Tuesday, March 12, 2013

फीरोजा बाई तवायफ थी, पर उसकी कोख से जन्म लेने वाली जरीना एक शरीफजादे की औलाद थी।

तवायफ तो मरते दम तक तवायफ ही रहती है

-आसिम नसीम बट




फीरोजा बाई तवायफ थी, पर उसकी कोख से जन्म लेने वाली जरीना एक शरीफजादे की औलाद थी। फीरोजा ने तो बेटी को अपनी परछाई से दूर रखने की कोशिश की, पर उसकी तकदीर पर भी मां की परछाई पड़ ही गई....

कहते हैं कि अपने दुखों में दूसरों को शरीक करने से दुखों का एहसास कम हो जाता है, लेकिन कई दुख ऐसे भी होते हैं, जिनका बोझ अपनी रूह पर उठाए अकेले ही जिंदगी की राहों पर चलना पड़ता है। मेरे दुख भी ऐसे ही हैं।
मैंने जिस घर में आंख खोली, उस जैसे घर की तमन्ना हर लड़की को होती है। कीमती चीजों और जिंदगी की जरूरतों से सजे विशाल कमरे, गुल-बूटों में सजा लंबा-चौड़ा लॉन। मगर मेरी जिदंगी का एक पहलू अतृप्त था, जिसका एहसास मुझे होश संभालते ही शिद्दत से हुआ था। मुझे घर के किसी भी प्राणी का पूरा अपनापन हासिल नहीं था। मेरे वालिद पुराने जमींदार थे। उनका ज्यादातर वक्त कोठों पर गुजरता था।
अब सोचती हूं, तो मुझे हैरत होती है कि आखिर अम्मी और अब्बू के दरम्यान कभी इस विषय पर तकरार क्यों नहीं होती थी। अम्मी अपने उदास चेहरे और सोच में डूबी-डूबी आंखों के साथ वह बच्चा लगती थीं, जो अपना पसंदीदा खिलौना टूट जाने के बाद रो-धोके चुप हो चुका हो।
मेरी एक बड़ी बहन और दो बड़े भाई थे, यानी मैं सबसे छोटी थी और सबसे अलग-थलग भी। शायद इसकी वजह यह भी थी कि मैं शक्लो-सूरत में अपने बहन-भाइयों से कमतर थी।

उन दिनों मैं फर्स्ट ईयर में थी, जब अकील मेरी जिंदगी में दाखिल हुआ। वह हमारा रिश्तेदार था और हम एक-दूसरे के घर आते-जाते थे। अकील का साथ पाकर मेरी बेख्वाब और थकी-थकी सी जिंदगी को राहत-सी महसूस हुई। उसकी दिलकश शख्सियत और हसीन बातों ने मुझे इंद्रधनुष जैसे रंगीन सपनों का जाल बुनना सिखा दिया। मैं ख्वाबों की रेशमी डोर थामे इतनी दूर निकल गई कि जब मेरे तसव्वुर के बुत पाश-पाश हुए, तो मेरी आंखें भर आईं। दरअसल, अकील ने मेरे अरमानों को कुचलकर किसी और से शादी कर ली थी।
उस दिन के बाद मेरा दिल पत्थर बनकर रह गया। मेरे दिल में आरजू का कोई गुंचा न खिल पाया, कोई अरमान करवटें न ले सका। खुशी और गम को महसूस करने की खूबी भी शायद मुझमें मुर्दा हो चुकी थी। सत्रह साल की उम्र में ही मेरे एहसास बूढ़े हो गए थे।
उन्हीं दिनों, जब मेरे दिल और दिमाग उदासी के पड़ावों से गुजर रहे थे, अब्बू भी साथ छोड़ गए। कभी-कभी जब वह नशे की हालत में न होते, तो मेरे सिर पर हाथ फेरकर स्नेहभरी दो-चार बातें कर लिया करते थे।
अब्बू की मौत पर अफसोस करने कई तवायफें भी हमारे घर आई थीं। उनमें से एक तवायफ फीरोजा भी थी। अब्बू का जिक्र आते ही उसकी आंखों में आंसू आ जाते थे, जिन्हें वह बड़ी खामोशी से अपने आंचल में जज्ब कर लिया करती थी।
उस रोज अब्बू का चालीसवां था। मैं मेहमानों से उकताकर बोझल दिल के साथ अपने कमरे में मसहरी पर ढेर थी। अचानक मुझे लगा कि कोई दरवाजे में खड़ा मुझे देख रहा है।
मैंने करवट बदलकर देखा। दरवाजे की चौखट थामे फीरोजा खड़ी थी। मैंने उसे अंदर आने का इशारा किया।
जब वह थके-थके कदमों से मेरे करीब आई, तो मैंने पूछा, ‘‘फीरोजा बाई, क्या बात है?’’
