सफेद घोड़ा
इस दुनिया में सवाब और गुनाह, रेल की दो पटरियों की मानिंद साथ-साथ चलते हैं। इस कायनात में कोई गोशा ऐसा नहीं, जहां इंसान तो मौजूद हो, लेकिन शैतान का वजूद न पाया जाता हो। इंसान सवाब व भलाई के तोहफों को सीने से लगाए और शैतान गुनाह और तबाही की पोटली को बगल में दबाए। इन्हीं दो पटरियों के दरम्यान, एक-दूसरे को मात देने का सपफर जारी रखे हुए हैं। हार-जीत का यह सिलसिला दुनिया के पहले रोज से जारी है और कयामत तक जारी रहेगा। इस रस्साकशी में शैतान को शायद इंसान बनने में जरा मुश्किल पेश आती होगी, जबकि इंसान को शैतान का रूप धरण करते हुए जरा भी मुश्किल नहीं होती।...
कुछ अर्सा पहले की बात है, मैं अपनी बेटी से मिलने आया हुआ था। इन दिनों मेरी नवासी की शादी के हंगामे जोरों पर थे और मैं भी इनमें शामिल होने आया था। एक रोज दामाद साहब शॉपिंग के लिए मुझे भी अपने साथ ले गए। हम लगभग दो घंटे तक तारीक रोड पर विभिन्न प्रकार की खरीदारी में मसरूपफ रहे।
वापसी से पहले हम एक रेस्टोरेंट में जा बैठे। हम जिस रेस्टोरेंट में बैठे थे, वह पूरी तरह भरा हुआ था, बल्कि मैंने बाहर कुछ लोगों को इस अंदाज में झांकते हुए पाया, जैसे वह कोई खाली मेज होने का इंतजार कर रहे हों। इसलिए हम जब पेट-पूजा से पफारिग हुए तो मैंने अपने दामाद से कहा, ‘‘उठो मियां, अब चलते हैं। लगता है, हमारे उठने का बड़ी शिद्दत से इंतजार किया जा रहा है।’’
मेरे दामाद ने वेटर को इशारे से अपने पास बुलाया और बिल के बारे में पूछा तो वह यतीमों जैसी सूरत बनाकर बोला, ‘‘साहब, आप क्यों मेरी रोजी पर लात मारते हो?’’
उसकी बात ने मुझे चौंकने पर मजबूर कर दिया। किसी वेटर से बिल मांगने का उसकी रोजी पर लात मारने से कोई ताल्लुक नहीं निकलता। मैंने उसकी तरपफ देखते हुए पूछा, ‘‘बेटा, यह तुमने कैसी बात कही है, हम क्यों तुम्हारी रोजी के दुश्मन होंगे?’’
उसकी उम्र अट्ठारह और बीस के दरम्यान रही होगी। वह अच्छी सेहत का मालिक एक आम-सा नौजवान था। खाने के बर्तन समेटने के बाद उसने मेरे सवाल का जवाब दिया, ‘‘बड़े साहब, सेठ ने आपसे पैसे लेने से मना किया है।’’
‘‘कौन सेठ?’’ मेरे दामाद ने अचानक पूछा।
वेटर ने काउफंटर की तरपफ इशारा किया। लगभग पचास साल की उम्र का एक शख्स काउफंटर पर बैठा हमारी जानिब ही देख रहा था। उससे नजर मिलते ही मेरे जेहन में एक ध्माका-सा हुआ। यूं महसूस हुआ, जैसे मैंने उसे पहले भी कहीं देखा हो। कहां? यह पफौरी तौर पर याद न आया। मैंने यह सोचकर सब्र कर लिया कि शायद इस सेठ को मैंने अपने दामाद के साथ कहीं देखा हो। मेरे दामाद ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘आईए अंकल, इस सेठ से भी मिल लेते हैं।’’
‘‘क्या यह तुम्हारी पहचान वाला है?’’ मैंने उठते हुए पूछा।
उसके जवाब से मुझे झटका-सा लगा, ‘‘नहीं अंकल, बिल्कुल नहीं।’’
जब हम काउफंटर के पास पहुंचे तो कहानी उल्टी हो गई। अपने लिबास से सेठ नजर आने वाला वह शख्स, हमें अपनी तरपफ बढ़ते देखकर बड़ी गर्मजोशी के साथ काउफंटर से बाहर निकल आया और हाथ बढ़ाकर मेरी ओर बढ़ा। मैंने उसकी शिष्टता और जोश को देखते हुए हाथ मिलाने के लिए हथेली आगे बढ़ा दी। मुझसे तसल्ली के साथ मिलने के बाद वह मेरे दामाद की तरपफ बढ़ा।
उससे हाथ मिलाने के बाद वह मेरी तरपफ पलटा। इस शख्स का व्यवहार हैरान कर देने वाला था। जब वह दोबारा मेरी ओर आकर्षित हुआ तो मैं अपनी उलझन दूर करने के लिए मापफी तलब लहजे में पूछ लिया, ‘‘मापफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना नहीं।’’
‘‘मलिक साहब, मैंने आपको पहचान लिया है।’’ वह खुशी से बोला, ‘‘आप सपफदर साहब हैं ना?’’
‘‘हां।’’ मैं लम्बी सांस खींचकर रह गया।
‘‘मलिक साहब, मैंने आपको होटल में दाखिल होते हुए देख लिया था, लेकिन पफौरी तौर पर काउफंटर छोड़ कर आपके पास न आ सका। आप यह रश देख रहे हैं।’’
उसने रेस्टोरेंट के अंदर और बाहर मौजूद लोगों की जानिब इशारा किया। मैंने तारीपफी लहजे में कहा, ‘‘माशाल्लाह, तुम्हारा यह रेस्टोरेंट खूब चलता है।’’ पिफर पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है? अभी तक तुमने अपना परिचय नहीं कराया?’’
शायद उसने मेरे सवाल पर गौर नहीं किया। अपनी ही ध्ुन में बोलता चला गया। उसके लहजे से मैंने पफौरन अंदाजा लगा लिया, उसका ताल्लुक पंजाब के किसी इलाके से था। लेकिन बावजूद कोशिश के भी याद न कर सका कि मैंने इस शख्स को पहले कब और कहां देखा था। अपनी बात के ेेआखिर में उसने मेरी मुश्किल हल कर दी और बेहद जज्बाती लहजे में बोला,
‘‘मलिक साहब, मैंने आपको देखते ही एक नजर में पहचान लिया था। आपका चेहरा जरा-सा भी नहीं बदला। नक्शो-निगार अपनी जगह पर हैं, अलबत्ता बढ़ती हुई उम्र ने बालों में चांदी भर दी है। मैंने आपको चालीस-बयालीस साल पहले देखा था उस वक्त मेरी उम्र नौ-दस साल से ज्यादा नहीं होगी, लेकिन आपकी सूरत मेरे जेहन में नक्श होकर रह गई है। आपने हम पर इतना बड़ा एहसान किया था कि मैं आपको कभी भूल नहीं सकता। यह तो एहसान पफरामोशी वाली बात होगी ना।’’
वह एक लम्हे के लिए रुका। पिफर बोला, ‘‘मेरा नाम अल्तापफ शेख है। आपको मेरे वालिद इम्तियाज शेख के कत्ल का किस्सा तो याद होगा ना, जब उनकी लाश ढूंढ़ना एक जटिल समस्या बन गई थी और यह समस्या आपने ही हल की थी। मेरा ख्याल है, आप उस सपफेद घोड़े वाले वाक्ये को भूले नहीं होंगे?’’
