशिश की मगर कुछ नहीं पता चला। लेकिन जिस तरह की हालिया वारदातें यहाँ घटित हुई हैं उससे साफ जाहिर हो रहा है कि कोई बड़ा खेल खेला जा रहा है यहां, कोई गहरी साजिश रची जा रही है इस हवेली में।‘‘
”हवेली!“
”हां हवेली-लाल हवेली, जूही यहीं रहती हैं यह उसके पुरखों की हवेली है, उनका खानदान सदियों से यहां रहता चला आ रहा है।“
‘‘ठीक है आगे बढ़।“
‘‘वो कहती है कि मरे हुए लोग अचानक उसके आगे आ खड़े होते हैं। हवेली में नरकंकाल घूमते दिखाई देते हैं। बंद कमरे में कोई अंजान सख्स दो बार उसपर गोली चलाकर उसकी जान लेने की कोशिश कर चुका है।“
”उसको बोल डरावनी कहानियां लिखना शुरू कर दे।“
”देखो बाकी बातों का मुझे नहीं पता मगर नरकंकालों को घूमते मैंने अपनी आंखों से देखा है।‘‘
”अब तू शुरू हो गयी?“
”मुझे मालूम था तुम्हें यकीन नहीं आएगा, यकीन आने वाली बात भी नहीं है।“
”फिर भी तू चाहती है कि मैं यकीन कर लूँ।“
”हाँ और ना सिर्फ तुम्हें यकीन दिलाना चाहती हूँ बल्कि साथ में ये भी चाहती हूँ कि तुम फौरन यहाँ आ जाओ।“
”तौबा मरवाने का इरादा है क्या?“
”क्या?“
”देखो जाने जिगर मैं जासूस हूँ कोई तांत्रिक नहीं, मैं जिन्दा व्यक्तियों से तो मुकाबला कर सकता हूँ, पूछताछ भी कर सकता हूँ मगर किसी भूत-प्रेत या नरकंकाल का इंटरव्यू लेना मेरे बस का रोग नहीं है, फिर उनसे मुकाबला क्या खाक करूँगा।“
”मगर अभी पल भर पहले तो तुम उनके अस्तित्व को नकार रहे थे।“
”मैं सिर्फ तेरी हौसला-अफजाई कर रहा था, तब मुझे ये कहाँ मालूम था कि तू मुझे वहाँ आने को कहने लगेगी, ये तो वही मसल हुई कि नमाज बख्शवाने गये और रोजे गले पड़ गये।“
”यानी कि डरते हो भूतों से।“
”सब डरते हैं यार इसमें नई बात क्या है।“
”मैं तुम्हारी बात कर रही हूँ।“
”मैं तो और भी फट्टू हूं इस मामले में।“
”यानी कि तुम यहाँ नहीं आओगे।“
”हरगिज नहीं अलबत्ता मैं तेरी सहेली की एक मदद जरूर कर सकता हूँ।“
”वो क्या?“
”एक हनुमान चालीसा खरीद कर उसे कूरियर कर सकता हूँ।“
”शटअप।“
”तूने शायद पढ़ा नहीं है उसमें लिखा है जब महाबीर नाम सुनावै भूत पिशाच निकट नहीं आवै।“
”आई से शटअप।“
”मेरी माने तो फौरन से पेश्तर उस भूतिया हवेली से किनारा कर ले।“
”विक्रांत“ - वो गुर्रा उठी - ”मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगी।“
”हे भगवान! तेरे पर ही असर होने लगा उस भूतिया माहौल का, खून पीने की बात करने लगी है।‘‘
”विक्रांत प्लीज! जूही सचमुच किसी बड़ी मुसीबत में है।“ - वह अनुरोध भरे स्वर में बोली - ”उसकी हालत पागलों जैसी हो कर रह गई है, अगर यही हाल रहा तो वह सचमुच पागल हो जाएगी। बल्कि उसका चचेरा भाई तो उसे पागल करार दे भी चुका है। मैंने खुद सुना, वह फोन पर किसी से कह रहा कि-जूही को अब किसी पागलखाने में भर्ती कराना पड़ेगा।“
”जमूरे का नाम क्या है?“