वह तड़पकर बोली, ‘‘तुम तो मुझे फीरोजा बाई न कहो।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इसलिए कि...।’’
‘‘बोलो, रुक क्यों गईं?’’ मैंने बेचैनी से कहा।
‘‘इसलिए कि मैं...तुम्हारी मां हूं।’’ उसके लहजे में चट्टानों जैसी मजबूती आ गई।
मेरे चारों तरफ धमाका-सा हुआ, ‘‘मैं...मैं तुम्हारी बेटी हूं!’’
‘‘हां, तुम मेरे जिगर का टुकड़ा हो, जिसे तुम्हारे बाप ने रुसवाइयों के खौफ से यहां की ऊंची चहारदीवारी में छुपाया था।’’
मेरा दिमाग सुन्न-सा होने लगा। वह कहे जा रही थी, ‘‘मैं तवायफ जरूर हूं, लेकिन मेरे दिल में भी मां का दिल है। इसीलिए मैं तुम पर यह राज खोलने पर मजबूर हूं कि तुम्हारे बाप ने बाकायदा मुझसे निकाह किया था।’’
मैंने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘तुम कैसी मां हो, जिसने महज रुसवाइयों के खौफ से अपनी बेटी को 17 साल तक बेगानों में फेंके रखा?’’
फीरोजा बाई ने झपटकर दीवानों की तरह मुझे सीने से भींच लिया, ‘‘मुझे मालूम नहीं था बेटी कि तुम मुझे मां कहने का हौसला रखती हो, वरना मैं तुम्हें कभी अपने से जुदा न करती।’’ वह जज्बात की शिद्दत से कांप रही थी। उसके सीने से लगकर मुझे महसूस हो रहा था, जैसे तपते रेगिस्तान में मुझ पर अचानक शबनमी फुहार पड़ने लगी हो।
मैंने पूछा, ‘‘तुम मुझे अपने साथ ले जाना चाहती हो?’’
‘‘हां।’’
‘‘ताकि मेरे पैरों में घुंघरू बांधकर तबले की थाप पर नचाओ, और शहर के रईसों से मेरी मुंहमांगी कीमत वसूल करो।’’
‘‘बस, जरीना, खुदा के लिए खामोश हो जाओ। तुम मेरे लिए उस शख्स की निशानी हो, जिससे मैंने बेपनाह मुहब्बत की। तुम कभी नहीं नाचोगी। मैं तुम्हारे हुस्न को हवस की हवा नहीं लगने दूंगी। हालात ने मुझे तवायफ जरूर बना दिया है जरीना, लेकिन खुदा की कसम! मेरी रूह तवायफ नहीं है।’’
और फिर अगले रोज घर में एक तूफान आ गया, जब फीरोजा बाई मुझे लेने आईं और मैं उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गई। बड़े अजीब हालात थे। घर के सब प्राणी दीवानखाने में मौजूद थे, जिन्हें मैं अब तक अम्मी कहती आई थी, वह बड़ी उदास नजर आ रही थीं।
बड़े भाई का चेहरा लाल भभूका हो रहा था। वह मेरी तरफ देखकर बोले, ‘‘जरीना, तुम बालिग हो और कानूनी तौर पर किसी के भी साथ रहने के लिए स्वतंत्र हो, लेकिन यह मक्कार औरत तुम्हारे पैरों में घुंघरू भी बंधवा सकती है, क्योंकि यह तवायफ है।’’

‘‘इन्हें तवायफ मत कहो, भैया। तुमने इन्हें तवायफ की हैसियत से जाना है, मगर इनके दिल की गहराइयां नहीं देखी,’’ मैंने तड़प कर कहा, ‘‘यह तुम्हारी भी तो मां है। फर्क सिर्फ यह है कि अब्बू ने इनसे चोरी-छुपे निकाह किया था और अम्मी को इस घर में शहनाइयों की गूंज में लाया गया था।’’