मेरा जेहन लगातार इसके बारे में सोच रहा था। इसे देखकर मैंने तो यह महसूस कर लिया था, जैसे इस सूरत को पहले भी कहीं देखा हो, लेकिन यह याद नहीं आ रहा था कि वह कौन है और उसे पहले कहां देखा है। इम्तियाज शेख के कत्ल का जिक्र सुनकर वह तमाम वाक्यात मेरे जेहन में ताजा हो गए, जिनका हवाला अल्तापफ शेख दे रहा था।
वक्त कितनी तेजी से गुजरता है, कुछ पता नहीं चलता। मैंने कम से कम चालीस साल पहले अल्तापफ को देखा था। उस वक्त वह दस साल से ज्यादा नहीं था। हम कापफी देर तक अतीत के पन्ने उलटते रहे। चलते वक्त मैंने उससे पूछा, ‘‘मैं तो तुम्हें और तुम्हारी वालिदा खदीजा बेगम को तुम्हारे चाचा के सुपुर्द कर आया था। तुम इस शहर में कब से कारोबार कर रहे हो?’’
‘‘मलिक साहब, इस बेरहम दुनिया में कोई किसी का चाचा या मामा नहीं है।’’ वह एकदम उदास हो गया, ‘‘सब दौलत के तलबगार हैं, हवस के पुजारी हैं।’’
उसके लहजे की जहरीली उदासी ने मुझे बता दिया कि मैं उसकी दास्तान-ए-गम से जिस कदर वाकिपफ था, वह मुकम्मल नहीं थी। हालात की सितमजरीपफी ने उसे और भी कड़े इम्तिहान से गुजारा था। मैंने जब उससे दर्दमंद लहजे में पूछा, तो उसने कम अल्पफाज में मुझे अपनी दास्तान का दूसरा हिस्सा भी सुना दिया। उसके दुख और परेशानियों ने कदम-कदम पर उसका साथ दिया। वह बड़ी मजबूती के साथ हालात के सामने डटा रहा, आखिरकार उसके हालात बदल गए और अब वह बड़े सकून और राहत की जिन्दगी गुजार रहा था।
अल्तापफ शेख की जिन्दगी के दोनों पहलू दिलचस्पी से भरपूर हैं, लेकिन यहां मैं शुरूआती दौर का हाल बयान करूंगा, क्योंकि मैं खुद इसमें शामिल था।
मौसम-ए-बहार का आगाज हो चुका था। एक रोज मैं थाने पहुंचा तो पता चला, खदीजा बेगम नाम की कोई औरत कापफी देर से मेरा इंतजार कर रही है। मैंने उस औरत को पफौरन अपने कमरे में बुला लिया। उस वक्त साढ़े आठ बजे थे। कापफी देर से इंतजार का मतलब यही था कि वह किसी परेशानी का शिकार हो गई है।
थोड़ी ही देर बाद एक कांस्टेबल खदीजा बेगम नाम की औरत को मेरे कमरे में ले आया। उसके अंदर दाखिल होते ही कमरा जैसे रोशनियों से भर गया। वह बहुत खूबसूरत थी। उजली-उजली, चांद से मुखड़े वाली।
उसकी बड़ी-बड़ी, चमकीली पुरकशिश आंखें थीं। नाक सुतवां थी, जिस पर नन्हा-सा तिल जुगनू की तरह जगमगा रहा था। गुलाब की पंखुड़ी की मानिंद रसीले गुलाबी होंठ, चमकीले गुलाबी गालों पर हल्की-सी सुर्खी झलक रही थी। गर्दन सुराहीदार लम्बी थी। भरा-भरा सीना, जिसके उठान पर हर कोई औरत इतरा सकती थी। उसके बाल लम्बे और घने थे, जो चादर से निकलकर बदली को चिढ़ा रहे थे। उसका दरम्याना कद था, मगर तमाम गुणों के एकत्रा होने के बाद वह बला की हसीन और आकर्षक दिख रही थी।
मेरे अंदाजे के मुताबिक उसकी उम्र पच्चीस और तीस के दरम्यान रही होगी, मगर वह सोलह-सतरह से ज्यादा नहीं लग रही थी। परेशानी उसके चेहरे से झलक रही थी। मैंने एक कुर्सी की जानिब इशारा करते हुए नर्म लहजे में कहा, ‘‘बैठ जाओ बीबी।’’ वह अपनी चादर संभालते हुए बैठ गई। मैंने कहा, ‘‘मुझे बताया गया है कि तुम कापफी देर से मेरे इंतजार में बैठी हो।’’
एक लम्हा रुक कर वह बोली, ‘‘मैं आपसे ही बात करना चाहती थी। मसला मेरे खाविंद का है।’’
‘‘तुम्हारे खाविंद को क्या हुआ है?’’ मैं सीध होकर बैठ गया।
‘‘इम्तियाज रात को घर नहीं पहुंचे।’’ वह दुखी लहजे में बोली।
इम्तियाज यकीनन उसके शौहर का नाम था। मैंने उसकी आंखों में देखते हुए पूछा, ‘‘वह कहां गया हुआ था? मेरा मतलब है, घर पहुंचने से तुम्हारी मुराद क्या है?’’
जवाब देने से पहले उसने अपने दुपट्टे से अपनी आंखों के नम गोशे सापफ किए। पिफर भर्राई हुई आवाज में बोली, ‘‘वह कल सुबह पफरीदाबाद गया था और यह कहकर गया था कि
वह हर सूरत में वापस आ जाएगा रात से पहले। लेकिन अभी तक...।’’
उसका गला रूंध् गया। मैंने महसूस किया, वह अंदर से बेहद दुखी औरत है। तसल्ली भले लहजे में मैंने उससे कहा, ‘‘मुमकिन है कि वह रात को वहीं रुक गया हो और आज वापस आ जाए। इसमें इतना ज्यादा पिफक्र करने वाली कौन-सी बात है?’’
खदीजानामी उस हसीना का ताल्लुक जिला लक्ष्मन सिंह से था और पफरीदाबाद नामी कस्बा वहां से लगभग आठ मील के पफासले पर स्थित था। इन दोनों कस्बों के बीच घना जंगल था, जिसके बीच में एक नहर बहती थी। यह दोनों कस्बे मेरे थाने की सीमा में आते थे।
खदीजा ने मेरे सवाल के जवाब में बताया, ‘‘यह नामुमकिन है कि इम्तियाज रात को पफरीदाबाद रुक गया हो।’’ उसकी आवाज में पिफर नमी उतर आई, ‘‘अगर ऐसा होता, तो उनका सपफेद घोड़ा वापस नहीं आता।’’
घोड़े के जिक्र पर मैं चौंक उठा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’
वह रूंध्े हुए लहजे में बोली, ‘‘इम्तियाज जिस सपफेद घोड़े पर सवार होकर पफरीदाबाद गए थे, वह आज सुबह ही अकेला घर पहुंचा है। घोड़े की हालत को देखकर...।’’
उसने जुमला अध्ूरा छोड़ दिया। वह बाकायदा आंसूओं से रोने लगी। मैं थोड़ी देर बैठा उसे आंसू बहाते देखता रहा। उसके दिल का गुबार कापफी ध्ुल गया था। पिफर मैंने बड़ी सतर्कता के साथ कुछ सवालात किए, जिनके जवाब में उसने यह बताया कि ‘खदीजा का शौहर इम्तियाज शेख पिछली सुबह अपने सपफेद घोड़े पर सवार होकर पफरीदाबाद गया हुआ था। पफरीदाबाद में उसे इरशाद अहमद से मिलना था। इरशाद पफरीदाबाद का एक जमींदार था। खदीजा के मुताबिक इम्तियाज ने इरशाद से एक भारी रकम लेकर उसी रोज शाम तक घर वापस आना था। वह रकम इम्तियाज की थी, जो कुछ समय पहले इरशाद ने उससे उधर ली थी। इम्तियाज भी किला लक्ष्मण सिंह का एक छोटा-सा जमींदार था, लेकिन उसका दिल बहुत बड़ा था। हमपेशा दोस्तों से रकम के लेनदेन के सिलसिले में उसने कभी कंजूसी या तंगदिली से काम नहीं लिया था।
‘प्रोग्राम के मुताबिक पिछली शाम जब इम्तियाज वापस घर न आया तो खदीजा बेगम परेशान हो गई। वह देर रात तक अपने शौहर का इंतजार करती रही, लेकिन इम्तियाज या उसकी कोई अच्छी-बुरी खबर उस तक नहीं पहुंच सकी। गांव में इम्तियाज के अन्य रिश्तेदार भी बसते थे, लेकिन खदीजा की अपने ससुरालियों से नहीं बनती थी। लिहाजा उसने इम्तियाज के बारे में उनसे नहीं पूछा और न ही अपनी परेशानी की वजह बताई। आज सुबह जब इम्तियाज का जख्मी घोड़ा घर पहुंचा तो वह इस सूरतेहाल से घबरा गई। पिफर वह सीध्ी मेरे पास चली आई थी।’
उसके खामोश होने पर मैंने उससे पूछा, ‘‘घोड़े के जख्मों के हालात क्या हैं?’’
