Monday, April 1, 2013

एक शाम रेडलाइट एरिया में

जी.बी. रोड की एक शाम

इधर-उधर घूमती मेरी निगाह जब दोबारा उस पर गई तो मेरे होश उड़ गये। वह जन्मजात नंगी पलंग पर चित्त पड़ी थी। तो उसकी आंखों में कोई नशा था और ही अधरों पर कोई प्यास थी। वह तो महज एक मशीन-सी जान पड़ी मुझे, जिसे कोई भी शुरू कर सकता था और शुरू करके बंद कर सकता था।

वो एक हसीन शाम थी! अभी-अभी बारिश होकर हटी थी! लिहाजा मौसम अचानक ही खुशगवार हो उठा था। दफ्तर से बाहर निकल कर मैं पैदल ही दिल्ली गेट की ओर बढ़ चला। बात तकरीबन बारह साल पुरानी है। उन दिनों मैं दरियागंज में अंसारी रोड पर एक पब्लिशर के यहां बतौर सह-संपादक कार्यरत था। मैं अपने मालिकान से कोई खास खुश नहीं थी, अलबत्ता तन्ख्वाह अच्छी थी, इसलिए मैं उन्हें खामोशी से झेल रहा था।
                आज की तरह उन दिनों भी मेरा एक ही शगल हुआ करता था - शब्दों के साथ खेलना! फर्क सिर्फ इतना था कि तब की-बोर्ड की बजाय हाथ में कलम और सामने पेपर हुआ करता था।
                बहरहाल मैं मौसम की अचानक हुई मेहरबानी का लुत्फ उठाता हुआ पैदल, बिना मंजिल को लक्ष्य किए आगे बढ़ता जा रहा था। मन में तरह तरह के ख्यालात आते और चले जाते! मुझे महसूस हो रहा था जैसे कोई नई कहानी जहन में आकार लेने को मचल रही है, बस तस्वीर का रूख साफ नहीं हो पा रहा था। लिहाजा मैं चलता जा रहा था, ख्यालों में उलझा हुआ। यूं चलता हुआ मैं कहां से कहां जा पहुंचा था इसका एहसास मुझे तब हुआ जब अचानक ही किसी ने मेरा नाम लेकर पुकारा-
‘‘प्रशांत जी!‘‘ मैं तत्काल आवाज की दिशा में पलट गया, देखा रोहित चला रहा था। बड़े ही तेज कदमों से लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ। मानो भगवान बामन की तरह दो ही डगों में पृथ्वी को माप लेना चाहता हो। वो मेरा दोस्त तो नहीं था फिर भी हम दोनों में ठीक-ठाक बनती थी। उससे मेरी जान-पहचान भी कोई खास पुरानी नहीं थी। महज छह महीने पहले हम प्रगति मैदान के बुक फेयर में मिले थे। बस वहीं से बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया था। जो कि आज तक जारी था। हम दोनों को करीब लाने में जिस बात का अहम योगदान था वो ये कि उसे पढ़ने का बहुत शौक था और मुझे लिखने का! ये जुदा बात थी कि वो सिर्फ वही किताबें पढ़ता था जो उसे मुफ्त में हासिल हो जाती थीं। खरीदकर ना पढ़ने की तो जैसे उसने कसम उठा रखी थी। लिहाजा आप समझ ही गये होंगे कि वो भी ऐन दिल्ली वाले टाइप का ही था। आसान शब्दों में कहें तो मुफ्तखोरा था, मुफ्त की हर चीज उसे पसंद थी, भले ही जहर ही क्यों ना मिल रहा हो।
‘‘हल्लो!‘‘ -वह मेरे करीब पहुंच कर हांफता हुआ बोला,‘‘कैसे हो?‘‘
‘‘एकदम मस्त! तुम सुनाओ, आज इधर कहां निकल आए।‘‘
जवाब देने की बजाय वह ठठाकर हंस पड़ा।
‘‘क्या हुआ भई कोई जोक सुना दिया क्या मैंने?‘‘
‘‘नहीं यार! वो बात ये है कि मैं तो हफ्ते यहां का फेरा लगा ही लेता हूं! कलयुगी इंसान जो ठहरा, मगर तुम जैसे साधु पुरूष को यहां देखकर मुझे हैरानी हो रही है। तुम्हारा यहां क्या काम? बस अब ये मत कह देना कि रास्ता भटक कर इधर निकले।‘‘
