Tuesday, April 4, 2017

       अंधेरी रात में अकेली लड़की

पता नहीं क्या कुछ गुजरा था उसके साथ, क्या कुछ झेला था उसने। इस वक्त उसको रोता पाकर मेरा कलेजा फटा जा रहा था, इसलिए नहीं कि किसी कमीने या कुछ कमीनों ने उसकी यह दशा की थी बल्कि इसलिए कि वह कमीना मैं क्यों नहीं था।

रात के करीब ग्यारह बजे थे। जब पापा ने झकझोर कर जगा दिया। मैं हैरान-परेशान आंखें मलता हुआ उठकर बैठ गया। कमरे की लाइट जल रही थी। शायद पापा ने ही जलाई थी। पहली मंजिल पर स्थित इस कमरे में मैं आज अकेला ही सोया था। पापा नीचे वाले कमरे में सो रहे थे और मम्मी आजकल गांव में थीं। मैं उनके द्वारा यूं नींद से जगाए जाने पर झुंझला-सा गया। मगर अगले ही पल उनके चेहरे पर फैली गंभीरता को देखकर हड़बड़ा गया। यकीनन कोई खास बात हो गई थी। मैंने एक बार पुनः उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश की! मगर नाकामयाब रहा।
‘‘क्या हुआ?‘‘ मैं उनींदी आवाज में बोला।
‘‘कोई मिलने आया है।‘‘ - उन्होंने जवाब दिया, उनकी आवाज में एक अजीब-सी वितृष्णा थी, जो शायद रात कोआगंतुकके आगमन की वजह से पैदा हुई थी।
‘‘इतनी रात गये!‘‘ मैं अचम्भित रह गया।
‘‘हां इतनी रात गये!‘‘ - वो पूर्ववत्! लहजे में बोले - ‘‘पता नहीं कौन-कौन से दिन देखने पड़ेंगे तुम्हारी वजह से।‘‘
‘‘पापा आप भी ना् बस ना दिन देखते हो ना रात! शुरू हो जाते हो, अब रात को कोई मिलने गया तो इसमें मेरी क्या गलती है।‘‘
‘‘नहीं बेटा तुम्हारी कोई गलती नहीं है! गलती हमारी है जो तुम्हे पाल पोसकर, पढ़ा-लिखाकर इतना बड़ा कर दिया कि तुम हमसे जुबान लड़ा सको और आवारागर्दी कर सको।‘‘
                मैंने एक गहरी सांस खींची। बुढ़ऊ ने इतना भाषण दे डाला था मगर अभी तक ये नहीं बताया था कि आया कौन है। और बिना पूछे बताने की उनकी मंशा भी नहीं जान पड़ती थी। लिहाजा पूछना ही पड़ा, ‘‘है कौन।‘‘
‘‘लड़की है कोई।‘‘ वो यूं बोले मानों लड़की शब्द मंुह पर लाना उनके धर्म में हराम माना जाता हो। अब बुढ़ऊ को कौन समझाता कि मेरी मां भी कभी लड़की थी। बहरहाल ये तो समझ गया था कि उनके गुस्से की वजह क्या थी। मगर साथ ही मंै हैरान भी कम नहीं हुआ था कि इतनी रात गये कोई लड़की मुझसे मिलने पहुंची थी।
                जरा ठहरिए इससे पहले कि आप किसी उलझन के शिकार हों मैं ही बताए देता हूं। दरअसल यह साउथ दिल्ली का एक झुग्गी-झोपड़ी वाला इलाका है। जहां मुरगी के दरबे जैसे घर में मैं रहता हूं। इस झोपड़पट्टी वाले एरिया को इंद्रा कैम्प के नाम से जाना जाता है। ये अलग बात है कि इंद्रा गांधी का नाम रखने से भी यह झोपड़पट्टी ही बनी रही महलों में तब्दील नहीं हो सकी।
                होती भी कैसे यही तो नेताओं का असली खजाना था, वोट बैंक था। बस चुनाव से पहले शराब की एक बोतल हर घर में पहुंचा दो वोट तुम्हारा हुआ। अब ऐसी कमाल की जगह अगर कोई खाली करवाने की कोशिश करता भी तो कैसे। ये तो सीधा-सीधा अपोजीशन वालों के हक में वोट डलवाने जैसा था। इसीलिए जनाब ना कभी इंद्राकैम्प टूटा और ना ही यहां के लोगों का कोई भला हुआ। अलबत्त्ता सब लोग बीसियों साल से इसी आस में यहां जिन्दगी काट रहे हैं, कि कभी तो सरकार हमारी झुग्गी तोड़ेगी और हमें मुवाबजा देगी।
                अरे कोई तो समझाओ इन कम्बख्तों को कि उसकभीके इंतजार में तुमने ना सिर्फ अपनी जिन्दगी नरक बना डाली बल्कि अपनी आने वाली नस्लों का भविष्य तुमने उस मुवाबजे के इंतजार में रसातल में मिला दिया।
                माफ कीजिए मैं जरा इमोशनल हो गया था। हकीकत तो ये है कि हमें आदत सी पड़ गयी है यहां रहने की और घर के पीछे बास मारते नाले की खूसबू का आनंद लेने की।
                बहरहाल बात कुछ और हो रही थी। पापा के मुंह से ये सुनकर चैंक तो मैं भी गया था कि इतनी रात गये कोई लड़की मुझसे मिलने आई थी। क्योंकि अमूनन मैं अपनी किसी महिला मित्र को घर लाने से परहेज ही बरतता था। फिर भी दो-चार महीनों में एक-दो बार ऐसा हादसा घटित हो ही जाता था, जब कोई लड़की मुझसे मिलने मेरे घर चली आती थी या फिरमजबूरनमैं ही अपनी किसी दोस्त लड़की को उसके बहुत ज्यादा इसरार करने पर घर ले आता था। ये अलग बात थी कि यूं आने वालियों में दो को छोड़कर ऐसी कोई माई की ललनी नहीं निकली जिसने दोबारा मेेरे घर आने का ख्याल भी किया हो।
                जनाब सब अच्छे और सभ्य परिवारों से ताल्लुक रखती थीं और अच्छी सोसाइटी में रहती थीं। जबकि मैं ऐसी गंदगी में रहता हूं जहां आप ये सुनकर हैरान रह जायेंगे, कि मैं इकलौता ऐसा लड़का था जो ग्रेज्युएट था। यही नहीं जनाब इस इलाके में दसवीं पास करने वाले सबसे पहले स्टूडेंट का श्रेय भी मुझे हीे जाता है। अब ऐसे में गलती से मेेरे साथ चली आई कोई लड़की दोबारा आने का रिस्क क्यों लेती, हिम्मत क्यों दिखाती। मैं खुद भी परहेज ही करता था ऐसी बातों से क्योंकि इस मामले में मुझे घरवालों की नाराजगी से कहीं ज्यादा भय मोहल्ले वालों का था। जो मेरे साथ किसी लड़की को देखते ही मेरा बाप बनकर मुझसे जवाब तलबी शुरू कर देते थे। जवाब देने के लिए मैं बाध्य नहीं था, मगर उनके प्रश्नों को टालने का मतलब था उनकी निगाहों में स्वयं को चरित्रहीन साबित कर देना।