”प्रकाश! पहले मुम्बई में रहता था अपने पेरेंट्स के साथ मगर पिछले कुछ महीनों से यहीं डेरा डाले हुए है। मैंने आज सुबह ही इस बाबत सवाल किया तो कहने लगा कि वो जूही को इस हालत में छोड़कर कैसे जा सकता है।“
”ठीक है, अब फाइनली बता कि तू मेरे से क्या चाहती है।“
”प्लीज यहां आ जाओ। जूही के लिए ना सही मगर मेरी खातिर तो आ ही सकते हो।“
”मैं चाँद पर भी जा सकता हूँ, मगर सिर्फ तेरी खातिर।“
”थैंक्स यार।“ कहकर उसने सीतापुर पहुंचकर लाल हवेली पहुंचने का रास्ता समझाया। फिर काॅल डिस्कनैक्ट कर दिया।
सिगरेट एक्स्ट्रे में मसलने के बाद मैं कुर्सी छोड़कर उठ खडा हुआ। एक बैग में अपना कुछ जरूरी सामान पैक करने के पश्चात् मैंने अपनी अड़तीस कैलीवर की लाइसेंसशुदा रिवाल्वर निकालकर पतलून की बेल्ट में खोंस कर ऊपर से कोट का बटन बन्द कर लिया और कुछ एक्सट्रा राऊण्ड अपनी जेब में रखने के पश्चात् अपना फ्लैट छोड़ दिया। अपनी मोटरसाइकिल द्वारा मैं नीलम तंवर के आॅफिस पहुँचा, रिसैप्शनिष्ट ने बिना पूछे ही मुझे बता दिया कि वो आॅफिस में मौजूद थी।
अठाइस के पेटे में पहुंची नीलम बेहद खूबसूरत युवती थी। वो क्रिमिनल लाॅयर थी, इस पेशे में उसने खूब नाम कमाया था। आज की तारीख में वो वकीलों की फर्म घोषाल एण्ड एसोसिएट की मालिक थी। उससे मेरी मुलाकात लगभग पांच साल पहले एक कत्ल के केस में हुई थी। बाद में घटनाक्रम कुछ यूं तेजी से घटित हुए थे कि उसके बाॅस अभिजीत घोषाल का कत्ल हो गया जो कि इस फर्म का असली मालिक था। घोषाल बेऔलाद विदुर था, हैरानी की बात ये थी कि उसने अपनी वसीयत में पहले से ही नीलम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रखा था, जो कि महज उसके फर्म के दूसरे वकीलों की तरह ही एक वकील थी। बहरहाल उसके कत्ल के बाद उसकी तमाम चल-अचल सम्पत्ति जैसे छप्पर फाड़कर नीलम की गोद में आ गिरी थी। लिहाजा जिस आॅफिस में वह नौकरी भर करती थी आज उसकी इकलौती मालिक थी। और वो सोचती थी कि ये सब मेरी वजह से हुआ था। मैंने भी उसकी ये गलतफहमी दूर करने की कभी कोशिश नहीं की। उसके बाॅस की मौत के बाद गाहे-बगाहे हमारी मुलाकातें होती रहीं। फिर बहुत जल्दी हम अच्छे दोस्त बन गये। आज तक यह दोस्ती ज्यों की त्यों बरकरार थी।
मैं उसके कमरे मंे पहुँचा वो कुछ लिखने में व्यस्त थी।
”हैल्लो।“ - मैं धीरे से बोला।
”हैल्लो“ - उसने सिर ऊपर उठाया और चहकती सी बोली -‘‘हल्लो विक्रांत प्लीज हैव ए सीट।’
”नो थैंक्स मैं जरा जल्दी में हूँ।“
‘‘कभी-कभार मेरे लिए भी वक्त निकाल लिया करो यार! वो कहावत नहीं सुनी चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी ना घटियो नीर। मुझे वो चोंच भर ही दे दिया करो कभी।‘‘
‘‘ताने दे रही हो?‘‘
‘‘हां मगर तुम्हारी समझ में कहां आता है।‘‘
कहकर वो हंस पड़ी मैंने उसकी हंसी में पूरा साथ दिया।