‘‘वह बुरी तरह जख्मी है थानेदार साहब।’’ उसने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘उसे किसी तेजधर हथियार से कई कट लगाए गए हैं। मुझे तो हैरत इस बात पर है कि वह इस हालत में घर कैसे पहुंचा?’’ बोलते-बोलते उसकी आवाज भीगने लगी, ‘‘जब इम्तियाज के सपफेद घोड़े का यह हश्र हुआ है तो पता नहीं, मेरे खाविंद के साथ क्या सलूक हुआ होगा?’’
किसी जख्मी घोड़े का अपने सवार के बगैर घर पहुंचना तो यही जाहिर करता है कि उसके मालिक को कोई संगीन हादसा पेश आ गया है। खदीजा की जुबानी मुझे जो हालात मालूम हुए, उनकी रौशनी में पफौरी तौर पर मैंने यही अंदाजा लगाया कि इम्तियाज पर किसी ने कातिलाना हमला किया था। इस हमले का नतीजा क्या रहा, इस बारे में कोई ठोस बात नहीं कही जा सकती थी। बहरहाल, यह बेहद चिंताजनक बात थी।
मैंने खदीजा से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें यकीन है, इम्तियाज शेख पफरीदाबाद ही गया था?’’
‘‘उसने यही बताया था।’’ उसने जवाब दिया, ‘‘इम्तियाज जब भी गांव से बाहर जाता है तो अपने प्रोग्राम के बारे में जरूर बताता है। इस सिलसिले में उसने कभी गलत बयानी से काम नहीं लिया।’’
‘‘और तुम्हें इस बात का भी यकीन है।’’ मैंने उसके चेहरे पर निगाह जमाते हुए सवाल किया, ‘‘वह पफरीदाबाद में इरशाद अहमद से एक मोटी रकम लेने गया था?’’
खदीजा ने मेरे पूछने पर सिर को हल्की-सी जुंबिश दी तो मैंने पूछा, ‘‘यह इरशाद अहमद किस किस्म का बंदा है?’’
‘‘मेरी उससे कभी मुलाकात नहीं हुई।’’ उसने बताया, ‘‘इम्तियाज उसकी तारीपफ करते थे।’’
‘‘तुम्हारा खाविंद इरशाद से कितनी रकम लेने गया था?’’ मैंने एक महत्वपूर्ण सवाल किया।
खदीजा ने जवाब देने में थोड़ी देर लगाई। पिफर बोली, ‘‘तीन हजार रुपए...?’’
‘‘ओह!’’ मैं एक लम्बी सांस खींचकर रह गया।
उस जमाने में तीन हजार रुपए बड़ी रकम शुमार होती थी। जिन दिनों सोना अस्सी-नव्वे रुपए तोला और अच्छे किस्म का गेहूं पांच रुपए मन ;चालीस किलोद्ध बिकता था, उन दिनों का तीन हजार रुपया कितनी वैल्यू रखता होगा, इसका अंदाज आप बखूबी लगा सकते हैं।
मैंने खदीजा से पूछा, ‘‘इम्तियाज की किसी से दुश्मनी वगैरा तो नहीं थी?’’
‘‘देखें जनाब।’’ वह अपनी चादर दुरूस्त करते हुए बोली, ‘‘इंसान के जहां दस दोस्त होते हैं, वहां एक-दो दुश्मन भी जरूर होते हैं... मगर आप यह बात क्यों पूछ रहे हैं?’’
मैंने उसके सवाल को नजरअंदाज करते हुए पूछा, ‘‘जख्मी घोड़ा कहां है?’’
‘‘घोड़ा घर पर ही है।’’ वह अपने सवाल को दोहराते हुए पूछने लगी, ‘‘थानेदार साहब, आपने इम्तियाज के दुश्मनों के बारे में क्यों पूछा है? कहीं खुदा ना करे...।’’
वह जुमला अध्ूरा छोड़कर मुझे तकने लगी। मैंने ठहरे हुए लहजे में कहा, ‘‘देखो खदीजा बेगम, जख्मी घोड़े का इम्तियाज बेगम के बगैर ही घर पहुंचना इस बात की तरपफ इशारा करता है कि तुम्हारा शौहर किसी संगीन हादसे का शिकार हुआ है। इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि उसकी किसी से दुश्मनी तो नहीं थी?’’
हादसे का जिक्र सुनकर उसकी परेशानी में कई गुना इजापफा हो गया। वह बिखरी हुई आवाज में बोली, ‘‘थानेदार साहब, आप डराने वाली बातें ना करें। मैं इम्तियाज के किसी ऐसे दुश्मन को नहीं जानती, जो...।’’
वह अपने शौहर को पहुंचने वाले किसी नुकसान का जिक्र करते हुए बेपनाह खौपफजदा थी, इसलिए जुमला अध्ूरा छोड़कर खामोश हो गई। मैंने उसका जेहन बनाने की खातिर कहा, ‘‘तुम पिफक्र मत करो खदीजा, मैं तुम्हारे शौहर को तलाश करने की पूरी-पूरी कोशिश करूंगा। पिफलहाल, मैं उस जख्मी घोड़े से मुलाकात करना चाहता हूं, जिस पर सवार होकर इम्तियाज कल पफरीदाबाद गया था।’’
उसने अचरज से मुझे देखा, पिफर बोली, ‘‘घोड़े से मुलाकात...?’’
लफ्रज मुलाकात ने उसके लहजे को उलझाकर रख दिया था। मैंने सापफगोई से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे घर जाकर जख्मी घोड़े का जायजा लेना चाहता हूं।’’
वह जल्दी से बोली, ‘‘ठीक है, आप आएं मेरे साथ...।’’
वह पहली बार मुस्कराई। इसके साथ ही उसके मोतियों जैसे दांत चमक उठे। मैंने बेदिली से खदीजा को बाहर बैठने को कहा और ए.एस.आई. मुराद को अपने कमरे में बुला लिया। मैं मुराद को अपने साथ खदीजा के घर ले जाना चाहता था। वह जब मेरे पास आया तो मैंने जरूरी तैयारी की हिदायत दी। थोड़ी ही देर में मुराद ने खानगी का बंदोबस्त कर दिया।
जब हम थाने से बाहर निकले तो बाहर हमारे लिए एक तांगा मौजूद था। उस तांगे का इंतजाम ए.एस.आई. मुराद ने किया था। मैं ए.एस.आई. के साथ तांगे के अगले हिस्से में सवार हो गया और खदीजा को पीछे बैठने को कहा। वह तांगे के पायदान में पैर रखते ही ठिठक गई। पिफर परेशान होकर एक तरपफ देखने लगी।
मैंने उसकी निगाह का पीछा किया और एक तांगा मेरी नजर में आ गया। खदीजा एकटक उस तांगे को देखे जा रही थी, जो विपरीत दिशा से अब हमारे करीब पहुंच चुका था। मैंने से संबोध्ति करते हुए पूछा, ‘‘खदीजा, क्या बात है? तुम तांगे में क्यों नहीं सवार हो रही हो?’’