                यही नहीं, तब उनके पेट में इतनी मरोड़ उठने लगती है, कि वह मेरी मम्मी के कान भरने शुरू कर देते हैं। मसलन एक जवान लड़की का यूं मेरे साथ घूमना...अरे कोई ऊंच-नीच हो गई तो...या अरे! कैसी बेहया लड़किनी है यह! कपड़े देखो, जींस की पैंट, बिना बाजुअन की बनियान। भला ये भी लड़कियों के पहनन हते है। हमें देखौ का मजाल है जौ हमारी बगल काहू ने देख लियो हो। शर्म भी नहीं आती एक लड़के के साथ अकेले चली आई। अगर कोई ऊंच-नीच हुइ जाये तो.......और दइया रे देखौ तो जरा मां-बाप भी जाने कैसे हैं, जो लड़की को इतनी आजादी देइ रखी है। हमारी लड़किनी को देखो, घर से बाहर कदम तो रखे, ना पैर काट के डार दें तो कहौ।
                उन्हें नहीं एहसास तक नहीं कि ऐन इसी वजह से उनकी लड़की पांचवी में दो बार फेल हुई और अब डीडीए के फ्लैट्स में रहने वाले लोगों के यहां चैका बर्तन करती है। जिसको वे लोग बड़े गर्व से कहते हैं कि कोठी में काम करती है, अपना खर्चा तो निकाल ही लेती है।
                उनकी ऐसी भड़काऊ बातें सुनकर मम्मी का दिमाग खराब और मुझे डांट पड़नी शुरू। लिहाजा स्वयं को इस गृहयुद्व से बचाने के लिए मैं उनके प्रश्नों का जवाब देने के लिए बाध्य हूं। हर किसी को अपनी अम्मा दर्जा देने को बाध्य हूं।
                बहरहाल, आज फिर एक लड़की मुझसे मिलने आई थी और वो भी रात के ग्यारह बजे आई थी। बरबस ही मेरे कानों में खतरे की घंटी बज उठी। मन ही मन मैंने अनु, कनु, पूनम, ज्योति, शीतल यानी कि उन सभी लड़कियों के नाम दोहरा डाले जिन्हें मैं जानता था और जो कभी ना कभी मेरे घर की शोभा बढ़ा चुकी थीं। नाम याद करता मैं अंदाजा लगाने की कोशिश करने लगा कि उनमें से कौन इतनी रात गये मेरे घर आने की जुर्रत कर सकती है? पर मुझे जवाब नहीं सूझा।
                इस दौरान मैं एक पैंट और ढंग की कमीज पहन कर घर आये, इस बिन बुलाए मेहमान का स्वागत करने के लिए पापा के पीछे-पीछे सीढ़ियां उतर गया।
                आगंतुक की शक्ल देखकर मैं चैंक उठा। मेरी तमाम आशाओं के विपरीत दरवाजे पर शीला खड़ी थी। मामूली जान-पहचान थी। अलबत्ता करीब दस रोज पहले वह कुछनोट्सलेने के लिए कॉलेज के बाद मेरे साथ ही मेरे घर चली आई थी। और महज पांच मिनट में ही उसकी शक्ल देखकर ये साबित हो गया था कि वो वहां एक क्षण भी और नहीं टिकना चाहती थी। सच पूछा जाये तो अभी हम दोस्त भी नहीं बने थे। अलबत्ता उसे मेरी कहानियां और कविताएं जो कि इन दिनो रेग्युलर छप रही थीं, बहुत पसंद आती थीं। यही वजह थी कि काॅलेज में मेरा उससे पाला पड़ता रहता था। और मुझे ये स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं थी कि मेरी थोबड़े ने नहीं बल्कि मेरी लिखने की स्किल ने उसे बेहद प्रभावित किया था।
                और आज इतनी रात गये वह महजबीं यूं मेरे घर....कमाल ही हो गया था...........हालांकि अगर मैं इस वक्त घर में अकेला होता तो निश्चय ही खुशी से झूम उठता मगर फिलहाल तो वह मेरे लिए मुसीबत थी। एक ऐसी मुसीबत जो आने वाले दस पंद्रह दिनों तक बुढ़ऊ की बड़बड़ाहट का कारण बनने वाली थी।
                ‘‘हैल्लो।‘‘ मुझे देखकर वह जबरन मुस्कराती हुई बोली, ‘‘साॅरी रात को मुझे यहां नहीं आना चाहिए था, मगर मैं बहुत मुश्किल में थी इसलिए...
                ‘‘इट्स ओके यार! एकदम सही टाईम पर आई हो, मधुुर मिलन की बेला यही तो होती है।‘‘ मैं मजाकिया लहजे में किन्तु इतने धीमे स्वर में बोला कि कुछ कदम पीछे खड़े पापा सुन सकें, ‘‘प्लीज कम!‘‘
जवाब में वह हौले से मुस्कराई फिर बोली, ‘‘नहीं, तुम बस मुझे घर तक छोड़ दो...प्लीज।‘‘
                ‘‘अभी चलता हूं, पहले भीतर जाओ, वरना मेरे पड़ोसी इकट्ठे होकर तुम्हारा हाल-चाल पूछना शुरू कर देंगे।
                ‘‘ओह! नो‘‘ - वह सचमुच हड़बड़ा उठी और फौरन खुले दरवाजे से भीतर दाखिल हो गई। मैंने उसे कमरे में मौजूद इकलौते बैड पर बैठाया।
उसे इत्मीनान से बैठा चुकने के बाद मैंने तीन कप चाय तैयार की। एक उसे दिया, दूसरा बुढ़ऊ को दिया - जो कि लगातार हमारे सिर पर यूं खड़े थे मानो उनकी नजर हटते ही हम आदम और हौव्वा बन जाएंगे।
                ‘‘वह पड़ोसियों वाली बात सच थी।‘‘ उसने हौले से पूछा।
                ‘‘सौ फीसदी मैडम! यह कालका जी का तुम्हारा बंगला नहीं झुग्गी झोपड़ी का इलाका है जहां हर लोग इस बात की भी खबर रखते हैं कि पड़ोस के घर में नाश्ते में क्या बना था और डिनर में क्या पकने वाला है। अभी रात में ही सब इकट्ठे होकर तुमपर सवालों की झड़ी लगा देते। मसलन क्या हुआ, नाम क्या है, रहती कहां हो, नीलेश से क्या काम है। अच्छा साथ में पढ़ती होगी, नीलेश की गरल फरेंड हो, नोटिस लेने आई होगी! लेकिन इतनी रात को हाय दइया कैसे मां बाप हैंगे और कैसी लरकिनी है जे, जो इत्ते रातऊ में चैन नाय है। वगैरह वगैरह....‘‘
                ‘‘अच्छा हुुआ तुमने मुझे भीतर बुला लिया। वरना मैं तो उनसे उलझ ही पड़ती। माई गाॅड आज भी ऐसे लोग होते हैं - और वो क्या कहा तुमनेगरल फरेंडऔर वो सैकेण्ड वर्डनोटिस लेने‘, कमाल है यार!‘‘
                चाय का तीसरा कप अपने हाथ में लिए मैं बेड पर उसके करीब ही बैठ गया। जबकि कमरे में एक कुर्सी पहले से मौजूद थी। मेरी इस हरकत पर गलियारे में खड़े बुढ़ऊ तिलमिला उठे, मानो कहना चाहते हों, तेरी हिम्मत कैसे हुई, उसके बगल में बैठने की। जवाब में मैंने भी ऐसी घृष्टता दिखाई जैसे उनसे पूछ बैठा होऊं, फ्रैंड मेरी है, इसके बगल में मैं नहीं तो क्या आप बैठेंगे?