उसके बाद तर्क-वितर्क की एक लंबी बहस हुई। कुदरत इंसान के बारे में जो फैसला कर लेती है, वह बार-बार उसकी जुबान पर आता है। मेरा फैसला भी यही रहा, ‘‘मेरी मां तवायफ है, तो क्या हुआ, वह मुझे तो तवायफ बनाना नहीं चाहती। मैं उसकी बेटी बनकर रहूंगी।’’
बड़े भैया चिढ़कर बोले, ‘‘तुम्हारे माथे पर तवायफजादी होने की मोहर लग गई, तो शरीफ खानदानों में तुम्हें कोई नहीं पूछेगा।’’
मैंने तड़पकर कहा, ‘‘शरीफ खानदान में रहकर भी मुझे क्या मिला है? दौलत की झनकार ने मेरी मुहब्बत मुझसे छीन ली और तवायफ भी दौलत ही के लिए बिकती है। फिर मुजरिम हमेशा तवायफ ही क्यों रहती है?’’
इसके बाद किसी ने कोई बात नहीं की। किसी को गुमान भी था कि हमेशा खामोश रहने वाली लड़की इतनी बड़ी बगावत कर सकती है।
मेरी मां अपने वादे पर पूरी उतरी। उसने मुझे एक अलग मकान में रखा, जहां एक बूढ़ा नौकर और नौकरानी मेरी सेवा के लिए मौजूद थे। मेरी मां जाने लगी, तो मैंने कुछ उलझन में पूछा था, ‘‘आप अब भी कोठे पर जाना चाहती हैं?’’
‘‘बेटी,’’ वह बोलीं, ‘‘कोई भी तवायफ आसानी से कोठा नहीं छोड़ सकती।’’

एक हफ्ता मैं उसी मकान में रही। इस दौरान मां रोज मिलने आती रही। उसके बाद उसने मुझे कॉलेज के हॉस्टल में दाखिल करा दिया।
वक्त की धारा बहती रही। मैंने पी.एम.टी. का इम्तिहान पास करके मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले लिया।
हॉस्टल की अकेली, नीरस जिंदगी और उकता देने वाली दिनचर्या मुझे रास आ गई थी। मैं खामोश-खामोश और सबसे अलग-थलग रहती थी। शायद मैं एकमात्र लड़की थी, जिससे दो साल के दौरान कोई मिलने नहीं आया था। छुट्टियां हुई, तो लड़कियां अपने वालिदेन से मिलने के लिए रवाना होने लगीं, लेकिन मुझे अपनी मां से मिलने जाते हुए खौफ महसूस हो रहा था। जैसे कोई मेरे पीछे आकर यह जान लेगा लेगा कि मेरी मां तवायफ है। कई बार लड़कियों ने जिद की कि वे मेरे साथ चलेंगी। मेरा घर देखेंगी। ऐसे मौकों पर मैं बहाने बनाकर अपना कार्यक्रम निरस्त कर देती थी।
उन्हीं दिनों मैंने महसूस किया कि क्लास का एक लड़का गयास मुझमें दिलचस्पी लेने लगा है। वह दूसरों की तरह ख्वाहमख्वाह मुझसे मुखातिब होने की कोशिश नहीं करता था। कभी लेक्चर सुनते हुए, रीडिंग-रूम या लॉन में बैठे हुए मुझे एहसास होता कि दो आंखें मुझे देख रही हैं।
एक दिन हम रीडिंग-रूम में आमने-सामने बैठे थे। वहां लाइब्रेरियन के सिवा कोई न था। अचानक गयास ने मुझे मुखातिब किया, ‘‘जरीना साहिबा। डिस्टर्ब करने के लिए माफी चाहता हूं।’’ वह बोला, ‘‘दो बरस से एक सवाल मेरे सीने में मचल रहा है। प्लीज, मुझे बताएं कि आप इतनी अलग-थलग क्यों रहती हैं? क्या मैं पूछ सकता हूं कि इन आंखों में तैरने वाली धुंधली-धुंधली परछाइयां कौन-से गमों की हैं?’’