‘‘क्या कहना चाहते हो भई?‘‘ उसकी बात सुनकर मैं तनिक उलझ सा गया।
‘‘कुछ नहीं छोड़ो! निश्ंिचत होकर जाओ, अब मैं तो किसी को बताने से रहा कि मैंने तुम्हें यहां देखा था, आखिरकार चोर-चोर मौसेरे भाई जो ठहरे, एक-दूसरे का लिहाज तो करना ही पड़ता है।‘‘ कहने के पश्चात वह पुनः जोर-जोर से ठहाके लगाने लगा।
‘‘क्या बात है यार! आज तो तुम बड़ी उलझी-उलझी सी बातें कर रहे हो। तुम्हारी तमाम बातें मेरे सिर के ऊपर से गुजर रही हैं।‘‘
जवाब देने से पूर्व वह खुल कर मुस्कराया हांेठों के दोनों किनारे कानों को छूते से जान पड़े। फिर तनिक ठहर कर आंखों से मुस्कुराते हुए बोला, ‘‘चोरी पकड़े जाने पर हर कोई ऐसा ही कहता है। मगर इत्मीनान रखो, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, इसलिए बेहिचक मजे मार आओ...‘‘
‘‘चोरी...मजे....!‘‘ मन में कुछ उलझ-सा गया, ‘‘कहना क्या चाहते हो...जरा खुलकर बताओ।‘‘
‘‘यानी की मेरी जुुबान खुलवाये बिना नहीं मानोगे!‘‘
‘‘क्या हर्ज है, भगवान ने जुबान दी है, तो खुलनी भी चाहिये। बराय मेहरबानी साफ-साफ बताओ कहना क्या चाहते हो?‘‘
‘‘ठीक है, अग नहीं मानते तो कहता हूं...सुनो तुम्हारा दफ्तर अंसारी रोड पर है! छुट्टी का वक्त है, लिहाजा तुम ये भी नहीं कह सकते कि दफ्तर के काम से यहां आए हो। अब बजाए दफ्तर से लौटकर घर जाने के तुम्हारे कदम जी.बी. रोड़ पर आन पहुंचे हैं तो क्या मतलब निकालूं इसका। यह रास्ता तो किसी भी तरह तुम्हारे रूट में नहीं आता।‘‘
डसकी बात सुनकर मैं हकबका सा गया! अब जाकर मुझे याद आया कि मैं विचारों के भंवर में फंसा हुआ, रेडलाइट एरिया में दाखिल हो चुका था।
‘‘और अब जबकि तुम इधर ही गये हो तो!‘‘ वह कह रहा था, ‘‘कोई पूजा-पाठ करने के इरादे से तो आए नहीं होंगे। किसी हुस्नवाली की आरती तो तुम उतारोगे नहीं। फिर जाहिराना बात है कि जिस्मानी प्यास यहां तक खींच लाई है तुम्हे! अपने जिस्म के सूखे मरुस्थल की प्यास शांत करने ही जा रहे होंगे ...भई मान गये, बड़े छुपे रूस्तम निकले तुम!‘‘
                ‘‘हे भगवान।‘‘ मेरे मुख से आह निकल गई, ‘‘क्या तुम किसी कोठे से रहे हो?‘‘
                ‘‘लो, भला ये भी कोई पूछने वाली बात है! बताया तो था सप्ताह में एक बार इधर का फेरा जरूर लगाता हूं। फिर खर्चा भी ज्यादा नहीं, हर बार तकरीबन दो सौ रुपये में निपट जाता है। अब मैं कोई सेठ तो हूं नहीं, जो हजारों खर्च करटॉप का मालहासिल करूं। इसलिए किसी से भी काम चला लेता हूं। फिर सूरत देखने की जरूरत ही क्या है! जब भी वहां जाता हूं, जाने से पहले किसी माॅडल या अभिनेत्री की सूरत अपने जहन में कूट-कूट कर भर लेता हूं...मजे मारते समय हर वक्त यही सोचता रहता हूं कि उसी हसीना के साथ ऐश कर रहा हूं। सच कहता हूं बड़ा मजा आता है इस ट्रिक में। दो सौ रूपये में पांच हजार वाला मजा मिल जाता है।‘‘
                ‘‘लेकिन दो सौ रुपये... वो भला किस बात के!...क्या कमी है तुम्हारे अंदर?‘‘
                ‘‘हद करते हो यार! पैसा तो उसके साथ मजा करने के देता हूं, बिना पैसों के तो जोरू भी साथ सोने से इंकार कर देगी, वो तो फिर धंधे वाली ठहरी।‘‘