                मुझे इस बात का पूरा एहसास था कि बुढ़ऊ का पारा चढ़ रहा था। उसे उतारने का सफल तरीका ये था कि मैं शीला को फौरन घर से बाहर कर देता। मगर यह संभव नहीं था, लिहाजा बुढ़ऊ का पारा चढ़ता जा रहा था। खुंदक बढ़ती जा रही थी। मगर मैं जानता था - वो मन ही मन मुझे कोस सकते थे, गालियां बक सकते थे, तिलमिला सकते थे, अपना बीपी बढ़ा सकते थे - मगर एक काम वो नहीं कर सकते थे और वो ये कि शीला को जाने के लिए नहीं कह सकते थे, उसे अपशब्द नहीं कह सकते थे और उसके सामने मुझे भी कोई अपशब्द नहीं कह सकते थे। बस इसी बात का तो मैं फायदा उठा रहा था।
                शीला के करीब बैठने के अब जाकर मैंने उसकी हालत पर गौर करना शुरू किया तो सिसकारी-सी निकल गई। उसके बाल जिन्हें वो हमेशा संवार कर रखती थी इस वक्त चिड़िया का घोंसला बने हुए थे। गर्दन पर नाखूनों से खरोंचे जाने से निशान उभर आये थे। गालों पर दो जगह लाल चकते निकल आए थे। जैसा कि दांतों से काटने पर या जोर से चुटकी भरने पर हो जाता है। कमीज का ऊपरी बटन टूटा हुआ था। शर्ट की हालत यूं थी जैसे उसे मुट्ठी में पकड़कर भींचा गया हो। सबसे हैरानी वाली बात ये दिखाई दी कि उसके पांव नंगे थे। अब भले ही उसने खुद को सहज कर लिया था मगर चेहरे पर छाई बद्हवासी थी कि हटने का नाम ही नहीं ले रही थी।
                मैं समझ गया, उसकेे साथ कुछ बहुत बुरा घटित हुआ है। मगर उससे कुछ पूछ पाने का साहस मैं अपने भीतर इकट्ठा नहीं कर सका। ऊपर से पापा सिर पर खड़े थे। उनके सामने कुछ पूछना ठीक नहीं था। ये तो उसके भीतर चल रहे द्वंद को और बढ़ाने जैसा साबित होता। लिहाजा मैंने उसे फौरन घर पहुंचा देना ही उचित समझा।
                यकीन जानिए, अगर कोई और वक्त होता मैं उससे उसका हाले दिल जरूर पूछता, गले लगाकर सांत्वना देता जो अगर आगे एक्सटेंड होकर किसी मुकाम तक पहुंचता तो बहुत ही अच्छा होता और अगर नहीं भी होता तो जो हांसिल हो चुका होता उसी से सब्र कर लेता।
                जरूर आप सोच रहे होंगे कि कैसे कमीना इंसान है ये? तारीफ का शुक्रिया जनाब मगर या तो कमीना कह के तारीफ कर लीजिए या इंसान कह कर बेइज्जती कर लीजिए! दोनों बातें एक साथ भला कैसे हो सकती हैं। कमीना भला इंसानों की गिनती में कैसे सकता है और जो इंसान होगा वो कमीना कैसे हो सकता है। हां और ना एक साथ कैसे पाॅसिबल है। ऐसा तो सिर्फ कोई औरत ही कर सकती है, चाह सकती है - कि वो लड्डू खा भी ले और और लड्डू उसके हाथ में बना भी रहे। और ये बंदा और भले ही कुछ भी हो मगर कम से कम औरत तो नहीं है। सारी बातें मैं पाठकों को इसलिए बता देना चाहता हूं ताकि भूल से भी वे मेरे बारे में कोई गलतफहमी पालते हुए मुझे शरीफ इंसान समझ लें क्योंकि मैं कुछ भी बनना पसंद कर सकता हूं मगर शरीफ नहीं, क्योंकि जनाब आज के जमाने में तो बस गधा ही शरीफ हो सकता है।
                सच पूछिए तो मुझे उस व्यक्ति पर तरस आने लगता है जिसके बारे में लोग कहते हैं कि बेचारा कितना सीधा-सादा शरीफ है। तब मुझे लगता है वे लोग असलियत में ये कहना चाहते हैं कि, ‘स्साला कितना बड़ा उल्लू का पट्ठा है।
                वह चाय का कप खाली कर चुकी थी। मैंने प्रश्न करती निगाहों से उसे देखा तो वह फौरन बोल पड़ी, ‘‘अब चलें।‘‘
                ‘‘हां जरूर।‘‘
                ‘‘कहां तक जाना है?‘‘ पापा ने पूछा।
                ‘‘कालकाजी इसको घर तक छोड़कर आता हूं।‘‘ -  मैं बोला - ‘‘अभी घंटा भर में लौट आऊंगा।‘‘
                ‘‘बेटा अकेली रहती हो?‘‘
                लो कर लो बात! जरूर बुढ़ऊ ने इसी बहाने ये जानने की कोशिश की थी कि कहीं यहां का अधूरा काम मैं उसके घर जाकर ना पूरा करने लगूं।
                ‘‘जी नहीं मम्मी डैडी और भाई के साथ।‘‘
                ‘‘मैं साथ चलूं? रात बहुत हो चुकी है।‘‘ बुढ़ऊ ने मुझसे पूछा।
                ‘‘नहीं।‘‘ मैं दो टूक बोला।
                उसके बाद मैं पापा को लेकर कमरे से बाहर निकल आया, शीला से ये कहकर कि अपना हुलिया दुरूस्त कर ले। पांच मिनट बाद ही वो भी बाहर गयी। अब वो कुछ ठीक-ठाक लग रही थी।
                मैंने बाइक बाहर निकाली और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में लुढ़काता हुआ सड़क पर पहुंचा। इस दौरान मैं पापा के आखिरी वाक्य, ‘मैं साथ चलूं।के बारे में सोचता रहा। क्या मंशा थी उनकी? हमारी सुरक्षा के लिए ऐसा कहा था या फिर यह सोचकर कि कहीं हम एकांत पाते ही... मगर बुढ़ऊ के बारे में कोई निष्कर्ष निकाल पाना आसान कहां था। उनके साथपल में तोला पल में मासावाली कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती थी। फिर एक बात और मेरे हरामी मन में घुमड़ उठी कि अगर वह हम दोनों के साथ बाइक पर बैठते तो कहां बैठते मेरे और उसके बीच में या वो हम दोनों के बीच में होती। क्योंकि पापा को बाइक चलाना तो आता ही नहीं था। जरूर बुढ़ऊ बीच में बैठने की फिराक में थे, ताकि वो गलती से भी मुझसे चिपक ना जाती।
                मैंने किक मारकर बाइक स्टार्ट की तो वह मेरे पीछे बाइक दोनों तरफ टांगे लटकाकर बैठ गई और अपना सिर मेरे कंधे से सटा दिया। सच कहता हूं जनाब मजा गया! वरना तो आज के जमाने की लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़ लिख जाती हों बाइक पर बैठने का सहूर उनको नहीं था। ब्वाॅयफ्रैंड के अलावा किसी के साथ बैठते वक्त हमेशा दोनों पैर एक तरफ कर लेती थीं। तब कस के ब्रेक लगाने का भी कोई फायदा नहीं होता था।