वह शायद उसके सवाल की तह में मचलता हुआ खुलूत था, जिसने मेरा वजूद हिला दिया। मेरे दिल में उबाल-सा उठा, लेकिन मैंने जब्त से काम लिया। फिर मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘यह आपका वहम है कि मुझे कोई गम है। मैं बचपन से ही ऐसी हूं। वैसे आपको इस किस्म के सवाल करने की जरूरत ही क्या है?’’
‘‘आप सही कहती हैं। आज के दौर में किसे इतनी फुर्सत है कि वह दूसरों के दिल में उतरने की कोशिश करे, लेकिन थोड़ी देर के लिए फर्ज कर लीजिए कि मैं आपका हमदर्द हूं।’’
‘‘इस दुनिया में कौन किसका हमदर्द होता है।’’ मैंने जहर भर लहजे में कहा। फिर हमारे बीच लंबी बहस छिड़ गई।
उसके बाद हम मिलने लगे। गयास की दोस्ती ने मेरी रूह पर छाया हुआ तन्हाई का एहसास बहुत कम कर दिया। मैं कुछ खुश रहने लगी। इन मुलाकातों ने हमें इतना करीब कर दिया कि मैं महसूस करने लगी कि गयास मेरी जरूरत बन गया है।
एक रोज गयास ने मुझसे कहा, ‘‘जरीना, मैं तुमसे मुहब्बत करने लगा हूं।’’
मेरे कंठ में कड़वाहट-सी फैल गई। यादों के क्षितिज पर अकील का चेहरा उभर आया और मैंने बड़ी तल्खी से कहा, ‘‘तुम मर्दों ने यह वाक्य गोया रटा हुआ है। इसे इतनी आसानी से कह डालते हो, जैसे मौसम के खुशगवार होने का जिक्र किया जाता है, लेकिन जब आजमाइश का वक्त आता है, तो बड़ी आसानी से हार मान लेते हो। तुम सब मुहब्बत नहीं, हवस के भूखे हो।’’
गयास हक्का-बक्का रह गया। मैं अपनी धुन में बोलती गई, ‘‘तुम दावा कर रहे हो कि तुम्हें मुझसे प्यार हो गया है, लेकिन अगर आज मैं तुम्हें बताऊं कि मैं तलाकशुदा हूं या मैं किसी इंतहाई घटिया खानदान से ताल्लुक रखती हूं या मेरे साथ मेरी बहुत सारी गलतियां वाबस्ता हैं, तो मुझे यकीन है कि तुम्हारी सारी मुहब्बत हवा हो जाएगी। आखिर यह किस किस्म की मुहब्बत है, जो भयानक सच्चाइयों से टकराकर बिखर जाती है।’’
‘‘तुमने आम आदमी की बात की है जरीना, और मैं कोई आम आदमी नहीं हूं। मैंने तुम्हें चाहा है। तुम्हारी चाहत की खुशबू मेरी आखिरी सांस तक में बसी रहेगी। चाहे तुम कोई भी हो। तुम अगर मेरी बनना चाहोगी, तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें मेरी बनने से नहीं रोक सकेगी और इस दावे की तस्दीक सिर्फ वक्त करेगा।’’
मैं खिल-खिलाकर हंसी, ‘‘बेफिक्र रहो। मेरे अतीत से कोई गलती बावस्ता नहीं, मैं तलाकशुदा भी नहीं हूं और किसी ऐसे बाप की बेटी भी नहीं हूं, जिसे समाज किसी नजर से कमतर कह सके। इसके बावजूद जिस दिन मैंने तुम्हें कुछ बताया, तो शायद तुम मेरा साथ छोड़ जाओ।’’
‘‘जरीना, काश! तुम मेरे इश्क की गहराई समझ पातीं। मैंने बड़ी तलाश के बाद तुम्हें पाया है।’’ उसने कांपते हाथों से मेरा कंधा थपथपाया और वहां से चला गया।