                ‘‘तुम मेरी बात समझ नहीं पाए, मेरे कहने का मतलब ये है कि जब स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं, इनमें से कोई भी अकेला रति-सुख हासिल नहीं कर सकता। फिर बीच में पैसे की बात कहां से गई? यह तो आपसदारी वाला मामला हुआ, एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ से देने वाली बात हो गई! इसमें भला पैसे का क्या रोल?‘‘
‘‘रोल है! क्योंकि वो रति सुख हासिल करने के लिए नहीं बैठी यहां बल्कि रति सुख देने के लिए बैठी हैं, वो मजे नहीं मारतीं बल्कि मजे कराती हैं, इसलिए पैसा देना पड़ता है।‘‘
‘‘मगर...!‘‘
‘‘पैसा तो देना ही पड़ेगा!‘‘ वो मेरी बात काट कर बोला, ‘‘क्योंकि ये तो बिजनेस है उनका। इसी से उनकी रोजी-रोटी चलती है। किन्तु मेरी समझ में ये नहीं रहा कि आज तुम बाल की खाल निकालने में क्यों लगे हुए हो! तुम्हारी ही कहानीवेश्यालयकी एक पंक्ति सुनाता हूं तुम्हे, तुमने लिखा था, ‘‘वेश्यालय वह संतुष्टि स्थल है, जहां पहुंचकर बीवी से बेजार या प्रेमिका की बेवफाई से आहत कोई भी व्यक्ति तन और मन दोनों की शांति प्राप्त कर सकता है।‘‘
‘‘मुझ याद हैं वो लाइनें मगर तुम भूल रहे हो कि वो कहानी नहीं थी बल्कि हास्य व्यंग्य था। और फिर तुम्हें कौन-सा गम सता रहा है? प्रेमिका की बेवफाई या फिर बीवी से ऊब गये हो!‘‘
‘‘मैं अनमैरिड हूं।‘‘
‘‘यानी की पहली बात सही है।‘‘
‘‘ठीक समझे, मगर बेवफाई जैसी कोई बात नहीं है! बस उसे मेरा प्यार कबूल नहीं है। मेरी एक भी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया उसने।‘‘
‘‘चिट्ठी! मैं तनिक चैंका, ‘‘मोबाइल के जमाने में किसी को चिट्ठी लिखोगे तो जवाब क्या खाक मिलेगा! आज की नब्बे फीसदी जनरेशन ने तो कभी चिट्ठी की शक्ल ही नहीं देखी होगी और तुम अपनी प्रेमिका को चिट्ठियां लिखते हो, कमाल के आदमी हो भई तुम।‘‘
‘‘मेरे पास उसका कोई कांटेक्ट नंबर नहीं है भई!‘‘ वो बेबसी से बोला।
‘‘तो पता करो, आशिक तो जाने क्या-क्या कर गुजरते हैं और एक तुम हो कि अपनी महबूबा का नंबर तक नहीं मालूम तुम्हें, लानत है तुमपर! वैसे प्यार सचमुच करते हो उससे, या बस वक्ती जनून है, जैसा कि आजकल हर दूसरे मर्द के भीतर देखने को मिल जाता है।‘‘
‘‘ऐसा कहकर तुम मेरी मोहब्बत की तौहीन कर रहे हो! तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकते...मैं उसे कितना प्यार करता हूं। पागलपन की हद तक चाहता हूं उसे...क्या करूं वो है ही ऐसी, लेकिन मेरी बदकिस्मती देखो कि मैं आज तक उससे रूबरू नहीं हो सका।‘‘
‘‘कमाल है यार! कभी उससे मिले नहीं फिर भी उसकी मोहब्बत का दम भर रहे हो।‘‘
‘‘ठीक समझे, उस बेचारी ने तो ताउम्र मेरी शक्ल नहीं देखी। बस मैं ही देखता रहता हूं उसे...क्या करूं वो है ही ऐसी! अजीमोशान हूर की परी...हजारों दिलों की जीनत, सब जानते हैं उसे किन्तु वो किसी को नहीं जानती।‘‘
‘‘कोई नाम भी तो होगा उस आफताब का।‘‘
‘‘है बिल्कुल उसी की तरह उसका नाम...कैटरीना कैफ।‘‘
मैंने अपना सिर पीट लिया, दिल हुआ बाल नोंचने शुरू कर दूं, बड़ी मुश्किल से स्वयं को संयत कर पाया।
‘‘कोई और नहीं मिला तुम्हें जो उससे दिल लगा बैठे, पाने की ख्वाहिश कर बैठे।‘‘