                कुछ आगे बढ़ते ही मुझे महसूस हो गया कि वह रो रही थी। मेरा दिल द्रवित हो उठा। मगर बाइक चलाते हुए मैं उसे सीने से कैसे लगा सकता था। उसके मन की हालत को समझकर मुझ जैसे महा हरामी का दिल भी रो उठा। पता नहीं क्या कुछ गुजरा था उसके साथ, क्या कुछ झेला था उसने। इस वक्त उसको रोता पाकर मेरा कलेजा फटा जा रहा था, इसलिए नहीं कि किसी कमीने या कुछ कमीनों ने उसकी यह दशा की थी बल्कि इसलिए कि वह कमीना मैं क्यों नहीं था।
                बहरहाल मैंने उसे रोने दिया।
                अगले टी-प्वाॅइंट जिसे लोग नाला कहने से बेहतर समझते थे - से ज्यों ही मैंने राइट टर्न लिया वह मेरे कान में जोर से बोली, ‘‘स्टाॅप!‘‘
                मैंने हड़बड़ाकर अगला और पिछला ब्रेक एक साथ पूरी ताकत से दबा दिया। इस तरह लगने वाले झटके पर वह एकदम मेरे से चिपक गई। उन हालात में भी मैं उसके स्पर्श की अनुभूति पाकर गुदगुदाए बिना नहीं रह पाया।
                ‘‘क्या हुआ?‘‘ प्रत्यक्षतः मैंने सवाल किया।
                ‘‘किसी और रास्ते से चलो प्लीज।‘‘
                ‘‘क्यों?‘‘
                ‘‘वो तीनों अभी यहीं हैं।‘‘
                मैंने फौरन दाएं बाएं नजर डाली। तीन औसत कद-काठी के आवारा किस्म के लड़के सड़क के किनारे टांगे फैलाए बैठे हुएदारूपी रहे थे। उन्होंने उसके साथ क्या किया था मैं नहीं जानता, लेकिकन उसकी हालत से इतना अंदाजा तो हो ही गया था कि जो भी किया था वो बुरा ही रहा होगा। मेरी आंखों में खून उतर आया, भुजाएं फड़क उठीं, मगर ऐसा सिर्फ पल भर को हुआ, अगले ही पल मेरा गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। फौरन मुझे ज्ञान-ध्यान की बातें याद आने लगीं, जैसे कि, ‘क्रोध् पाप का मूल है’, ‘हर इंसान से प्यार करो’, ‘बुराई का बदला भलाई से दोवगैरह-वगैरह।
                जानता हूं आप मुझे डरपोक समझ रहे होंगे। मगर ऐसा नहीं है और अगर है भी तो आपको इससे क्या। मैं कोई गदर का सनी देओल थोड़े ही हूं, जो नलका उखाड़कर उनकी हिम्मत पस्त कर देता और फिर वहां नलका भी तो नहीं था। वे तीन थे, उनके पास असलहा भी हो सकता था। चाकू तो आम बात थी - ठीक है आप सही सोच रहे हैं, किसी से कहना नहीं यार प्लीज मगर सच तो यही है कि उन तीनों से अकेला भिड़ने का ताव मैं अपने भीतर नहीं ला सका। मगर कुछ तो करना था, लिहाजा मैंने एक हिम्मत और बहादुरी वाला काम किया - मन ही मन यह फैसला कर के कि यहां से थोड़ा आगे जाकर किसी पीसीओ से चुपके से पुलिस को फोन कर दूंगा।
                मगर उस स्थिति में शीला को गवाही देनी पड़ती और मामला आम हो जाना था, अफसाना बन जाना था। जो पता नहीं उसे और उसके पेरेंट्स को पसंद आता या नहीं। लिहाजा पुलिस बुलाने का विचार भी मैंने फौरन दिमाग से खुरच दिया।
                विनाश काले विपरीत बुद्धि! सच कहता हूं आज तो जैसे मेरी मति मारी गई थी। जो मैं अभी तक वहीं खड़ा था। इससे पहले कि मैं बाइक आगे बढ़ाता शीला भर्राये स्वर में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हो, उनसे उलझने की जरूरत नहीं है चलो यहां से।‘‘
                मगर मन ही मन वह कह रही होगी, ‘‘देख क्या रहे हो फोड़ दो उन तीनों कमीनों को! भले ही तुम्हारी जान पर बने मगर तुम्हे उन लोगों को सबक सिखाना ही होगा। अगर तुम मर भी गये तो लोग तुम्हारी बहादुरी की चर्चा करेंगे। सालों तक तुम्हारी बहादुरी को याद रखेंगे और मैं भी कम से कम तब तक तो याद रखूंगी जब तक कि मेरा कोई ब्वायफ्रेंड नहीं बन जाता या मेरी शादी नहीं हो जाती।
                अब कोई पूछे तो कमीनी से कि अगर मर ही जाऊंगा तो मेरी बहादुरी के चर्चे कौन सुनेगा।
                जनाब एक गंदी आदत और है मेरे भीतर - औरत कोई भी हो उसकी आंखों में आंसू मैं बर्दाश्त नहीं कर पाता! जबकि औरत के पास सबसे बड़ी ताकत यही होती है - उसके आंसू, जो वक्त पड़ने पर हथियार का काम कर जाते हैं। मगर सिर्फ उन लोगों पर जो भले इंसानों की श्रेणी में आते हों या फिर उनके करीबी हों। और जनाब जैसा कि मैं पहले ही अर्ज कर चुका हूं कि ना तो मैं भला हूं और ना ही इंसान हूं। अब करीबी की बात करें तो वो तो मैं उसका बिल्कुल नहीं हूं।
                ‘‘चलो यहां से प्लीज! ये बहुत गंदे लोग हैं, समझो ऊपर वाला मेहरबान था जो मैं बच निकली इनके चंगुल से वरना कमीने आज मुझे कहीं का नहीं छोड़ते।‘‘ कहकर वो पुनः सिसक उठी।
                साहबान तीन तरह के जिस्मानी रिश्ते ना मैं पसंद करता हूं और ना पसंद करने वालों को पसंद करता हूं। एक - खून के रिश्ते में मुंह काला करना! दो - पैसे देकर शारिरिक सुख हांसिल करना! तीन - बलात्कार करना। जनाब दो नम्बर वाली बात तो शायद कुछ खास परिस्थितियों में मैं बर्दाश्त कर भी लूं मगर पहले और तीसरे नम्बर को माफी नाम का कोई शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं है।
                एक बार एक दोस्त ने यही सब सुनकर मुझसे कहा था कि अगर ऐसा है तो तू अपनी डिक्शनरी बदल दे। जनाब मैंने उसी दिन दोस्त बदल दिया था।