अगले ही दिन मुझे तार मिला। लिखा था-तुम्हारी वालिदा का इंतकाल हो गया है। फौरन पहुंचो। तार भेजने वाले का नाम सरदार खां था। मेरा जेहन जड़वत होने लगा। मैंने हौसले से काम लेते हुए उसी वक्त टैक्सी की और सीधी बाजारे-हुस्ने जा पहुंची। वहां मुझे अपनी मां का कोठा ढूंढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जब मैं बालाखाने पर पहुंची, तो बहुत से लोग वहां मौजूद थे। मैं लोगों की भीड़ चीड़कर कफन में लिपटी हुई अपनी मां के सीने पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
जब मुझे होश आया, तो सारा हंगामा खत्म हो चुका था। मुझे बताया गया कि मेरी वालिदा को दफनाया जा चुका है। मैं फूट-फूटकर रोने लगी। किसी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘सब्र करो लड़की। किस्मत के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता।’’
‘‘तुम कौन हो?’’ मैंने भयभीत होकर पूछा।
‘‘मेरा नाम सरदार खां है।’’ वह बोला, ‘‘मैं इस बाजार वालों का पुराना साथी और हमदर्द हूं।’’
‘‘मैं अपनी मां की कब्र पर जाना चाहती हूं।’’
‘‘कल सुबह चलेंगे।’’ कहकर सरदार खां भी चला गया। मैं अकेली रह गई।
दूसरे रोज सरदार खां मुझे कब्रिस्तान ले गया। मैं अपनी मां की कब्र पर इतना रोई कि मेरी रूह पर छाया हुआ गुबार छंट गया। अपनी दुखिया मां को मैं आंसुओं के नजराने के सिवा कुछ न दे सकी और वापस आ गई। अब मुझे हॉस्टल जाकर ही फैसला करना था कि मेरा भविष्य क्या होगा।
मैं अपना सामान समेट ही रही थी कि सरदार खां आ गया।
‘‘कहां जाने की तैयारी कर रही हो जरीना खानम?’’
‘‘हॉस्टल।’’ मैंने जवाब दिया।
‘‘हॉस्टल का ख्याल दिल से निकाल दो। अब अपनी मां का उजड़ा हुआ कोठा तुम्हें ही आबाद करना है।’’
‘‘क्या बकवास कर रहे हो, जलील, कमीने...।’’ मैंने तैश में आकर कहा।
वह बड़े इत्मीनान से बोला, ‘‘और कुछ बोलने से पहले सुन लो कि तुम्हारी मां ने मुझसे हजारो रुपए कर्ज लेकर तुम्हारी तालीम पर खर्च किए हैं। अब वह मर चुकी है और कर्ज तुम्हें ही चुकाना है। इसका आसान तरीका वही है, जो मैंने तुम्हें बताया है।’’
‘‘दफा हो जाओ, कमीने। मैं तुम्हारी कोई बात सुनना नहीं चाहती।’’ मैं सूटकेस उठाकर चलने लगी, तो सरदार खां ने दरवाजे पर ही मुझे रोक लिया।
मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘सरदार खां, दो-ढाई साल और ठहर जाओ। मैं तुम्हारी पाई-पाई अदा कर दूंगी।’’
‘‘इतना अरसा कौन इंतजार करे। तुम्हारी मां जिंदा थी तो और बात थी। क्या पता, तुम बाद में मुझे पहचानो भी या नहीं।’’
‘‘नहीं सरदार खां, मैं खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर वादा करती हूं। चाहो तो मुझसे लिखवा लो।’’
‘‘छोड़ो जी, ये सब फिजूल की बातें हैं।’’ उसने बेपरवाही से कहा और दरवाजा बाहर से बंद करके चला गया।
रोते-रोते मेरे आंसू खुश्क हो गए और कयामत ढाते लम्हात गुजरते रहे।
शाम को एक नौकरानी मेरे कमरे में आई, तो मैं उसके सामने फिर बिलख-बिलख कर रोने लगी। मैंने कहा, ‘‘खुदा के लिए मुझे किसी तरह यहां से निकाल दो। मैं उम्रभर तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी।’’