‘‘यह लोग यहां भी पहुंच गए।’’ उसने बदस्तूर दूसरे तांगे की तरपफ देखते हुए कहा।
मैंने सवाल किया, ‘‘यह लोग कौन हैं? तुम इन्हें देखकर क्यों रुक गई हो?’’
उस तांगे में कोचवान के अलावा दो लोग सवार थे। उसने मेरे सवाल का जवाब देते हुए बताया, ‘‘यह मेरा छोटा देवर मुमताज शेख है। पता नहीं, यह यहां क्या करने आया है।’’
‘‘इसी से पूछ लेते हैं। तुम क्यों पिफक्र करती हो?’’ मैंने तसल्ली भले लहजे में कहा।
इस दौरान वह तांगा हमारे तांगे से पांच गज के पफासले पर आकर रुक गया था। खदीजा ने मुझे बताया था कि वह उसका छोटा देवर मुमताज शेख है। मैं नहीं जानता था कि इन दो लोगों में खदीजा का देवर कौन-सा है? पिफर तांगा रुकने के बाद उनमें से एक व्यक्ति नीचे उतरा और तेजी से खदीजा की तरपफ बढ़ गया। वह एक स्मार्ट जवान शख्स था। मुझे यह अंदाजा लगाने में दिक्कत महसूस नहीं हुई कि वह ही खदीजा का देवर है।
मैं भी तांगे से नीचे उतर आया, ए.एस.आई. ने मेरे कदम से कदम मिलाए। मुमताज शेख का अंदाज बता रहा था कि वह कोई अहम कदम लेकर आया है। इससे पहले कि वह खदीजा से कोई बात करता, खदीजा ने नापसंद नजरों से उसे देखा और नपफरत भले लहजे में बोली, ‘‘तुम यहां क्यों आए हो?’’
‘‘भाभी, आप भी कमाल करती हैं। किसी को साथ नहीं लिया और अकेली ही थाने चली आईं।’’ उसने शिकवा करने वाले अंदाज से कहा।
अब इस बात में किसी तरह की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रही थी कि वह स्मार्ट जवान खदीजा का ही देवर था। उसके शिकायती लहजे के जवाब में खदीजा ने जले-भुने लहजे में जवाब दिया, ‘‘तुम कौन होते हो, मुझसे सवाल-जवाब करने वाले...?’’
इस मुंह तोड़ जवाब से खिसया कर वह मुझे देखने लगा। मैंने उसे अपनी ओर आकर्षित होते देख सख्त लहजे में पूछा, ‘‘हां जवान, तुम कौन हो और इस खातून को क्यों परेशान कर रहे हो?’’
वह गड़बड़ा गया और हाथ-पैर ढीले करते हुए बोला, ‘‘जनाब, यह मेरी भाभी है। भाई इम्तियाज साहब की बीवी।’’
खदीजा सापफ अल्पफाज में मुझे बता चुकी थी, अपने ससुरालियों से उसका मेल-मिलाप नहीं था और मुमताज शेख के साथ उसका अभी का व्यवहार यही जाहिर करता था कि वह उसे सख्त नापसंद करती है। इसी झगड़े में मैंने मुमताज शेख को लताड़ डाला, ‘‘यह अगर तुम्हारी भाभी है तो पिफर...?’’
‘‘जनाब, मुझे पता चला है कि भाई साहब रात को घर नहीं पहुंचे और सुबह ही सुबह भाभी थाने पहुंच गई हैं।’’ वह अपनी बात सापफ करते हुए बोला। पिफर दोबारा खदीजा की ओर आकर्षित हो गया, ‘‘भाभी, आप ही बताओ। आखिर चक्कर क्या है?’’
मैंने महसूस कर लिया कि खदीजा अपने देवर से बात करना नहीं चाहती और मुमताज शेख का बार-बार भाभी कहना भी उसे नागवार लग रहा था। लिहाजा मैंने सीध्े ही खदीजा से कहा, ‘‘आप चुप रहें।’’ पिफर मुमताज शेख से बोला, ‘‘जवान, तुम अपनी भाभी को परेशान मत करो। वह पहले ही तुम्हारे भाई के लिए बहुत पिफक्रमंद है। अगर यह चक्कर समझना चाहते हो तो हमारे पीछे-पीछे तांगा लेकर आओ। हम इस वक्त तुम्हारे गांव ही जा रहे हैं।’’
वह उलझन भरी नजरों से खदीजा को देखने लगा। मैंने खदीजा से कहा, ‘‘खातून, आप बैठें तांगे में। मुझे थाने में और भी काम हैं।’’
खदीजा खामोशी के साथ तांगे में सवार हो गई। मैं भी ए.एस.आई. के साथ तांगे में सवार हो गया और कोचवान से तांगा आगे बढ़ाने को कहा। थोड़ी ही देर में तांगे आगे-पीछे किला लक्ष्मण सिंह की जानिब रवाना हो गए थे। मुमताज शेख अपने तांगे में मेरी हिदायत के मुताबिक हमारे पीछे आ रहा था। दोनों तांगों के दरम्यान इतना पफासला था कि हमारे दरम्यान होने वाली गुफ्रतगू दूसरे तांगे में नहीं सुनी जा सकती थी। मैंने खदीजा को सम्बोध्ति करते हुए कहा, ‘‘लगता है, तुम अपने देवर से शदीद नपफरत करती हो?’’
‘‘जिस शख्स से हमेशा नुकसान पहुंचने का खतरा रहे, उससे नपफरत ही की जा सकती है इंस्पेक्टर साहब।’’ वह जहरीले लहजे में बोली। पिफर कहा, ‘‘आपसे मेरी एक छोटी-सी दरख्वास्त है।’’
‘‘हां कहो, क्या बात है?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘यह नामुराद मेरे घर में कदम नहीं रखेगा।’’ वह बोली।
मैंने खदीजा से कहा, ‘‘तुम अपने घर की मालिक हो, जिसको चाहो अंदर दाखिल होने की इजाजत दे सकती हो और जिसको चाहो, बाहर ही रोक सकती हो। यह सब तुम्हारी मर्जी पर निर्भर है।’’
कुछ लम्हे खामोश रहने के बाद मैंने उससे पूछा, ‘‘खदीजा बीबी, तुम अपने देवर से इस कदर खपफा क्यों हो?’’