”कहीं बाहर जा रहे हो।“
”हाँ?“
”कहाँ?“
मैंने बताया।
”किसी केस के सिलसिले में या फिर.....।“
”मालूम नहीं।“
”लेकिन जा रहे हो।“
”हाँ शीला भी वहीं हंै उसी ने फोन कर के मुझे वहाँ बुलाया है।“
”ओह! यूं बोलो ना ऐश करने जा रहे हो।“
”मुझे तुम्हारी कार चाहिए।“
उसने कार की चाबी मुझे पकड़ा दी।
”मुझे वहाँ हफ्ता-दस रोज या इससे ज्यादा भी लग सकते हैं।“
”क्या फर्क पड़ता है यार!“ - वह बोली - ”वैसे अगर तुम चाहो तो मैं ड्राईवर को तुम्हारे साथ भेज दूँ, लम्बा सफर है थकान से बच जाओगे।‘‘
”नो थैंक्स।“
”तुम्हारी मर्जी“ - उसने कंधे उचकाये।
आॅफिस से बाहर आकर मैं उसकी शानदार इम्पाला कार में सवार हो गया।
सीतापुर मेरे लिए कदरन नई जगह थी, मगर पूरी तरह से नहीं। करीब दो साल पहले मैं एक बार सीतापुर आ चुका था, और काफी कुछ मेरा देखा-भाला था, मगर फिर भी था तो मैं वहां बेमददगार। जहाँ एक तरफ सीतापुर आई हाॅस्पीटल के लिए मशहूर है, वहीं दूसरी तरफ मेरी निगाहों में आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से उसे क्राईम के लिए भी मशहूर होना चाहिए था, क्योंकि मेरे द्वारा विजिट किए गए शहरों में सबसे ज्यादा क्राइम वाला शहर है, वहाँ के लोग-बाग असलहा साथ लिए यूँ घूमते हैं मानों वो फाॅयर आम्र्स न होकर बच्चों का खिलौना हो।
     तेज रफ्तार से कार चलाता मैं रात के साढ़े आठ बजे सीतापुर पहुंचा।
अधिकतर दुकानें बंद हो चुकी थी बस इक्का-दुक्का ही खुली हुई थीं। जिनके दुकानदार इकट्ठे बैठकर गप्पे हांकने में व्यस्त थे, सड़क पर आवागमन ना के बराबर ही रह गया था। बस कभी-कभार रोडवेज की कोई बस आकर रूकती तो कोलाहल बढ़ सा जाता था। कुल मिलाकर चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। लाल बाग चैराहे पर पहुंचकर मैंने अपनी कार रोक दी और ड्राइविंग डोर खोलकर नीचे उतर आया।
मैं लापरवाही से चलता हुआ बगल में बने एक वाइन शाॅप पर पहुँचा।“
अपनी कुर्सी पर ढेर सा हुआ पड़ा दुकानदार मुझे ग्राहक समझकर सीधा होकर बैठ गया।
”क्या चाहिए?“ - वो उबासी लेता हुआ बोला।
”बियर।“
उसने फौरन एक बियर की बोतल निकालकर काउण्टर पर रख दिया।
”सौ रूपये“ - वो बोला।
मैंने बिल पे कर दिया। कुछ देर अनिश्चित सा वहीं खड़ा रहा।
”आप मुझे लाल हवेली का पता बता सकते हैं।“
‘‘आप सिंह साहब के रिश्तेदार मालूम होते हैं।‘‘
‘‘सिंह साहब!‘‘ मैं अचकचाया।
‘‘हम मानसिंह बाबू जी की बात कर रहे हैं बड़े ही नेक और दयालू व्यक्ति थे। बहुत अफसोस हुआ उनका मौत का सुनकर।‘‘
‘‘क्या कर सकते हैं भई जिसकी जब आई होती है जाना ही पड़ता है, अब कौन जाने अभी तुम अपनी दुकान में जाकर बैठो और आसमान से बिजली गिर पड़े.....मौत का कोई भरोसा थोड़े ही है।‘‘
‘‘ठीक कहत हौ साहब मौत का कौनो भरोसा नाहीं।