‘‘पाने की नहीं, सिर्फ चाहने की, जब दिल लगाना ही था तो भला किसी एैरी-गैरी से क्यों लगाता। आखिर में टूट जाना ही तो दिल का नसीब होता है। फिर क्यों हम आसमान को छूने का प्रयास करें...चांद से मोहब्बत का इजहार करते हुए फनां हो जाए।‘‘
‘‘भला ऐसा पागल कौन होगा?‘‘
‘‘मैं जो खड़ा हूं, तुम्हारे सामने पांच फिट साढ़े दस इंच का जीता-जागता इंसान...खैर बारी तुम्हारी है, बताओ कहां जा रहे थे ....अगर किसी कोठे पर नहीं जा रहे थे तो?‘‘
‘‘मैं...मैं तो बस यूं किसी नई कहानी की तलाश में भटक रहा था, गलती से इधर निकला, किन्तु अब तुमसे मिलने के बाद लगता है मंजिल मिल गई या फिर यूं कह लो कि मेरे भटकाव को सही दिशा मिल गई...‘‘
‘‘दयानतदारी है, जो तुम ऐसा सोचते हैं, वरना बन्दे ने तो बस अपना हाले-दिल खोल कर रखा था तुम्हारे सामने। और फिर जब यहां तक ही गये हो तो सामने किसी कोठे का फेरा लगा ही लो, यकीन मानो यहां की दुनिया बड़ी विस्फोटक है, यहां एक से बढ़कर एक कहानियां छिपी हुई हैं। बस जरूरत है पारखी निगाहों की! जो कि बेशक तुम्हारे पास है।‘‘
‘‘अरे नहीं भई, अब इस उम्र में मैं कोई कुकर्म नहीं करना चाहता। पहले ही जाने कौन से पाप किए थे, जो सिर पर लेखक बनने का भूत सवार हो गया। यह लोक तो बिगाड़ ही चुका हूं, अब वहां जाकर अपना परलोक क्यों बिगाडूं?‘‘
‘‘कुकर्म करने को कौन कहता है, बस यूं ही टहलते हुए जाओ और लौट आओ...यकीन जानो तुम्हे पछताना नहीं पड़ेगा और अगर अकेले जाने में हिचक हो रही हो तो नो-प्रॉब्लम, मैं हूं , तुम्हारेे साथ चलता हूं किसी वेश्या का इंटरव्यू लेकर आते हैं।‘‘
कहने के पश्चात वह कुछ क्षण को रुका, फिर एक लम्बी सांस खींचकर पूछ बैठा, ‘‘बोलो चलते हो?‘‘
‘‘अब आज तो संभव नहीं है!‘‘ मैं उसे टालता हुआ बोला, ‘‘आगे जब फुरसत होगी तुम्हें याद कर लूंगा।‘‘
‘‘जैसी तुम्हारी मर्जी‘‘ वह अपने दोनों कंधे उचकाता हुआ बोला, ‘‘तो मैं चलूं अब?‘‘
‘‘हां भई...जाओ।‘‘
उसके जाने के कुछ समय पश्चात तक वहीं खड़ा मैं अपना अगला कदम निर्धारित करता रहा। जो इस बात का द्योत्तक था कि उसकी बातें बेअसर नहीं गई थीं। अब मेरे सामने दो रास्ते थे-पहला रास्ता मुझे मेरे घर तक ले जाता था। दूसरा उन बदनाम कोठों की तरफ...जिधर बढ़ने से मैं बार-बार हिचक रहा था! किन्तु उसी अनुपात में मेरा दिल बार-बार मुझे उस तरफ बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा था।
ऐसे ही थोडे कहा गया है कि जब नाश मनुष्य पर छाता है पहले विवके मर जाता है।
कुछ देर को ही सही, समझ लीजिए विवेक से मेरा नाता टूट चुका था।
पता नहीं किसी विस्फोटक कहानी के मिलने की संभावना ने मुझे वक्ती तौर पर लालची बना दिया था या फिर मैं सचुमुच किसी हुस्न वाली के हुस्न में डूबने को बेकरार हो चुका था! ईमानदारी से कहता हूं, मुझे नहीं मालूम की उपरोक्त कौन सी बात थी जो मुझे उस तरफ बढ़ने को प्रेरित करने लगी थी।
अलबत्ता आगे बढ़ने से पूर्व मैंने सैकड़ों बार अपने आत्मविश्वास को तौलकर देखा, फिर दृढ़ कदमों से उन बदनाम गलियों की तरफ बढ़ चला। मैं कोई सफाई नहीं दे रहा, हकीकत तो ये है कि इस वक्त मेरे मन की हालत ऐन वैसी ही थी जैसा कि हर उस व्यक्ति की होती होगी जो पहली बार किसी कोठे पर मौज-मस्ती के इरादे से गया होगा।