‘‘यह एक लम्बी चौड़ी दास्तान है जनाब।’’ वह टालने वाले अंदाज में बोली, ‘‘पिफर कभी पुफर्सत में सुनाउफंगी। पहले आप मेरे खाविंद का मसला हल कर दें।’’ एक लम्हे के अंतराल के बाद वह उदास लहजे में बोली, ‘‘बस इतना समझ लें थानेदार साहब, आज तक मुझे ससुराल वालों से कोई सुख नहीं मिला।’’
मैं खामोशी से उस दुखी औरत के बारे में सोचने लगा।
कुछ लोगों के चेहरे ऐसे होते हैं, जिन्हें देखते ही ऐसा लगता है कि वह दूसरों के जुल्मों-सितम का शिकार हैं। ऐसा हो या न हो, पिफर भी उनके चेहरों से यही जाहिर होता रहता है। इस किस्म के हमेशा के मजलूम चेहरों की बात अलग है, लेकिन खदीजा ऐसी बला की खूबसूरत और तुरहदार औरत थी कि उसे दुखी और उदास देखना बड़े दुख की बात थी। इन लम्हों में, मैं खदीजा के लिए अपने दिल में बेपनाह हमदर्दी महसूस कर रहा था।
खदीजा का घर किला लक्ष्मण सिंह के ठीक बीच में स्थित था। हमारा तांगा जिस-जिस गली से गुजरा, लोगों ने हैरत से हमें देखा। मैं और ए.एस.आई. मुराद यूनिपफार्म में थे। पुलिस की वैसे ही वहशत होती है और हम सुबह ही सुबह गांव पहुंच गए थे। मैंने महसूस किया कि जब तक हम खदीजा के घर तक पहुंचते, मुमताज शेख वाले तांगे में दो-तीन और लोग भी सवार हो गए थे।
हम घर के अंदर दाखिल होने लगे तो पिफर एक समस्या आ खड़ी हुई। मुमताज की कोशिश थी कि वह भी अंदर आएगा, लेकिन खदीजा ने इसका सख्त विरोध् किया, चुनांचा मुझे उसकी ख्वाहिश का आदर करते हुए उसे बाहर ही रोक देना पड़ा। मैंने थोड़े लफ्रजों में ए.एस.आई. को जरूरी हिदायत दीं और कहा, ‘‘मुराद, तुम इध्र ही घर के बाहर रूको और मेरी इजाजत के बगैर किसी को अंदर नहीं आने देना।’’
खदीजा के घर के सामने कई लोग जमा हो गए थे। शायद यह बात पूरे गांव को ही मालूम हो गई थी कि वहां पुलिस आई है। मैंने वहां मौजूद लोगों पर एक गहरी निगाह डाली और मेरी तजुर्बेकार नजर ने पलक झपकते ही दो आदमियों को चुन लिया। उनके नाम पफरमान अली और वहीद उल्लाह थे। वह अपने हुलिए और रख-रखाव से ठीक-ठाक दिखाई देते थे। मैंने उन्हें साथ लिया और खदीजा के घर में दाखिल हो गया।
वह एक रईस जमींदार का घर था। सेहन कापफी बड़ा था और उसमें एक पेड़ लगा था। मेरी ख्वाहिश पर खदीजा मुझे उस कमरे तक ले गई, जो इम्तियाज शेख के घोड़े के लिए आरक्षित था। वह कमरा बड़े से गेटनुमा दाखिले दरवाजे के करीब ही स्थित था। खदीजा की जुबानी मुझे यह भी मालूम हुआ कि उनके अन्य मवेशी घर के पीछे बाड़े में रहते थे, लेकिन खदीजा की जुबानी मुझे यह भी मालूम हुआ कि अन्य मवेशी को छोड़कर इम्तियाज अपने सपफेद घोड़े को हमेशा अपने घर के अंदर ही बांध्ता था कि उसके लिए एक खास कमरा भी घर में निर्मित कर रखा था।
मैंने खदीजा से पूछा, ‘‘अब तो बहार का मौसम शुरू हो चुका है। पिफजा में इतनी ठंडक बाकी नहीं रही कि जानवरों को अंदर बांध जाए। पिफर तुमने घोड़े को कमरे के अंदर क्यों रखा हुआ है?’’
‘‘आप उसकी हालत देखेंगे, तो यह बात खुद ही समझ में आ जाएगी।’’ वह सपाट लहजे में बोली।
मैंने जब सपफेद घोड़े को देखा तो खदीजा की बात वाकई मेरी समझ में आ गई। वह सपफेद रंग का एक आकर्षक और सेहतमंद घोड़ा था। उसके जख्म सपफेद रंग में कुछ ज्यादा ही स्पष्ट नजर आ रहे थे। वह इस वक्त कमरे के पफर्श पर बैठा हुआ था। उसके बदन का निचला हिस्सा जख्मों में से चूर था। उनमें से कुछ गहरे जख्म थे। मेरे अंदाजे के मुताबिक वह तेजधर कुल्हाड़ी के जख्म थे। मैंने पफरमान अली और वहीद उल्लाह की मदद से बड़ी मुश्किल से घोड़े को खड़ा किया।
घोड़े की टांगें कपकपाईं और वह किसी बपर्फीले तोदे की तरह बेबसी से पफर्श पर ढेर हो गया। इस लम्हे में मैं यह देखने में कामयाब हो गया कि बदन के अन्य हिस्सों को छोड़कर उसकी टांगें खतरनाक हद तक जख्मी थीं। बेअख्तियार मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘यह बेजुबान घर तक कैसे पहुंचा होगा?’’
‘‘इस बात की तो मुझे भी हैरत है।’’ मुझे अपने पीछे खदीजा की आवाज सुनाई दी। पिफर उस आवाज में एक दर्द सिमट आया, ‘‘पता नहीं, मेरे शौहर के साथ क्या हुआ है।’’
उस वक्त मैं सीध्े तौर पर उस मजबूर और लाचार सपफेद घेाड़े की आंखों में देख रहा था। पता नहीं, यह मेरा वहम था या हालात का असर। बहरहाल, मुझे यूं महसूस हुआ, जैसे वह घोड़ा मुझसे कुछ कहना चाहता हो। मैं कापफी देर तक एकटक उस घोड़े की आंखों में देखता रहा, लेकिन उस एहसास में कोई बदलाव नहीं आया।
काश! मुझे जानवरों की आंखों में नमूदार होने वाले भाव को पढ़ना आता, तो मैं यह जानने में कामयाब हो जाता कि वह बेजुबान मुझसे क्या कहना चाहता है। मुमकिन है कि वह अपने मालिक इम्तियाज शेख के बारे में कोई इत्तिला देना चाहता हो।
उस घोड़े के लिए मेरा दिल हमदर्दी के जज्बात से लबरेज हो गया। खासतौर पर जब मैंने उसे उठाकर खड़ा करने की कोशिश की थी और वह किसी अपाहिज शख्स की तरह कांपता-लरजता जमीन पर गिर गया था। उस दुखी मंजर ने मुझे हिला कर रख दिया था। मेरे जेहन ने मुझे उसी लम्हे पफैसला सुना दिया। मुझे पफौरन इस घोड़े को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध् करानी होगी। इस दौरान वह निरंतर रहम-तलब नजर से मुझे देखता रहा।
पांच मिनट की हंगामी पूछताछ के बाद मैं यह जानने में कामयाब हो गया कि इस इलाके में कोई जानवरों का अस्पताल नहीं है। इस जुस्तजू के नतीजे में एक नाम भी सामने आया कि जहूरी चाचा नाम का एक शख्स जानवरों का इलाज करता है। वह शख्स इस इलाके में डंगर-डॉक्टर के नाम से मशहूर है।