                फिलहाल बात शीला की हो रही थी। वो औरत ही क्या जिसके आंसू मर्द की मति भ्रष्ट ना कर दें। सच कहता हूं उसकी द्रवित आवाज ने मेरे भीतर के गुस्से को इतना अधिक भड़का दिया कि अक्ल घास चरने चली गयी, कोई झूठ ठोड़े ही कहा है कि क्रोध आदमी का विवेक से नाता तोड़ देता है। एक सेकेंड में मैंने एक खतरनाक पैफसला कर डाला और शीला से बोला, मुझे कसकर पकड़ लो। उसने ऐसा ही किया, और मुझे एक बार फिर मजा गया। फिर मैंने क्लच दबाकर एक्सीलेटर बढ़ाना शुरू किया और एकदम से क्लच छोड़ दिया बाइक पगलाये सांड की तरह उन तीनों की ओर झपटी, इससे पहले कि उन तीनों को आने वाले खतरे का आभास होता, मैं बाइक समेत उन तीनों की टांगों के ऊपर से गुजर गया।
                तीनों हलाल होते बकरे की तरह डकारे। मैंने सौ मीटर के फासले से यू टर्न लिया और दोबारा बाइक उनकी दिशा में दौड़ा दी। हड़बड़ाकर उन तीनों ने ही उठने की कोशिश की मगर कामयाब नहीं हो पाये। मैं दोबारा उनके पैरों के ऊपर से गुजर गया। फिर करीब बीस मीटर दूरी पर पुलिया से तनिक आगे तिराहे पर बाइक खड़ी की और वापस उनके पास लौटा। तीनों टांगे पकड़े छटपटा रहे थे और मुझे मां-बहन की गालियां दे रहे थे। मगर अपनी टांगों पर खड़े होने की स्थिति में वे फिलहाल नहीं थे।
                मैंने उनमें से एक के पास पड़ा एक मोटा डंडा उठाया और तीनों को रूई की तरह धुनना शुरू कर दिया। यह देखकर शीला का हौसला वापस लौटा और उसने डंडा मेरे हाथों से ले लिया और अपने अपमान का बदला लेना शुरू कर दिया। साथ ही सूअर के बच्चों, कुत्तों, कमीनो, तुम्हारी मां की, तुम्हारी बहन की, रंडी की औलादों, इत्यादि गालियों से उन्हें नवाजती रही। यह सब कुछ महज दो या तीन मिनट में निपट गया। हालत यह थी कि उनके शरीर का कौन-सा अंग सलामत बचा है, यह कह पाना मुहाल था।
                उनकी जमकर मरम्मत करने के बाद मैं और शीला पुनः बाइक पर सवार हो गये।
                लगभग एक किलोमीटर आगे जाने पर मुझे एक रेस्टोरेंट दिखाई दिया। जिसके आगे लेजाकर मैंने बाइक रोक दी। हम दोनों भीतर दाखिल हो गए और कॉफी के साथ स्नैक्स का ऑर्डर देने के बाद एक टेबल पर आर-पार बैठ गए। मैंने उसे अपना मोबाइल देकर उसके घर पर फोन करवाया, ताकि उसके घर वाले चिंतित होकर उसे ढूंढना शुरू कर दें। फिर इत्मीनान से कॉफी पीते हुए उससे बोला, चलो शुरू हो जाओ, अब बताओ हुआ क्या था?
                ‘‘वही जो राजधानी में रात के वक्त अकेली लड़की के साथ अक्सर घटित होता रहता है।‘‘
                ‘‘फिर लड़कियां रात को बाहर निकलती ही क्यों हैं?‘‘
                ‘‘तो क्या करें मर्दों के भय से घर की चारदीवारी में कैद होकर अपने ही आजाद मुल्क में गुलामों की जिन्दगी बसर करें?‘‘
                ‘‘देखो, मैं ये नहीं कहता कि नारी शोषण या उत्पीड़न अच्छी बात है मगर जरा सोचो रात के ग्यारह बजे तुम अकेली दिल्ली की सड़कों पर भटक रही हो, क्या सुरक्षा की दृष्टि से इसे उचित कह सकती हो? शीला आजादी का मतलब ये तो नहीं होता कि हम अपनी सुरक्षा की परवाह करना ही छोड़ दें। ऊपर से तुम ठहरी इतनी दिलकश-हसीन, किसी शरीफ इंसान की भी नीयत खराब हो जाय तुम्हे देखकर, मेरे जैसों की तो बात ही क्या है।
                ‘‘मैं हसीन हूं।‘‘ वो मुदित मन से बोली।
                लीजिए जनाब इतनी सारी बातें कह गया था मैं, मगर उसके रिकार्ड की सूई इसके आगे पीछे बढ़ी ही नहीं थी।
                लड़की जो थी।
                ‘‘बला की हसीन हो, तुम्हें देखकर मैं कैसे-कैसे सपने बुनता रहता हूं, बता भी नहीं सकता।‘‘
                ‘‘बताओ ना प्लीज! कैसे सपने देखते हो मुझे लेकर।‘‘
                ‘‘फिर कभी बताऊंगा फिलहाल तो इतना कहूंगा कि रातों को भटकना बंद कर दो। और अगर भटको तो कम से कम ऐसे शरीर का हर कटाव नुमांया करने वाले कपड़े पहन कर मत निकला करो।‘‘
                ‘‘तुम मर्द लोग घूम सकते हो आधी रात को तो मैं क्यों नहीं घूम सकती।‘‘ - वो खींझती हुई बोली - ‘‘एक तरफ तो तुम लड़का-लड़की एक समान के नारे लगाते फिरते हो और दूसरी तरफ ये पाबंदियां, यह दोगलापन क्यों? रही बात मेरे कपड़ों की तो तुम्हारी बहनें जब ऐसे कपडे़ पहन कर निकलती हैं, तो क्या तुम उनका रेप कर देते हो। अकेली लड़की को क्यों तुम मर्द मुफ्त का माल समझ लेते हो। नीयत क्या होती है? किसी लड़के को देखकर मुझे लगे की वह स्मार्ट है, खूबसूरत है और अकेला है रात में, तो क्या मुझे उसका रेप कर देना चाहिए?‘‘
                मैं हकबका कर उसकी शक्ल देखने लगा।
                ‘‘सॉरी यार मेरा वो मतलब नहीं था।‘‘ मैं दबे स्वर में बोला।
                ‘‘व्हाट सॉरी, तुमने तो हद कर दी यार! पढ़े लिखे हो, अपनी रचनाओं के माध्यम से उपदेश देते फिरते हो, तो वो सिर्फ किताबी बातें होती हैं। हंकीकतन तुम भी दोगली मानसिकता के शिकार हो औरतों को लेकर! अगर ऐसा है तो खुल्लम-खुल्ला क्यों नहीं खेलते यह छिपकर वार क्यों करते हो। कल तुम्हारे अखबार में तुम्हारा एक लेख पढ़ा था, जिसमें तुमने बड़े जोर-शोर से ये बात उठाई थी कि, ‘लोग कहते हैं कि लड़कियां बदन दिखाऊ कपड़े पहनती हैं इसलिए लड़के उन्हें देखकर आपा खो बैठते हैं! अगर यह सच है तो कोई मुझे बताएगा कि परसों लक्ष्मी नगर में जो चार साल की लड़की के साथ बलात्कार की घटना हुई उसमें बलात्कारी को आप खोने लायक क्या दिखाई दिया था? या मुझे उस साठ साल की टूरिस्ट महिला के बलात्कार के बारे में कोई बतायेगा जिसे टैक्सी ड्रायवर ने दिल्ली गेट से अपनी टैक्सी में बैठाया था और लाल किले के पीछे लेजाकर टैक्सी में ही उसके साथ रेप किया था। क्या था उत्तेजित करने जैसा उस साठ साल की महिला में? - इसलिए अपनी पुरूषवादी मानसिकता से बाहर निकलिए। बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होता है, यही उसकी मानसिकता है, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामने वाली लड़की की उम्र क्या है और उसने क्या पहना हुआ है।