आखिर हर व्यक्ति के पास खुद को सही ठहराने की कोई ना कोई वजह तो होती ही है।
बहरहाल मेरे कदम उस ओर बढ़े जा रहे थे।
मन में कोई उत्साह था, किन्तु मैं हतोत्साहित भी नहीं भी नहीं था। कुछ दूर आगे जाते ही मेरी हालत ये हो गयी कि मुझे खुद को उधर की ओर धकेलना पड़ रहा था। ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता जा रहा हूं, मेरी दृढ़ता में कमी आती जा रही थी। आते-जाते लोगों को देखकर धड़कनें बढ़ती जा रही थीं। क्योंकि किसी पहचान वाले से टकरा जाने का आतंक मेरे जहन पर पूरी तरह काबिज हो चुका था। अगर कहीं कोई पहचान वाला मिल गया तो...इसतोके बारे में सोचने मात्र से मैं पसीने से तर हो गया। मेरी दशा उस चोर की भांति हो रही थी जो जीवन में पहली बार चोरी करने निकला हो और पकड़े जाने के भय से कांप रहा हो, किन्तु मैं रुका नहीं, पीछे मुड़कर देखने की आदत जो नहीं थी। बस बढ़ता रहा नाक की सीध में, बगैर दाएं-बांए देखे।
इस दौरान कई बार कदम लड़खड़ाए, दिल में हिचक उत्पन्न हुई! किन्तु इन बातों की परवाह किए बगैर मैं आगे बढ़ता गया। दोनों तरफ दुकानें थीं, जिनमें आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ था। सड़क पर आदमियों से ज्यादा रिक्शे, ठेले और कारों की कतार...कुल मिलाकर भीड़-भाड़ जरूरत से ज्यादा थी...मेरा दिमाग कुछ इस कदर कुंद हो गया कि वहां से गुजरने वाली हर औरत बाजारू और हर मर्द उसका ग्राहक दिखाई देने लगा। अब तक शाम काफी घिर आई थी। वातावरण में धुंधलका फैलता जा रहा था। ऐसे में किसी का हाथ का स्पर्श अपने कंधों पर महसूस कर मैं बौखला सा गया। दिमाग में खतरे का बिगुल बज उठा...यकीनन कोई पहचान वाला मिल गया! मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मन ही मन आगंतुक के संभावित प्रश्नों का जवाब तलाशते हुए, मैं उसकी तरफ घूम गया...!
थैंक्स गॉड’...मैंने राहत की सांस ली।
मेरे सामने निहायत गंदे कपड़ों में लिपटा एक अधेड़ व्यक्ति लगातार कचर-कचर पान चबा रहा था। जिसकी टपकती हुई लार ने होंठों से लेकर ठोड़ी तक एक लाल रेखा खींच दी थी। कपड़ों पर जगह-जगह लाल और काले धब्बे लगे हुए थे। इन सबसे बेखबर वह लगातार जुगाली किए जा रहा था। उसके शरीर से उठती हुई दुर्गन्ध ने पलभर में मेरा सांस लेना दूभर कर दिया, मुझे कोफ्त-सी महसूस होने लगी। फिर उसने मुंह में भरी पीक का एक तिहाई जमीन पर थूक दिया और बाकी को निगलने के पश्चात मुझे घूरने में व्यस्त हो गया, जबकि उसका एक हाथ अभी तक मेरे कंधे पर टिका हुआ था। पकड़ पहले से अधिक मजबूत थी, जाने क्यों उसकी इस प्रतिक्रिया ने मुझे भीतर तक विचलित करके रख दिया।
क्या चाहिये?‘ वह फटी आवाज में बोला, इस दौरान उसके मुख से निकलकर उछलते हुए पान की पीक के कुछ छींटे मेरी कमीज पर गिरे, मैं करता भी क्या बस कसमसा कर रह गया।
अब बोलता क्यों नहीं?‘ वह मुझे झकझोरता हुआ बोला, ‘हर तरह का माल है अपने पास, सोलह से साठ तक...सबका एकदम वाजिब रेट है, जो चाहेगा मिलेगा...बोल कैसा माल...चाहिये?‘‘