मेरी बात से सहमति तजाता हुआ वह दुकान से बाहर निकल आया फिर उसने विधिवत ढंग से मुझे रास्ता बताया और वापस अपनी दुकान में जाकर बैठ गया।
मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा, मगर इससे पहले कि दरवाजा खोलकर अंदर बैठ पाता।
”धाँय“ फायर की जोरदार आवाज गूंजी।
गोली मेरे कान को हवा देती हुई गुजर गई। पलभर को मैं सूखे पत्ते की तरह कांप उठा। मगर यह वक्त अपनी कमजोरी जाहिर करने या हैरान होने का नहीं था।
मैंने फौरन खुद को सड़क पर गिरा दिया और घिसटकर अपनी कार के नीचे पहुंच गया। इस दौरान मेरी रिवाल्वर बेल्ट से निकलकर मेरे हाथ में आ चुकी थी।
धाँय...धाँय। -लगातार दो फायर और हुए।
दोनों गोलियां कार की बाॅडी से कहीं टकराईं, मैंने अनुमान से आवाज की दिशा में एक फाॅयर झोंक दिया। एक दर्दनाक चीख उभरी, कुछ दौड़ते हुए किंतु दूर जाते कदमों की आवाज सुनाई दी, फिर एक जोड़ी कदमों की आवाज मुझे अपनी तरफ आती महसूस हुई। मैं दम साधे वहीं पड़ा रहा, थोड़ी दूरी पर किसी गाड़ी का इंजन जोर से गरजा फिर आवाज लगातार दूर होती चली गयी। मैं करीब पांच मिनट तक यथावत पड़ा रहा तत्पश्चात सावधानी से कार के नीचे से बाहर निकल आया। वाइन शाॅप का अटेंडेंट ज्यों का त्यों अपनी दुकान में बैठा कान से मक्खी उड़ा रहा था़ मानों गोलियां ना चली हों, किसी बच्चे ने महज कोई पटाखा फोड़ दिया हो।
मैंने अपने कपड़ों से धूल झाड़ा और एक उड़ती सी नजर अपने आस-पास डालने के पश्चात मैं कार के अंदर जा बैठा।
अभी मैं कार स्टार्ट भी नहीं कर पाया था कि मुझे गाड़ी की पिछली सीट पर हलचल का आभास मिला।
‘‘खतरा!‘‘ मेरे दिमाग ने चेतावनी दी, मगर तब तक देर हो चुकी थी।
”खबरदार“ - पीछे से रौबदार आवाज गूंजी - ”हिलना नहीं।“
मैं जहाँ का तहाँ फ्रीज होकर रह गया, क्योंकि अपनी गर्दन पर चुभती किसी पिस्तौल की ठण्डी नाल का एहसास मुझे हो चुका था। मुझे अपनी कमअक्ली पर तरस आने लगा। मैं बड़ी आसानी से उनके जाल में फंस गया था।
”बिना किसी शरारत के अपनी रिवाल्वर मुझे दो।“ आदेश मिला।
मैंने चुपचाप रिवाल्वर उसे सौंप दी। तब वह सीट की पुश्त के ऊपर से गुजरता हुआ अगली सीट पर मेरे पहलू में आकर बैठ गया। उसकी पिस्तौल की नाल अब मेरी पसलियों को टकोह रही थी।
मैंने उसकी शक्ल देखी। तकरीबन चालीस के पेटे में पहुंचा हुआ वह तंदुरूस्त शरीर वाला सांवला किन्तु बेहद रौब-दाब वाला व्यक्ति था, इस वक्त जिसके होंठों पर एक विषैली मुस्कान नाच रही थी।
”गाड़ी को वापस मोड़ो।“ - उसने हुक्म दिया।
”मगर........।“
”जल्दी करो“ - वो कड़े स्वर में बोला।
”मेरे ऊपर गोली तुमने चलाई थी।“
”जुबान बंद रखो“ - उसने रिवाल्वर से मेरी पसलियों को टकोहा - ”यू टर्न लो फौरन।“
मैंने कार वापस मोड़ दिया।
”गुड अब सामान्य रफ्तार से आगे बढ़ो।“