‘ - कहो मिस्टर याद आया कुछ। तुम्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि तुम्हारे उस लेख ने किस कदर तुम्हारा दीवाना बना दिया था मुझको। मगर आज, आज तुमने साबित कर दिया कि तुम लेखक और पत्रकार बाद में हो सबसे पहले तुम एक मर्द हो।‘‘
                क्या भाषण दे रही थी स्साली, देती भी क्यों नहीं दर्शन शास्त्र से एमए जो कर रही थी, भला शब्दों की क्या कमी थी उसके पास। इस वक्त उसे देखकर कौन कह सकता था कि अभी थोड़ी देर पहले वो रोकर हटी थी और घंटा भर पहले उसपर रेप अटैम्प्ट हुआ था।
                ‘‘अब कुछ बोलते क्यों नहीं?‘‘
                ‘‘कहा सॉरी।‘‘
                ‘‘और फिर मुझे लेट नाइट घर पहुंचने का कोई शौक थोड़े ही चर्राया था। अब मजबूरीवश लेट हो ही गई तो क्या करूं। मगर वो हरामजादे...माई गॉड अगर मैं भागकर तुम्हारे घर नहीं पहुंच जाती तो जाने क्या हो जाता?‘‘
                ‘‘उन तीनों की दावत हो जाती और क्या होता, स्साले मेरा माल उड़ा ले जाना चाहते थे?‘‘
                ‘‘शटअप यार! जब देखो बकवास करते रहते हो।‘‘
                ‘‘क्या करूं तुम और कुछ करने ही कहां देती हो।‘‘
                ‘‘शटअप।‘‘ वह कड़े लहजे में बोली, ‘‘व्हैन आई से शटअप दैन यू मस्ट शटअप, ओके।‘‘
                ‘‘क्यों नहीं कमीनी मैं तेरा ब्वायफ्रेंड जो हूं।‘‘ मैं होंठों में बुदबुदाया।
                ‘‘क्या कहा।‘‘
                ‘‘कुछ नहीं मैं हो गया शट और अप दोनो।‘‘ - मैं जल्दी से बोला - ‘‘अब पूरी बात बताओ, हुआ क्या था?‘‘
                ‘‘मैं करीब सवा दस बजे बदरपुर से एक आर.टी.वी. में सवार हुई, तीन-चार सवारियां और भी थीं, इसलिए कुछ भी अटपटा नहीं लगा। फिर ड्राईवर ने लालकुअंा के बस स्टॉप पर ये कहते हुए बस रोक दी कि, एक-दो सवारी और जायें फिर चलता हूं।
                हम इंतजार करने लगे। पीछे की लम्बी वाली सीट खाली थी, इसलिए मैं उस पर बैठी हुई थी। लगभग दस मिनट बाद वही तीनों हमराजादे मेरे इर्द-गिर्द बैठे। बस चल पड़ी और तीनों ने मुझे छेड़ना शुरू कर दिया। शुरुआत सिर्फ हल्के-फुल्के धक्कों से हुई। मगर जल्दी ही उनकी हरकतें मेरे बर्दाश्त की सीमाएं पार करने लगीं। तंग आकर मैंने उस सीट से उठने की कोशिश की तो उनमें से एक ने मुझे वापस हाथ पकड़कर सीट पर खींच लिया और कहर भरे स्वर में बोला, ‘‘चुप बैठी रह वरना गर्दन मरोड़ दूंगा।‘‘
                दूसरा बोला, जरा प्यार से बोल यार फ्रेस माल लगती है, बिदक जाएगी।
                फिर तीसरे ने मुझसे पूछा, चल अब खुद बता दे कि तू कुंवारी है या नहीं।
                उनकी बातें सुनकर मैं भीतर तक सिहर उठी। वो ऐटा-मैनपुरी साईड की भाषा बोल रहे थे मगर समझ में तो ही रहा था। मेरे होश उड़े जा रहे थे किसी भी तरह की कोई मदद मिलने की उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी। समझ में नहीं रहा था कि किस तरह खुद को उनके चंगुल से बचाऊं?
                तभी पहले वाला धमकाने वाले अंदाज में बोला, ‘‘बता क्यों नहीं रही ससुरी कुंवारी है कि पहले ही सब कुछ गंवाय चुकी है।‘‘
                मेरे से जवाब देते नहीं बना।
                ‘‘पढ़ाई करत हौ।‘‘
                ‘हां-हांकहते हुए मैेंने जल्दी से सहमती में सिर हिलाया।
                ‘‘कलेज में हौ।‘‘
                मैंने सहमति में सिर हिला दिया।
                ‘‘फिर ससुरी कहां से कुंवारी बची हुइयो, कालेज जान वाली लड़किनी भी कबहूं कुंवारी होत हैंगी।‘‘
                उन हालात में भी मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा, कैसी गंदी सोच थी कमीने की।
                ‘‘हमैं का, कुंवारी हौ या समंदर हौ, हमें कौन सो तुमसे शादी करन को है।‘‘
                ‘‘जू पटाखा है भाई! घरके खूब मजौ करिहैं, कुंवारी नाय भी हो तहुं मजो आय जइहै।‘‘
                तभी आगे बैठे एक लड़के से नहीं रहा गया। वो उनके विरोध में उठ खड़ा हुआ और ड्राइवर से बोला, ‘‘बस को थाने ले चलो।‘‘
                इससे पहले कि ड्राइवर कुछ बोलता, तीनों मुझे छोड़कर उस युवक पर पिल पड़े और ओखला से तनिक पहले तुगलकाबाद गांव को जो रास्ता जाता है वहां बस रुकवाकर उसे नीचे फेंक दिया। मारकर अधमरा तो वे लोग उसे पहले ही कर चुके थे। इस तरह जो अंधेरे में जुगनू चमकने जैसा प्रकाश फैला था वो भी गायब हो गया।
                बस में कुछ लोग और बैठे थे, मगर किसी ने भी उनका विरोध करने की कोशिश नहीं की। इधर मारे भय के मेरे शरीर में कंपकंपी छूट रही थी और आंखों से आंसू टपक रहे थे।
                युवक को नीचे फेंककर तीनों पुनः मेरे ईद-गिर्द बैठे। उनमें से एक ने मेरे गालों पर कई जगह दांत गड़ा दिये और बाकी दोनों ने तो हद ही कर दी, उन्होंन मेरी दोनों......