वह भयभीत होकर बोली, ‘‘अभी तो मुमकिन नहीं। सरदार खां के आदमी हर वक्त निचली मंजिल में मौजूद रहते हैं। रात के पिछले पहर मैं कोशिश करूंगी।’’
मेरा दिल बुरी तरह घबरा रहा था। मैंने नौकरानी से घबराहट का जिक्र किया, तो वह बोली, ‘‘मैं तुम्हारे लिए शर्बत लाती हूं।’’
‘‘मैंने शर्बत के दो-तीन घूंट पिए, तो कुछ कड़वे से लगे। मुझे एहसास हो रहा था कि उसने शर्बत में शायद कुछ मिला दिया है। पूछने पर नौकरानी बोली, ‘‘मैंने इसमें लैमन मिला दिया है। पी लो। ताजादम हो जाओगी।’’
मैंने गिलास खत्म किया, तो सीने में जलन-सी होने लगी। उसके बाद मुझे इतना याद है कि मेरे कमरे में कोई दाखिल हुआ था।
जब मुझे होश आया, तब तक मैं लुट चुकी थी।
उसके बाद हर रात मेरे लिए कोई न कोई आने लगा। मैं बेइंतहा विरोध किया। भागने की कई बार कोशिश की। दो-तीन बार बालकनी से छलांग लगाने की हिम्मत की, लेकिन हर बार मुझे पकड़ लिया गया। मुझे इतना पीटा गया कि मेरे जिस्म पर नील पड़ गए।
यातना और दर्द का एक साल बीत गया। अब मेरे माथे पर तवायफ की मोहर लग चुकी थी। लिहाजा मैंने खुद हालात के सुपुर्द कर दिया।
अगले बरस तक मेरे अंदर की औरत हालात के थपेड़ें खाकर नीममुर्दा हो गई। सरदार खां को यकीन हो गया कि अब मुझमें कोठे की दुनिया से बाहर जाने की हिम्मत नहीं रही, तो उसने मुझे पर आयद पाबंदियां नरम कर दीं।
एक दिन मैं अपने बालाखाने की सीढ़ियों पर बेमकसद खड़ी थी कि अचानक मेरी नजर गयास पर पड़ी। उसे पहचानकर मेरी रूह कांप उठी। मेरा जी चाहा कि उलटे कदमों दौड़कर अंदर छुप जाऊं, मगर देर हो चुकी थी। उसने मुझे देख लिया था। मुझे देखते हुए उसके चेहरे पर जमाने भर की हैरत सिमट आई। दूसरे ही लम्हे वह सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आ गया।
‘‘हूं, तो यह राज था, जिसे छुपाते-छुपाते तुम खुद नंगी हो गईं।’’
गयास की आंखें सुर्ख थीं और लहज साफ बता रहा था कि वह नशे में है। गयास खासा कमजोर नजर आ रहा था। मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया और हाथ पकड़कर अपने कमरे में ले गई। कमरे में पहुंचकर मैं उससे लिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी। वह कुछ कहना चाह रहा था, लेकिन कह न पाया। उसने मुझे कंधों में थामकर उठाया। मैंने सिसकियों के बीच मुश्किल से कहा, ‘‘गयास, तुम उस वक्त आए, जब मेरा सब कुछ लुट गया।’’
वह बड़ी तकलीफ से बोला, ‘‘जरीना, तुम्हारी तलाश में मैंने न जाने कहां-कहां की खाक छानी। तुम्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैं अपने आप से बिछड़ गया हूं। मैंने खुद को बर्बाद कर लिया है, जरीना।’’ उसकी आवाज रुंध गई।
मैंने उसे अपने बारे में सब कुछ सच-सच बताकर पूछा, ‘‘बताओ, क्या तुम अब भी मुझे अपनाने की हिम्मत रखते हो?’’