मैंने वैसा ही किया। वह जो भी था मंझा हुआ खिलाड़ी था। एक पल को भी उसने लापरवाही नहीं दिखाई ना ही कार की स्पीड तेज करने दी वरना मैं तेजी से बे्रक लगाकर उसके चंगुल से निकलने की कोई जुगत कर सकता था।
तकरीबन पांच मिनट तक कार चलाने के बाद मेरी जान में जान आई जब सीतापुर कोतवाली के सामने पहुँचकर उसने कार अंदर ले चलने को कहा। कम्पाउण्ड में पहुँचकर मैंने कार रोक दी, निश्चय ही वो कोई पुलिसिया था।
मुझे लेकर वो एक ऐसे कमरे में पहुँचा, जिसमें पहले से ही एक सब इंस्पेक्टर और एक कांस्टेबल मौजूद थे, उसे देखते ही वो दोनों उठ खड़े हुए और बिना कुछ कहे चुपचाप कमरे से बाहर निकल गये।
”बैठो“-वो खुद एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला।
”शुक्रिया“ - मैं बैठ गया।
कुछ देर तक वो अपनी एक्सरे करती निगाहों से मुझे घूरता रहा, यूँ महसूस हुआ जैसे वो खुर्दबीन से किसी कीड़े का परीक्षण कर रहा हो।
दो मिनट पश्चात।
”कहीं बाहर से आये हो।“ - वो बोला।
मैंने सिर हिलाकर हामी भरी।
”कहाँ से?“
”दिल्ली से।“
”दिल्ली में कहाँ रहते हो?“
कहते हुए उसने एक राइटिंग पैड और पेन उठा लिया।
”तारा अपार्टमेंट में।“
”करते क्या हो?“
”प्राईवेट डिटेक्टिव हूँ, दिल्ली में रैपिड इंवेस्टिगेशन नाम से आॅफिस है मेरा।“
”ओ आई सी“ - इस बार उसने नये सिरे से मेरा मुआयना किया -”नाम क्या है तुम्हारा?“
”विक्रांत-विक्रांत गोखले।“
”यहाँ क्या करने आये हो?“
”किसी से मिलने के लिए।“
”किससे?“
”मानसिंह जी के यहां, लाल हवेली में।“
”सच कह रहे हो, सिर्फ मिलने आये हो।“
”मैं झूठ नहीं बोलता।“
‘‘जरूर राजा हरिश्चंद्र के खानदान से होगे।‘‘
मैं खामोश रहा।
”मुझे लगता है तुम हवेली में हो रहे हंगामों की वजह से आये हो?“
”कैसा हँगामा?“
”वहीं पहुँचकर मालूम कर लेना। मुझे तो वो लड़की पूरी पागल नजर आती है। बड़ी अजीबो-गरीब बातें करती है। कहती है रात के वक्त उसकी हवेली में नर कंकाल घूमते हैं, हमने कई दफा उसके कहने पर इंक्वायरी भी की मगर हमारे हाथ कुछ नहीं लगा।“
”आप भूत प्रेतों पर यकीन करते हैं?“
”नहीं।“
”इसके बावजूद भी आप इंक्वायारी के लिए लाल हवेली चले गये।“
”डियुटी जो करनी थी भई, उसका बाप यहां के ‘वीआईपी‘ का दर्जा रखता था, मैं उसकी कंप्लेन को इग्नोर नहीं कर सकता था।“
”अब आपकी फाइनल ओपनीयन ये है कि उसका दिमाग हिला हुआ है?“
”ठीक समझ रहे हो। एक महीने पहले बाप के साथ हुए हादसे का उसके दिमाग पर कोई गहरा असर हुआ मालूम पड़ता है। लगता है उसका कोई दिमागी स्क्रू ढीला पड़ गया है, तभी वो यूँ बहकी-बहकी बातें करती है।“
”ओह।“
”तुमने जो कुछ अपने बारे में बताया क्या उसे साबित कर सकते हो?‘‘
‘‘करना ही पड़ेगा जनाब क्योंकि अपनी रात हवालात में खोटी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।“
‘‘समझदार आदमी हो।‘‘
‘‘दुरूस्त फरमाया जनाब, आदमी तो खैर ये बंदा जन्म से ही है, अलबत्ता समझदार बनने में पच्चीस साल लग गये।‘‘