                ‘‘बस करो प्लीज।‘‘ - मैं जल्दी से बोला - ‘‘आगे क्या हुआ होगा इसका अंदाजा में बाखूबी लगा सकता हूं, सिर्फ ये बताओ तुम उनके चंगुल से छूटीं कैसे?‘‘
                बस में तो उनका विरोध करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, शुक्र था उन्होंने बस में ही मेरा रेप नहीं कर दिया, वरना मैं किसी भी तरह उनसे बच नहीं सकती थी। उनकी छेड़छाड़ जारी थी। फिर बस ज्यों ही ओखला नाले के पास पहुंची उन तीनों ने बस रुकवाकर मुझे जबरन नीचे उतार लिया, मैं बहुत रोई-गिड़गिड़ाई, मगर उन पर जरा भी असर नहीं हुआ। मुझे यकीन गया कि आज मेरी भारी दुर्गति होनी है, ऊपर से मुझे अपनी जिन्दगी भी मौत के साये में दिखाई देने लगी। सच कहती हूं मुझे उस वक्त अपनी इज्जत की परवाह बिल्कुल नहीं रह गई थी। मैं तो बस ईश्वर से इतनी प्रार्थना कर रही थी कि वे तीनों मुझे जिन्दा छोड़ दें।
                बस से नीचे उतरने के बाद जब वे तीनों मुझे जंगल में ले जाने लगे तो आखिर मैं हिम्मत करके रो देने वाले अंदाज में पूछ ही बैठी, ‘‘तुम लोग आखिर चाहते क्या हो?‘‘
                जवाब में तीनों बड़े ही कुत्सित ढंग से हंसे।
                ‘‘देखो।‘‘ - मैं दयनीय स्वर में बोली - ‘‘तुम जो चाहते हो कर लो, लेकिन इंसानों की तरह, सभ्य ढंग से करो और उसके बाद मुझे सही-सलामत यहां से चले जाने दो।‘‘
                ‘‘और अगर तू पुलिस के पास गई तो।‘‘
                ‘‘नहीं जाऊंगी प्रॉमिश, वैसे भी पुलिस के पास जाने से जो कुछ तुम छीन चुके होगे वो वापस थोड़े ही मिल जाएगा मुझे, उल्टा बदनामी होगी सो अलग।‘‘
                जवाब में तीनों ने एक क्षण को एक-दूसरे की ओर देखा, फिर सहमति में सिर हिला दिया। मगर मैं आस्वस्त नहीं हुई। उनकी आंखों में मुझे अपनी मौत तैरती साफ दिखाई दे रही थी। अभी वे मुझे लेकर जंगल की ओर बढ़ने ही लगे थे कि उनमें से एक ने मेरी छातियों को........उफ! स्साले एकदम जानवर थे! मेरी चीख निकल गई और आंखों में आंसू भर आए। मेरा अंत मुझे सामने दिखाई दे रहा था और अगर नहीं तो भी पूरी जिन्दगी उनकी दरिंदगी को याद करते हुए गुजारना तय था, भला इस तरह के हादसों को भी कोई भुला सकता है।
                फिर मैंने आर या पार वाला फैसला कर लिया।
जंगल में घुसते वक्त एक झटके से मैं उस आदमखोर की तरफ मुड़ी जो मेरा हाथ पकड़े था, मैंने अपनी पूरी ताकत अपना घुटना उसकी जांघों के जोड़ पर चलाया। वो हलाल होते बकरे की तरह डकारा, इस दौरान उसने एक हाथ से अपनी फैमली ज्वैल्स संभाला और दूसरे से मुझे पकड़े रखा, मगर उसकी पकड़ ढीली हो चुकी थी। दूसरा मुझे मां की गाली देता मुझपर झपटा तो मैंने उसे कसकर लात मारी, मेरे इस अचानक हमले से वह संभल नहीं पाया और नीचे जा गिरा। तीसरा हकबकाया सा कभी अपने साथियों को तो कभी मुझे देख रहा था, मैंने फौरन विपरीत दिशा में दौड़ लगा दी।
उस दौरान अगर सड़क से कोई वाहन गुजरता तो यकीनन मुझे रौंद जाता, मगर ऐसा नहीं हुआ, थैंक्स गाॅड कि ऐसा नहीं हुआ। मैं दौड़ती रही, मैंने मुड़कर ये भी देखने की कोशिश नहीं की कि वे तीनों मेरे पीछे भी रहे हैं या नहीं। मेरी चप्पल छूट गई, बैग गिर गया, मगर मैंने दौड़ना जारी रखा। अपनी पूरी ताकत लगाकर जितना तेज मैं दौड़ सकती थी दौड़ी। फिर अचानक मुझे तुम्हारे घर वाली गली दिखाई दी, तो मैं उसमें प्रवेश कर गई। मुझे अभी भी हैरानी है कि मैं उन हालात में भी मैं उस गली को पहचान कैसे गई। आगे जो हुआ वह तुम जानते ही हो। कहकर शीला खामोश हो गई। अलबत्ता इस दौरान उसकी आंखें एक बार पुनः भर आई थीं।
‘‘देखो जो हुआ बुरा हुआ, तुम चाहो तो पुलिस कम्पलेन कर सकती हो।‘‘
मेरी बात पूरी होने से पहले ही उसकी मुंडी इंकार में हिलने लगी।
‘‘नहीं करनी पुलिस कम्पलेन मुझे! जानते हो किसी भी तरह ये बात आम हो गयी तो लोग उन बातों की भी कल्पना करने लगेंगे जिनका शिकार होने से मैं बच गई आज। मुझे जानने वाले एक दूसरे को कहानियां सुना रहे होंगे कि कैसे शीला के साथ तीन-तीन मुस्टंडो ने रेप किया। उनमें से कोई ऐसा भी निकल आएगा जो लोगों को बता रहा होगा कि सबसे पहले उसी ने मुझे जंगल किनारे खून से लथपथ हालत में पड़ा हुआ देखा था।‘‘
मैं हंस पड़ा।
‘‘कहने का मतलब ये है कि जितने मुंह होंगे उतनी कहानियां होंगी। और सच पूछो तो जितना हम दोनों ने उन्हें मारा है, उससे मेरे मन को अजीब सा शकून मिला है, जैसे रिवेंज मिल गया हो! मुझे अब लग ही नहीं रहा कि मेरे साथ कोई ज्यादती की गई थी। अगर तुमने उन्हें सबक नहीं सिखाया होता तो यकीनन मैं महीनों तक तड़प रही होती इस हादसे को याद करके।‘‘
                कॉफी खत्म हो चुकी थी। मैंने बिल पे किया और उसके साथ रेस्तरां से बाहर निकल आया।