‘‘हां, अगर तुम्हारी रूह तवायफ नहीं बनी, तो मेरे दिल के दरवाजे आज भी तुम्हारे लिए खुले हैं। तुम कल भी मेरी थी और आज भी मेरी हो, लेकिन सवाल यह है कि तुम्हें यहां से निकाला कैसे जाएं?’’
फिर हमने मिल-जुलकर मनसूबा बनाया। मैंने उससे कहा, ‘‘कल मैं तबीयत की खराबी का बहाना बनाकर फारिग रहूंगी। तुम रात के पिछले पहर जब वीरानी छा जाए, तो बालाखाने के पिछले दरवाजे पर आना। मैं पिछली सीढ़ियों का दरवाजा खोल दूंगी। तुम ऊपर आ जाना और हम निकल चलेंगे। बाजार के पहरेदारों और सिपाहियों से बचना तुम्हारा काम होगा। सोच-समझकर फैसला करना कि क्या तुम यह खतरा मोल ले सकते हो?’’
‘‘खतरे की बात छोड़ो जरीना, मैं जान पर खेलकर भी तुम्हें ले जाऊंगा।’’
इसके बाद गयास चला गया और मैं बेचैनी से अगले दिन का इंतजार करने लगी।
अगली रात तबीयत खराब होने का बहाना बनाकर मैं अपने कमरे में पड़ी रही। रात गए मैंने बेहद जरूरी सामान एक अटैची में बंद किया और गयास का इंतजार करने लगी। नींद आंखों से कोसो दूर थी।
रात करीब तीन बजे का वक्त होगा, जब बरामदे में पत्थर मारने का खटका हुआ। मैंने बाहर निकलकर दरवाजा खोला और गयास अंधेरे में जीना चढ़कर ऊपर आ गया।
‘‘तैयार हो?’’ उसने सरगोशी की।
‘‘हां।’’ मैंने कहा।
कमरे में आकर गयास ने अटैची उठाई और हम दबे पांव जीना उतरने लगे। गयास मेरे पीछे था। जिस वक्त मेरा पांव आखिरी सीढ़ी पर था, अचानक सीढ़ियों का बल्ब जल उठा। मैंने पीछे मुड़कर देखा। सबसे ऊपरी वाली सीढ़ी पर सरदार खां खड़ा व्यंग्यात्मक अंदाज में मुस्करा रहा था। उसके हाथ में लंबी नली की पिस्तौल थी। गयास ने अटैची सीढ़ी पर रखकर फुर्ती से कोट की जेब में हाथ डाला। मैंने उसके हाथ में रिवाल्वर की सिर्फ झलक देखी। उसके गोली चलाने से पहले सरदार खां ने फायर कर दिया। गयास लड़खड़ाया, फिर सीने पर हाथ रखकर लुढ़कता हुआ मेरे कदमों में आ गिरा। मैंने झपटकर उसे थामा। उसके सीने में गाढ़ा खून उबल रहा था। उसने मुश्किल से आंखें खोलीं और डूबते अल्फाज में कहा, ‘‘जरीना, मुझे माफ कर देना। मैं अपना वादा...पूरा...न...कर...।’’
इसके साथ ही सरदार खां ने मुझे बालों से पकड़ कर उठाया और घसीटते हुए कमरे में लाकर पटक दिया।
यहां पहुंच कर मेरी बर्बादियों की दास्तान खत्म हो गई। सरदार खां गिरफ्तार भी हुआ, पर जल्दी छूट भी गया। उसके बाद सरदार खां मुझे बाजार से उठाकर शरीफों की बस्ती में ले गया।
शरीफों की बस्ती का नाम सुनकर आप यह न समझ लीजिएगा कि मैं एक गृहस्थ औरत की जिंदगी बिता रही हूं। जगह बदल गई थी, ग्राहक बदल गए थे, पर मैं तवायफ ही रही। मैं कल भी तवायफ थी, आज भी तवायफ हूं और शायद मरते दम तक तवायफ रहूंगी। स