मैंने उसे अपना ड्राइविंग लाइसेंस और डिटेक्टिव एजेंसी का लाइसेंस दिखाया।
वो संतुष्ट हो गया।
”बाहर चैराहे पर तुमने गोली क्यों चलाई थी?“
”आत्मरक्षा के लिए।“
”मतलब?“
”किसी ने मेरी जान लेने की कोशिश की थी, मजबूरन मुझे जवाबी फायर करना पड़ा।“
”ली तो नहीं जान।“
”मेरी किस्मत जो बच गया, मुझपर पर चलाई गयी तीन-तीन गोलियों के बाद भी बच गया।“
”काफी अच्छी किस्मत पाई है तुमने नहीं?“
”जी हाँ-जी हाँ।“ - मैं तनिक हड़बड़ा सा गया। जाने किस फिराक में था वह पुलिसिया।
”वो तुम्हारी जान क्यों लेना चाहते थे?“
”मालूम नहीं।“
”भई जासूस हो कोई अंदाजा ही बता दो।“
”शायद वो मुझे लूटना चाहते थे।“
मेरी बात सुनकर वो हो-हो करके हँस पड़ा।
”क्या हुआ?“ मैं सकपका सा गया।
”भई अपने महकमे में एक सीनियर और काबिल इंस्पेक्टर समझा जाता है मुझे और इत्तेफाक से ये कोतवाली भी मेरे अंडर में ही है। जबकि तुम तो लगता है मुझे कोई घसियारा ही समझ बैठे हो।“
”मैंने ऐसा कब कहा जनाब?“
‘‘कसर भी क्या रह गई? भला लूटने का ये भी कोई तरीका होता है कि पहले अपने शिकार को गोली मार दो और बाद में सामान लेकर चम्पत हो जाओ।“
”नहीं होता!“
”हरगिज भी नहीं, अगर उनका इरादा तुम्हें लूटने का होता तो वे तुम्हें पहले धमकाते बाद में न मानने पर यदि गोली चलाते तो बात कुछ समझ में आती। बजाय इसके उन लोगों ने सीधा तुम पर फायर झोंक दिया इसके केवल दो ही अर्थ निकाले जा सकते हैं या तो हमलावर तुम्हें डराना चाहते थे या फिर तुम्हारी जान लेना चाहते थे।“
”यूँ ही खामखाह।“
”ये बात तुम मुझसे बेहतर समझते हो, जहाँ तक मेरा अनुमान है तुम्हे हवेली में रह रही उस दूसरी लड़की ने यहां बुलाया है, निश्चय वो तुम्हारी कोई जोड़ीदार है। हवेली में फैले अफवाहों को तुम कैसे दूर करते हो, कथित भूत-प्रेतों, नरकंकालों से कैसे निपटते हो मैं नहीं जानना चाहता मगर इतनी चेतावनी जरूर देना चाहता हूँ कि उस पागल लड़की की बातों पर यकीन करके बेवजह शहर में इंक्वायरी करते मत फिरना, जो की यहां पहले से पहुंची तुम्हारी जोड़ीदार कर रही है। जो भी करना सोच-समझकर करना। इस इलाके का एक दस साल का बच्चा भी गोली चलाकर किसी की जान लेने कि हिम्मत रखता है। इसलिए सावधान रहना, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी बाहर से आये हुए व्यक्ति के साथ यहाँ कोई हादसा घटित हो।“
”आप मुझे डरा रहे हैं।“
”नहीं! अपना भला-बुरा तुम खुद समझो।“
”सलाह का शुक्रिया जनाब, अब आप बराय मेहरबानी मेरी रिवाल्वर मुझे वापस कर दीजिये।“
”अरे हाँ“ - वो चैंकता हुआ बोला - ”उसे तो मैं भूल ही गया था।“
”मगर मैं नहीं भूला था।“
”रिवाल्वर तुम्हारी है।“
”हाँ, इसका लाइसेंस भी मेरे पास है, अगर आप देखना चाहें तो.......।“
”रहने दो मुझे तुम पर ऐतबार है।“