                एक बार फिर हम दोनों मेरी बाइक पर सवार हो गये।
                सच कहता हूं जनाब मुझे लड़की जात पर तनिक भी भरोसा नहीं था, बट आई कांट सीन डैमशेल इन डिस्टेª! देखता भी कैसे, यूं लड़कियां आपकी एहसानमंद होकर जो नवाजिशें आप पर लुटाती हैं वो भी तो लाजवाब ही होता है। ये अलग बात है कि अपनी इसी आदत की वजह से मैं कई बार मुसीबतों में फंस चुका था। यकीन जानिये लड़के अगर सांप की तरह होते हैं तो लड़कियां छूछूंदर की तरह होती हैं, जो एक बार सांप के गले में फंस जायंे तो उगलते ही बनता है निगलते बनता है।
वो बाइक पर मुझसे एकदम सटकर बैठी हुई थी। उसके स्पर्श से मुझे एक ना बयान की जा सकने वाली सुखानुभूति हो रही थी। और फिर बीच-बीच में बाइक को तेज ब्रेक लगाकर मैं उस सुख की अनुभूति को दोबाला भी तो कर ले रहा था। पूरे रास्ते वो मेरी पीठ से लता की तरह लिपटी रही और मैं स्पर्श सुख के सागर में गोते लगाता रहा।
                दस मिनट में हम शीला के घर पहुंच गये। जनाब बाइक को स्लो स्पीड में चलाने की पूरी कोशिश के बावजूद भी मैं दस मिनट से ज्यादा वक्त जाया नहीं कर पाया। क्या करता मुश्किल से आधा कि.मी. का तो सफर था, रेस्टोरेंट से उसके घर का।
                काश! कि उसका घर गुड़गांव में होता, फरीदाबाद में होता, चाहे अलीगढ़ में होता! तो मजा जाता। भला दस मिनट का वक्त भी रोमांस के मामले में किसी गिनती में आता है।
                ‘‘मैं तुम्हारा शुक्रिया अदा कैसे करूं?‘‘ वो बाइक से उतरकर बोली।
                उसकी कोई जरूरत नहीं है।
                ‘‘तुम मुझे बहुत पसंद हो, सच कहती हूं, समझ लो आज से मैं तुम्हारी हुई।‘‘
                ‘‘पहले किसकी थी?‘‘
                ‘‘शटअप यार! यू नो, आई लव यू।‘‘
                ‘‘जरूर अभी-अभी तुम्हें पता लगा होगा कि मेरी शक्ल शहजाजे गुलफाम से मिलती है, या मेरे बाप का नाम बिल गेट्स है।‘‘
                ‘‘मजाक मत करो प्लीज।‘‘
                ‘‘मैडम किसी महान आत्मा ने कहा है कि मुसीबत के क्षणों में बनाये गये रिश्ते अक्सर क्षणिक साबित होते हैं, घर जाओ, जो हुआ उसे भूलकर अपनी लाइफ में मस्त हो जाओ। मेरा तुम्हारा कोई मेल नहीं, हम दोनों नदी के दो किनारें हैं जो साथ-साथ चल तो सकते हैं मगर मिल नहीं सकते।‘‘
                ‘‘तुम्हें लगता है मैंने अभी-अभी तुम्हारी बाबत ये ख्यालात बनाये हैं? ठीक है आजमा लो, बोलो क्या चाहते हो, पाना चाहते हो मुझे?‘‘
                मैं हकबका कर उसकी शक्ल देखने लगा।
                ‘‘ऐसे क्या दीदे फाड़-फाड़ कर देख रहे हो, कभी खूबसूरत लड़की नहीं देखी क्या?‘‘ - कहकर वो तनिक रूकी फिर बोली, ‘‘जवाब नहीं दिया तुमने बोलो पाना चाहते हो मुझे?‘‘
                जरूर आज के हादसे का कमीनी के दिमाग पर भी कोई असर हो गया था।
                ‘‘जवाब नहीं दिया तुमने?‘‘
                ‘‘देखो स्वीट हार्ट मुझे खैरात पसंद नहीं।‘‘
                ‘‘अच्छा तो समझ लो ये उजरत है, मुझे यहां तक सही सलामत पहुंचाने की।‘‘
                ‘‘मैं फर्ज को मेहनत नहीं समझता! और बिना मेहनत के उजरत भी खैरात ही होती है लिहाजा वो मुझे पसंद नहीं।‘‘
                ‘‘ओह! लगता है मैं तुम्हे अच्छी नहीं लगती।‘‘
                ‘‘ऐसी बात नहीं है, तुम बहुत खूबसूरत हो स्वर्ग से उतरी जान पड़ती हो! मगर शेर अपना शिकार खुद करता है। अगर हिरन उसके आगे आकर खड़ा हो जाए और कहे ले भाई शेर, मैं गया हूं, खा ले मुझे। तो तुम्ही बताओ भला शेर को उसे खाने में मजा आएगा! नहीं आएगा, वो तो खैरात ही लगेगी उसे। लिहाजा पहले मैं तुम्हें पटाऊंगा फिर तुम्हारे साथ डेटिंग करूंगा, फिर देखेंगे कि वो कहानी आगे कहां तक एक्सटेंड होती है, होती भी है या नहीं।‘‘
                ‘‘बेवकूफ हो, जो पटी पटाई को पटाने की कोशिश में वक्त जाया करोगे।‘‘
                कहकर उसने कॉलबेल पुश किया और मुझसे बोली, ‘‘आंखें बंद करो।‘‘
                ‘‘अरे घर के अंदर जाकर बदलना यूं दरवाजे पर।‘‘
                ‘‘क्या?‘‘
                ‘‘कपड़े और क्या?‘‘
                ‘‘मारूंगी अभी, वरना आंखें बंद करो जल्दी।‘‘
                ‘‘मगर क्यों?‘‘
                ‘‘करो तो।‘‘
                उसने जिद-सी की तो मैंने आंखें बंद कर लीं। शीला मेरे चेहरे पर झुकी, मेरे होंठों पर किस किया और बोली, ‘‘थैंक्यू हैंडसम!‘‘
                ‘‘ये क्या था।‘‘ मैं हड़बड़ा सा गया।
                ‘‘बोहनी।‘‘ वो अपनी एक आंख दबाते हुए बोली।
                तभी दरवाजा खुला और वह भीतर भाग गई।

!! समाप्त !!