मैंने एक आदमी भेजकर पफौरन डंगर-डॉक्टर जहूरी चाचा को बुलवाया। जहूरी पैंतालीस-पचास साल का तंदुरूस्त और उफंचे कद का शख्स था। वह विभिन्न प्रकार की दवाईयों से भरा एक थैला भी साथ लाया था। मेरी निगरानी में उसने घोड़े का मुआयना किया। पिफर अपने काम में मसरूपफ हो गया।
मैं डंगर डॉक्टर को घोड़े की मरहम-पट्टी करते छोड़कर खदीजा के साथ घर के अंदरूनी हिस्से में आ गया। मैंने पफरमान अली और वहीद उल्लाह को भी अपने हमराह रखा। घोडे़ की हालत और गहरे जख्मों को देखते हुए मुझे यह अंदाजा कायम करने में जरा भी दिक्कत महसूस नहीं हुई कि पफरीदाबाद से किला लक्ष्मण सिंह की तरपफ आते हुए इम्तियाज शेख पर कातिलाना हमला हुआ था और ज्यादा संभावना इस बात की थी कि जब मैं इम्तियाज शेख की तलाश में निकलूंगा तो उसकी जख्म-जख्म लाश से सामना होगा। पिफर भी मैंने अपने इस अंदाजे के बारे में खदीजा को कुछ न बताया।
घर के अंदरूनी हिस्से में खदीजा के इकलौते बेटे अल्तापफ से भी मुलाकात हुई। वह सांवले रंग का पतला-दुबला लड़का था। उसकी उम्र लगभग दस साल रही होगी। अल्तापफ अपने वालिद की रहस्यमयी गुमशुदगी से बेहद परेशान था। मैं खदीजा के साथ कमरे में आ गया, जहां इम्तियाज शेख रात को सोया करता था। इम्तियाज को पेश आने वाले वाक्यात का मुझे अंदाजा हो चुका था, मगर मैं खदीजा के सामने खुलकर इसका इजहार नहीं कर सकता था।
लिहाजा उस कमरे में किसी ऐसी चीज की तलाश में लग गया, जिससे इम्तियाज के किसी दुख्मन का सुराग मिल सके, लेकिन बावजूद कोशिश के भी ऐसा कोई सिरा हाथ न आ सका। मेरे जेहन में यह बात भी मौजूद थी कि इम्तियाज एक मोटी रकम के साथ पफरीदाबाद से रवाना हुआ था। कहीं उस माल व दौलत ने तो उसे किसी मुसीबत में नहीं डाल दिया।
मैंने एक बार पिफर कुरेदकर खदीजा से इम्तियाज के किसी दुश्मन के बारे में पूछा। इस बार भी उसका जवाब नहीं में था। वह परेशान होकर बोली, ‘‘तो आपको इसके बारे में जरूर बताती। खुदा के वास्ते आप इम्तियाज को ढूंढ़ने की कोशिश करें।’’
‘‘मैं इसी कोशिश में लगा हुआ हूं खदीजा बेगम।’’ मैंने ठहरे हुए लहजे में कहा, ‘‘तुम पिफक्र ना करो। मैं बहुत जल्दी उसे तलाश करने में कामयाब हो जाउफंगा।’’
मैंने खदीजा को तसल्ली तो दे दी, लेकिन खुद मुझे अच्छा लहजा खोखला और अल्पफाज अर्थहीन महसूस हो रहे थे। थोड़ी देर के बाद मैंने उसे पफारिग कर दिया और वहां से रूखसत होने के लिए उठ खड़ा हुआ।
जब मैं उसके घर से रूखसत होने लगा तो डॉक्टर डंगर जहूरी चाचा से दोबारा मुलाकात हो गई। वह घोड़े की हंगामी मरहम-पट्टी करके पफारिग हो चुका था। जाने से पहले मैंने एक नजर उस घोड़े को देखना जरूरी समझा। पता नहीं क्यों, एक लम्हाती मुलाकात में मुझे उससे अच्छी मोहब्बत हो गई थी। जब मैं घोड़े के खास कमरे में पहुंचा तो दूसरी जानिब भी ऐसा ही मामला पाया। मुझसे निगाह मिलते ही वह कृतज्ञ नजरों से मुझे देखने लगा। मैंने तसल्ली देने के अंदाज में उसकी पीठ पर हाथ पफेरा तो वह कमजोर आवाज में हिनहिनाया। यह उसका खुशी प्रकट करने का अंदाज था।
मैंने उसकी पीठ थपकते हुए ऐसे संबोध्ति किया, जैसे वह मेरी हर बात समझ सकता है, ‘‘पिफक्र ना करो जवान, तुम बहुत जल्दी दोबारा चलने-पिफरने के लायक हो जाओगे।’’
वह पहले वाले अंदाज में ध्ीरे से हिनहिलाया और अपनी पूंछ हिलाने लगा। मैं उसे और अध्कि तसल्ली और दिलासा देकर कमरे से बाहर निकल आया।
डॉक्टर डंगर को जरूरी निर्देश दिये और खदीजा के घर से बाहर निकल आया। पिफर मैंने ए.एस.आई. की तलाश में इध्र-उध्र नजर दौड़ाई। वह अपने तांगे के करीब खड़ा मुमताज शेख के साथ बातें कर रहा था। मैं सुबक कदमों से चलते हुए उनके पास पहुंच गया। मुमताज शेख मुझे देखकर चौंका और मुझे संबोध्ति करते हुए कहा, ‘‘थानेदार साहब, यह तो बड़ी ज्यादती वाली बात है। खदीजा ने तो कुछ नहीं बताया, लेकिन अब यह बात ढकी-छुपी नहीं रही कि भाई साहब कहीं गायब हो गए हैं।’’ उसका इशारा अपने बड़े भाई इम्तियाज शेख की तरपफ था, ‘‘उनका जख्मी घोड़ा आज सुबह यहां पहुंचा है। खुदा ना करे, भाई साहब को कोई हादसा तो पेश नहीं आ गया?’’
‘‘मुमताज शेख, मैं भी तुम्हारे ही अंदाज में सोच रहा हूं।’’ मैंने कहा।
‘‘ जनाब, मेरा भाई गुम हो गया और मुझे ही इस मामले से अलग रखा जा रहा है। आपने भाभी खदीजा का अंदाज देखा है।’’ वह आक्रोश भरे लहजे में बोला, ‘‘यह ज्यादती नहीं है तो और क्या है?’’
उसका यह विरोध् जायज था। मैंने ठहरे हुए लहजे में कहा, ‘‘मुमताज शेख, मैं नहीं जानता, खदीजा से तुम्हारा क्या मतभेद है, लेकिन पिफक्र ना करो। मैं तुम्हें इम्तियाज शेख की गुमशुदगी वाले मामले से अलग नहीं रखूंगा।’’
तभी उसने चौकन्ना नजरों से खदीजा के घर के गेट की जानिब देखते हुए बोला, ‘‘मेरा ख्याल है, यहां खड़े होकर बातें करना मुनासिब नहीं। अगर खदीजा भाभी ने देख लिया तो कोई मुसीबत खड़ी कर देगी। वह पिफतना पफैलाने में बहुत माहिर है।’’
उसने अपनी भाभी के बारे में जिन ख्यालात का इजहार किया, उससे यह समझने में मुझे दुश्वारी ना हुई कि वह भी अपने दिल में उस औरत के लिए अच्छे और भलाई के जज्बात नहीं रखता था। यह बात सही थी कि उन दोनों हाथों से ताली बज रही थी, जिनमें एक हाथ खदीजा का और दूसरा मुमताज शेख का था।
मैंने उसकी आंखों में देखते हुए तरकीब पेश की, ‘‘क्या ख्याल है थाने चलें?’’
मेरे अंदाज ने उसे गड़बड़ा दिया। वह घबराहट भरे लहजे में बोला, ‘‘आप मुझे थाने क्यों लेकर जाना चाहते हैं?’’
‘‘तुम्हें थाने जाते हुए खौपफ क्यों महसूस हो रहा है? क्या तुमने कोई जुर्म किया है?’’