कहते हुए उसने मेरी रिवाल्वर मुझे वापस कर दी।
”शुक्रिया, क्या बंदा आपका नाम जानने की गुस्ताखी कर सकता है?“
”जसवंत‘‘-वह बोला-‘‘इंस्पेक्टर जसवंत सिंह।“
मैं उठ खड़ा हुआ।
”जर्रानवाजी का बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब, अब बंदे को इजाजत दीजिए।“
”जा रहे हो।“
”जी हाँ।“
”अगर तुम चाहो तो मैं किसी को लाल हवेली तक तुम्हारे साथ भेज दूँ।“
”जी नहीं शुक्रिया।“
”बाहर खड़ी कार तुम्हारी अपनी है।“
”जी नहीं उधार की है।“
”मजाक कर रहे हो।“
”सच कह रहा हूँ।“
कहने के पश्चात मैं मुड़ा और उस अजीबो-गरीब बर्ताव करने वाले कोतवाली इंचार्ज को एक उंगली का सेल्यूट देकर मैं खुले दरवाजे से बाहर निकल गया। सब ताड़े बैठा था वो, हैरानी थी कि शीला के बारे में भी उसे सब पता था।
हालात अच्छे नहीं लग रहे थे।
दस मिनट पश्चात मैं लाल हवेली के सामने खड़ा था, शीला ने उसका वर्णन ही कुछ यूं किया था कि उसे पहचानने में कोई भूल हो ही नहीं सकती थी।
रिहायशी इलाके से अलग-थलग लाल हवेली आसमान में सिर उठाये खड़ी थी। लाल हवेली को देखकर बाहर से यह अंदाजा लगा पाना कठिन था कि उसके भीतर कोई रहता भी होगा। सामने लकड़ी का दो पल्लों वाला कम से कम बीस फीट ऊंचा खूब बड़ा दरवाजा था, जो कि बाउंडरी से थोड़ा ऊंचा उठा हुआ था। दाईं ओर वाले पल्ले में एक छोटा दरवाजा बना हुआ था, जो पैदल आने-जाने के इस्तेमाल में लाया जाता होगा, इस घड़ी वो दरवाजा भी बंद था। विशालकाय दरवाजों के दोनों तरफ पत्थरों को तराशकर बनाये गये दो शेर मुंह खोले खड़े थे, जिनके सफेद दांत दूर से ही चमक रहे थे। वहां के माहौल में मौत सा सन्नाटा पसरा हुआ था। कहना मुहाल था कि वहां के वाशिंदे उस खामोशी को, उस मनहूसियत को कैसे झेल पाते होंगे।
सदर दरवाजे के नजदीक पहुँचकर मैंने लम्बा हार्न बजाया। तत्काल प्रतिक्रिया सामने आयी। दरवाजेे में हिल-डुल हुई।
”चर्रररररररर की आवाज करता हुआ हवेली के विशाल फाटक का एक पल्ला खुलता चला गया। मैंने इधर-उधर निगाह दौड़ाई मगर दरावाजे को पल्लों को खोलते हाथों को देख पाने में कामयाब नहीं हो पाया। गेट से भीतर आकर भी मैंने गेट खोलने वाले की तलाश में इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं मगर कोई दिखाई नहीं दिया।
मैं कार सहित भीतर प्रवेश कर गया। पूरी हवेली अंधकार में विलीन थी, कहीं से भी किसी प्रकार की रोशनी का आभास मुझे नहीं मिला। तकरीबन सौ मीटर लम्बे बीस फीट चैड़े ड्राइवे से गुजर कर मैं इमारत की पोर्च में पहुँचा। पोर्च की हालत कदरन बढ़ियां थी। हाल-फिलहाल में वहां रंगरोदन होकर हटा महसूस हो रहा था। पेंट की मुश्क अभी भी वहां की फिजा में महसूस हो रही थी।
कार रोकने के पश्चात मैंने डनहिल का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया और वहां के माहौल का जायजा लेने लगा। इस दौरान आदम जात के दर्शन मुझे नहीं हुए। पहले मैंने सोचा हार्न बजाऊं, फिर मैंने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया। उम्मीद थी कि कार के इंजन की आवाज सुनकर कोई ना कोई अवश्य बाहर आएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ। सिगरेट खत्म होते ही मैं कार से बाहर निकल आया, तभी दूर कहीं से उल्लू के बोलने की आवाज सुनाई दी और फड़फड़ाता हुआ एक चमगादड़ मेरे सिर के ऊपर से गुजर गया बरबस ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
सांय-सांय की आवाज करती हुई हवा और दूर कहीं कुत्ते की रोने की आवाज! इस हवेली के माहौल को और भी भयावह बनाये दे रही थी। कहीं से भी जीवन का कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहा था, वह रिहायश कम और किसी हाॅरर फिल्म का सेट ज्यादा नजर आ रही थी। मुझे यूं महसूस हो रहा था जैसे गलती से मैं किसी कब्रिस्तान में आ पहुँचा था। हर तरफ अजीब सी मनहूसियत फैली हुई थी।
ऐसी वीरान जगह में तो भूत-प्रेतों के दखल के बिना भी इंसान का हार्ट फेल हो सकता था। मैंने दरवाजा खुलवाने का विचार मुल्तवी कर दिया और एक सिगरेट सुलगाकर टहलता हुआ वापस सदर दरवाजे की ओर बढ़ा। कुछ आगे जाने पर दरवाजा दूर से ही दिखाई देने लगा, जिसे की पुनः बंद किया जा चुका था। मगर उसके आस-पास आदम जात के दर्शन मुझे अभी नहीं हुए या फिर अंधेरे की गहनता के कारण मैं उन्हें नहीं देख नहीं पा रहा था।
‘‘अरे कोई है भाई यहां!‘‘ दरवाजे के कुछ और नजदीक जाकर आस-पास देखते हुए मैंने आवाज लगाई।
जवाब नदारद।
‘‘कोई सुन रहा है भई?‘‘
‘‘जी साहब जी।‘‘ मेरे पीछे भार्रायी सी आवाज गूंजी।
मैं फौरन आवाज की दिशा में पलट गया।
”कहां जायेंगे?“-पुनः वही आवाज।
सामने निगाह पड़ते ही मैं एक क्षण को भीतर तक कांप उठा, क्या करता नजारा ही कुछ ऐसा था। मेरे सामने एक नर कंकाल खड़ा था, मेरा दिल हुआ जोर-जोर से चीखना शुरू कर दूं। मगर दूसरे ही पल मैंने खुद को काबू कर लिया। मैंने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले लिया और सधे कदमों से उसकी ओर बढ़ा। मेरा दिल हरगिज भी यह मानकर राजी नहीं था कि एक कंकाल मुझसे बातें कर रहा है।
     मैंने अभी पहला कदम ही उसकी ओर बढ़ाया था कि अचानक जैसे आसमान टूट पड़ा। मेरे सिर के पृृष्ठ भाग पर किसी वजनी चीज से प्रहार किया गया, मेरे हलक से दर्दनाक चीख निकली और मेरी चेतना लुप्त होने लगी। तभी उस नरकंकाल के दाहिने हाथ की हड्डी मेरी तरफ बढ़ी मुझे लगा वो मेरा गला दबाना चाहता है, मैंने अपने शरीर की रही-सही शक्ति समेटकर हाथ से छूट चुकी रिवाल्वर की तलाश में इधर-उधर हाथ मारना शुरू किया----------------------------------------------------------
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