‘‘नहीं जनाब, मैंने कोई जुर्म नहीं किया।’’ वह जल्दी से बोला।
‘‘पिफर डरने की कोई बात नहीं, तांगे में आ जाओ।’’
थोड़ी-सी झिझक के बाद वह तांगे में सवार हो गया। थाने की जानिब तांगा बढ़ने लगा। रास्ते में, मैंने मुमताज शेख को उसके बड़े भाई इम्तियाज शेख के बारे में विस्तार से बता दिया। यह तमामतर बातें वही थीं जो खदीजा की जुबानी मुझ तक पहुंची थीं। यानी इम्तियाज का पफरीदाबाद जाना वहां के एक जमींदार इरशाद अहमद से मिलना और तीन हजार की रकम के साथ पफरीदाबाद से किला लक्ष्मण वापस आना। उसने मेरी बातें गौर से सुनीं और मेरे खामोश होने पर बोला, ‘‘मैं महसूस कर रहा हूं, भाई साहब के साथ जो भी संगीन वाक्या पेश आया है, वह पफरीदाबाद और किला लक्ष्मण सिंह के बीच पेश आया है। हमें इस इलाके का अच्छी तरह जायजा लेना चाहिए। मुझे यह राहजनी की कोई वारदात मालूम होती है? तीन हजार रुपए कोई मामूली रकम नहीं होती।’’
थाने में पहुंचकर मैंने मुमताज शेख से कहा, ‘‘गांव से दो आदमी अपने साथ लो। इध्र से मैं एक पुलिस टीम तुम्हारे साथ रवाना कर दूंगा। तुम उन सबके साथ जंगल में अपने भाई की तलाश करना।’’
‘‘मंजूर है।’’ वह सीना ठोंकते हुए बोला, ‘‘मैं अभी गया और अभी आया।’’
‘‘लेकिन यह बात तुम्हारी भाभी खदीजा को मालूम नहीं होनी चाहिए।’’ वह सिर हिलाता हुआ वापस चला गया। मैंने ए.एस.आई. मुराद से कहाµ मुराद, एक बात जेहन में रखना कि मुमताज शेख भी संदिग्ध् लोगों की लिस्ट में शामिल है। खदीजा के रवैये से जाहिर होता है, दोनों भाईयों के दरम्यान खुशवार ताल्लुकात नहीं थे। तुम्हें यह सब मैं इसलिए बता रहा हूं कि उसकी निगरानी भी तुम ही करोगे। यह टीम भी तुम्हारे सुपुर्द है, क्योंकि मैं एक कांस्टेबल के साथ पफरीदाबाद जा रहा हूं।’’
‘‘पफरीदाबाद...? वह क्यों...?’’ उसने पूछा।
‘‘इम्तियाज की तलाश के सिलसिले में इरशाद अहमद नामी एक शख्स से मुलाकात बहुत जरूरी है। मुझे मालूम है कि मैं वहां से अध्कि मालूमात हासिल करके लौटूंगा।’’
मैंने एक होशियार कांस्टेबल को साथ लिया और पिफर हम दोनों घोड़ों पर सवार होकर पफरीदाबाद की तरपफ रवाना हो गए।
इरशाद अहमद पफरीदाबाद का छोटा-सा जमींदार था। उससे लम्बी गुफ्रतगू के बाद सिपर्फ यह मालूम हुआ कि वह गुमशुदगी वाले दिन उससे तीन हजार रुपए ले गया था। उसका कोई दुश्मन तो नहीं था। हां, मंडीगंज में मसूद अली उपर्फ सूदी शाह नाम का एक दोस्त जरूर रहता है।
मैं सूदी शाह से मिला तो उसने बताया कि उस रोज उसकी इम्तियाज शेख से मुलाकात ही नहीं हुई थी। उसका मुंशी अपफजल उससे जरूर मिला था और उसने उसे तूती पहलवान के साथ वापस लौटते जरूर देखा था। तूती पहलवान इलाके भर में बदनाम शख्स था। उसके अड्डे पर शराब, जुआ और मुजरा आम बात थी।
मैं सूदी शाह की रहनुमाई में तूती पहलवान के अड्डे पर जा पहुंचा। वहां तूती पहलवान तो नहीं मिला, हां उसके एक गुर्गे मंजूरे ने शौकत नाम के एक बदमाश से मुझे मिला दिया। मैंने शौकत से सख्ती से पूछताछ की तो उसने सभी कुछ उगल दिया, जो उसे मालूम था।
शौकत नामी बदमाश तूती पहलवान का राईट-हैंड जाना जाता था। उसने बताया कि उस रोज इम्तियाज शेख को लेकर तूती पहलवान अड्डे पर आया था, मगर कुछ देर बाद वह अकेला ही वापस चला गया था। कुछ देर बाद ही तूती पहलवान भी एक घंटे के लिए गायब हो गया था।
मैं मंजूरे और शौकत को अपने साथ थाने ले आया और सूदी शाह की मदद से वहां ऐसा इंतजाम कर दिया कि जैसे ही तूती पहलवान वापस लौटता, उसे पफौरन ही ध्र लिया जाता।
ए.एस.आई. मुराद पुलिस टीम और मुमताज शेख के साथ जंगल की खाक छानकर लौट आया था। उन्हें इम्तियाज शेख का कोई सुराग हाथ नहीं लगा था। अलबत्ता मुमताज शेख ने अपनी भाभी खदीजा पर शक जरूर जाहिर किया था कि उसका अपने शौहर की गुमशुदगी में हाथ हो सकता है।
मैं जानता था कि मुमताज शेख का यह शक नपफरत का नतीजा है, जबकि खदीजा जैसी खूबसूरत हसीना बिल्कुल मासूम और पाक है। उसका इकलौता बेटा अल्तापफ भी अपनी मां की तरह मासूम और नेक था और वह भी अपने वालिद के लिए परेशान था। इम्तियाज शेख का सपफेद घोड़ा बहुत तेजी से ठीक हो रहा था और वह मुझसे बहुत घुलमिल गया था।
अगले रोज तूती पहलवान को गिरफ्रतार कर लिया गया। मैंने जब सख्ती से उससे पूछताछ की तो उसने सब कुछ उगल दिया कि उसने ही इम्तियाज शेख को जुआ खेलने के लिए उकसाया था। पहले एक-दो दांव उसे जिता दिए, पिफर उसकी तमाम रकम जुए में उसने जीत ली थी। मेरे लाख पूछने के बाद भी उसने यह इकरार नहीं किया कि उसकी गुमशुदगी में उसका कोई हाथ है।
दो दिन और उसका अगला दिन भी किसी कामयाबी के बगैर ही गुजर गया। हमने तूती पहलवान पर थर्ड डिग्री का भी इस्तेमाल किया, लेकिन उसने इम्तियाज की गुमशुदगी के सिलसिले में कोई इकरारी बयान नहीं दिया। इस सूरतेहाल ने मुझे उलझाकर रख दिया।
मैं थाने से उठा तो इम्तियाज शेख के बारे में ही सोच रहा था और नींद की आगोश में पहुंचने तक यह परेशानकुन सोच मेरे जेहन से चिपकी रही।
अगले रोज जब मैं जागा तो सुबह के आगाज के साथ ही मेरे जेहन में एक आइडिया चमका। इस आइडिए के बारे में मैंने सोचा नहीं था। बस खुद ही यह ख्याल चुपके से जेहन में उभर आया था। इस ख्याल पर अमल करना पफायदेमंद साबित हुआ था।
मैंने किसी सीनियर अपफसर से यह कहावत सुनी थी कि चोरीशुदा चीज जब किसी भी तौर पर बरामद नहीं हो रही हो तो खुद को उस चीज की जगह रखकर सोचना चाहिए। इस सिलसिले में मेरे उस सीनियर को एक घोड़े का सुराग नहीं मिल रहा था। आखिर उसने खुद को घोड़ा तसव्वुर कर लिया और यह सोचने लगा, अगर उसके साथ घोड़े वाले हालात पेश आ जाएं तो वह कहां जाएगा। इस कोशिश में उसे कामयाबी हासिल हुई और वह ‘घोड़ा’ बनकर आखिर घोड़े तक पहुंच गया।
जिस केस ने मेरा दिमाग घुमा रखा था, उसमें कोई घोड़ा तो नहीं गुम हुआ था, बल्कि घोड़े का मालिक पिछले पांच-छह रोज से गायब था। मेरे जेहन ने पफौरन ही इस आइडिए में थोड़ा-सा बदलाव किया और मैं तैयार होकर खदीजा बेगम के घर पहुंच गया। ए.एस.आई. मुराद भी मेरे हमराह था और हम घोड़ों पर सवार होकर वहां गए थे।
खदीजा ने रोज की तरह हमारा स्वागत किया। मैं उस कमरे की जानिब बढ़ गया, जिसके अंदर इम्तियाज शेख का सपफेद घोड़ा बंध हुआ था। मुझ पर नजर पड़ते ही घोड़े बड़े जोश में हिनहिनाया। उसके जख्म बड़ी हद तक ठीक हो चुके थे। इस वक्त वह अपने पांव पर खड़ा था।
उसी वक्त ए.एस.आई. ने मेरे कान में सरगोशी की, ‘‘मलिक साहब, यह घोड़ा तो आपको पहचानने लगा है।’’
मैं मुराद की बात को नजरअंदाज करके घोड़े की तरपफ बढ़ा। वह भी मेरी तरपफ लपका। अंदाज ऐसा ही था, जैसे कमरे से बाहर निकलना चाहता हो। मैंने उसकी पीठ थपकते हुए कहा, ‘‘पिफक्र ना करो जवान, मैं तुम्हारी रस्सी खोल रहा हूं। तुम मेरी रहनुमाई करोगे कि तुम्हारा मालिक किस जगह तुमसे बिछड़ा था।’’
वह शांत होकर अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से मुझे देखने लगा।
यह तो मुमकिन नहीं था कि वह इंसानी जुबान को समझ रहा हो, लेकिन उसके व्यवहार से यही जाहिर हो रहा था। बहरहाल, जो भी था, उसको नाम नहीं दिया जा सकता। शायद हमारे बीच कोई रूहानी रिश्ता कायम हो चुका था।
ए.एस.आई. मुराद को मैं अपने मंसूबे से आगाह कर चुका था। खदीजा को भी मैंने थोड़े अल्पफाज में अपने प्रोग्राम के बारे में बताया था और सपफेद घोड़े को अपने साथ ले जाने की बात की थी। वह बड़ी आसानी से मेरी बात समझ गई।
बोली, ‘‘जनाब, यह तो आपको पहली पुफर्सत में ही करना चाहिए था।’’
खदीजा से इजाजत मिलते ही हम उस घने जंगल की तरपफ रवाना हो गए, जो पफरीदाबाद और जिला लक्ष्मण सिंह के दरम्यान पाया जाता था। मैं और ए.एस.आई. मुराद अपने-अपने घोड़ों पर सवार थे, जबकि सपफेद घोड़ा बगैर किसी सवार के आगे बढ़ रहा था। जब तक हम आबादी के अंदर रहे, मैंने घोड़े की लगाम थामे रखी। जंगल की तरपफ जाने वाले रास्ते पर पहुंचते ही मैंने उसकी लगाम छोड़ दी।
पिफर बड़े दुलार से कहा, ‘‘यहां से तुम्हारा काम शुरू होता है जवान, तुम आगे-आगे चलोगे और सीध्े वहां पहंुचोगे, जहां तुम्हारे मालिक इम्तियाज शेख को कोई हादसा पेश आया था।’’
उस बेजुबान ने बड़े ध्यान से मेरी बात सुनी और हिनहिनाकर हुक्म की तामील का यकीन दिलाया और पिफर खामोशी से एक जानिब बढ़ गया।
ए.एस.आई. ने हैरत का इजहार करते हुए कहा, ‘‘मलिक साहब, मैंने ऐसा पफरमाबरदार घोड़ा पहले कहीं नहीं देखा।’’
‘‘मैं भी जिन्दगी में पहली बार देख रहा हूं।’’ मैंने गंभीर लहजे में कहा।
वह संजीदगी से बोला, ‘‘इसकी विश्वास भरी चाल से अंदाजा होता है, यह हमें किसी मंजिल पर पहुंचाकर ही दम लेगा।’’
‘‘अल्लाह तुम्हारी जुबान मुबारक करे।’’ मैंने कहा।
‘‘हमें पहले इस घोड़े से मदद लेने का ख्याल क्यों नहीं आया?’’ उसने पूछा।
‘‘मुराद, कुदरत का कोई काम वक्त से पहले नहीं होता।’’ मैंने सोच में डूबे लहजे में कहा, ‘‘यह भी तो देखो, यह बेजुबान पहले चलने के काबिल कहां था। मुझे यूं महसूस हो रहा है, हम अपनी मंजिल के बहुत करीब हैं।’’
आध्े घंटे बाद मेरा यह यकीन सच में बदल कर सामने आ गया। उस सपफेद घोड़े ने हमें नहर के किनारे पहुंचाया और थोड़ा आगे नहर के साथ-साथ जाते हुए एक गड्ढे के पास जाकर रुक गया। हम अपने घोड़ों से नीचे उतर आए।
ए.एस.आई. ने कहा, ‘‘मलिक साहब, यह हमें कुछ बताने की कोशिश कर रहा है।’’
घोड़ा बार-बार गड्ढे की जानिब मुंह करके खास अंदाज में हिनहिना रहा था। उस गड्ढे में पानी भरा हुआ था। मेरे लिए घोड़े का बस इतना ही इशारा कापफी था। इसके बाद मुझे अपनी अकल और अध्किार के घोड़े दौड़ाने थे... और मैंने ऐसा ही किया।
मैंने पफौरन ही ए.एस.आई. को थाने भेजकर कुछ पुलिसकर्मियों को वहां बुला लिया। पिफर दोपहर तक उस गड्ढे का पानी निकालने के बाद सतह से इम्तियाज शेख लाश को बरामद कर लिया। उसके जिस्म पर अनेक गहरे जख्मों के निशान मिले। शायद यह तेजधर कुल्हाड़ियों के जख्म थे, जो उसे बड़ी बेदर्दी से उसे लगाए गए थे।
इम्तियाज शेख के लिबास से उलझी हुई सोने की एक जंजीर भी गड्ढे से बरामद हुई। मैंने वह जंजीर खदीजा को दिखाई तो उसने सापफ इंकार कर दिया। वह जंजीर इम्तियाज की नहीं थी।
इसके बाद भी मैंने उस जंजीर के मालिक की तलाश जारी रखी और आखिरकार उसके मालिक तक पहुंचने में कामयाब हो गया। यह काम करने में मुझे चार-पांच रोज लग गए थे। इस दौरान इम्तियाज शेख को सुपुर्दे-खाक किया जा चुका था।
उस जंजीर का मालिक कोई और नहीं, बल्कि मकतूल का छोटा भाई मुमताज शेख था। मैंने उसे गिरफ्रतार करके तफ्रतीश की चक्की में पीस डाला। पिफर आखिरकार उसने इकबाल-ए-जुर्म कर ही लिया।
उसने बताया था कि उसे किसी तरह तीन हजार की रकम के बारे में सुनगुन मिल गई थी। वह भाई और भाभी के व्यवहार से सख्त नाराज था। उसने जंगल के बीच में इम्तियाज शेख को लूटना चाहा। इस कार्यवाही के लिए उसने अपने दो साथियों का भी इंतजाम किया था। उन तीनों ने नकाब लगा रखी थी। उसके दोनों साथी वारदात अंजाम देने के लिए आगे-आगे थे और वह उनके पीछे-पीछे था।
इम्तियाज के पास से जब कोई रकम बरामद न हुई तो उन्होंने नाकाम होकर दरिंदगी का प्रदर्शन किया और कुल्हाड़ियों के घातक वार करके उसे जान से मार डाला। इस जालिमाना कार्यवाही में इम्तियाज शेख का सपफेद घोड़ा भी शदीद जख्मी होकर वहां से भाग गया और यही जख्मी सपफेद घोड़ा बाद में मुमताज की गिरफ्रतारी का सबब बन गया।
मैंने मुमताज शेख की निशानदेही पर उसके दूसरे साथियों को भी गिरफ्रतार करके जेल में ठूंस दिया। वह अदालत से सजा पाकर आजीवन चक्की पीसने लगे।
आखिर में मैं यह भी बताता चलूं कि अल्तापफ ने मुझे अपनी जिन्दगी के दूसरे दौर के जो हालात सुनाए, वह अपनी जगह शिक्षाप्रद थे। यह दास्तान भी मैं पिफर कभी आपकी खिदमत में पेश करूंगा, अगर जिन्दगी ने वपफा की तो...।