मालमैं अचकचा-सा गया, ‘‘कैसा माल?‘‘
ओय! तू माल नहीं समझता, तो फिर इधर क्या करने आया है! माल के वास्ते ही आया है ...फिर इतना भोला बन कर क्यों दिखा रहा है। मैं क्या तेरा सगे वाला हूं, जो तू साला छोकरियों की तरह शरमा रहा है? छोकरी चाहिये तो बोल, वरना फूट यहां से, धंधे का टाइम है, मुझे दूसरे ग्राहकों को भी संभालना है।‘‘
कहकर उसने मेरा कंधा छोड़ दिया।
मैं झपटकर आगे की ओर बढ़ा, किन्तु तभी कमबख्त ने हाथ पकड़कर वापिस खींच लिया।
जाने से पहले।वह पूर्ववत् जुगाली करता हुआ बोला, ‘एक बात सुनता जा, पूरे जी.बी. रोड पर तेरे को भल्लू जैसा ईमानदार दल्ला नहीं मिलेगा। अगर कोई ज्यादा पैसे मांगे तो इधर वापस आना, ग्राहक भगवान होता है...मैं तेरे को अच्छा माल दिलाऊंगा! तू मेरे को नया आदमी लगता है, इसलिए बता देता हूं...इधर साली...बहन की...कोई भी रण्डी, अगर तेरे को परेशान करे तो उसे मेरा नाम बोलना...बोलना तू भल्लू का आदमी है...समझ गया?‘‘
मैंने तत्काल सिर हिलाकर हामी भर दी। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और इससे पहले वह दोबारा मेरा हाथ थाम लेता, मैं तकरीबन दौड़ता हुआ वहां से बच निकला। अजीब इंसान था वह, स्वयं को दल्ला बताते वक्त यूं फख्र महसूस कर रहा था, मानो कह रहा हो, ‘मैं इस देश का राष्ट्रपति हूं’...खासतौर पर ईमानदार दल्ला होना उसकी निगाहांें में खासा महत्व रखता जान पड़ता था....अलबत्ता वह कितना ईमानदार था, इसको मापने का मेरे पास कोई पैमाना नहीं था।
कुछ देर तक आगे बढ़ते रहने के पश्चात मैंने अपनी रफ्तार धीमी कर दी और एक तरफ खड़ी एक कार के बोनट की टेक लेकर दिल की बढी हुई धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश करता हुआ वहां का नजारा करने लगा। किन्तु वह कोशिश भी क्षणिक साबित हुई, अभी मैं चैन की दो सांस भी नहीं ले पाया था कि तभी... एक अधेड़ औरत भूत की तरह मेरे बगल में प्रकट हुई और मुझसे एकदम सटकर खड़ी हो गई। मैं बुरी तरह हड़बड़ा उठा, किन्तु इससे पहले मैं अलग हो पाता, उसने झट मेरा बाजू पकड़ लिया।
चलेगा।‘‘
...कहां?‘ मैं एकदम से बौखला उठा।
अपनी अम्मा के पास स्साले।वह बड़े ही सहज ढंग से बोली, ‘चल के देख स्वर्ग के दर्शन ना करा दूं तो कहना...‘‘
...पैसे...कितने...लो...
जो दिल करे दे देना...चल।उसने मेरा हाथ पकड़कर झटका दिया, मैं उसके पीछे-पीछे चल पड़ा, वह बगल की गली में जा घुसी।
मुझे लेकर वो एक ऐसे कमरे में पहुंची जो एक पुराने मकान की पहली मंजिल पर बना मुर्गी के दड़बे से तनिक ही बढ़ा रहा होगा। आज के जमाने में भी उस कमरे में सौ वाॅट का बल्ब जल रहा था, जो कमरे के बाईं ओर वाली दीवार पर एक कील के सहारे लटक रहा है। बल्ब की पीली रोशनी में मैंने फौरन सिर से पांव तक उसका मुआयना कर डाला।
लम्बा छरहरा बदन, काली रंगत लिए साधारण नयन-नक्श, जिसे पाउडर के छिड़काव द्वारा सफेदी देने की कोशिश की गई थी। एक निगाह देखने पर लगता था मानो किसी ने जामुन पर नमक छिड़क दिया था। ऊपर से उसके शरीर से टपकता पसीना, ‘उफ!’ मेरा मन अजीब-सी वितृष्णा से भर उठा। रही सही कसर कमरे की अन्दरूनी साज-सज्जा ने पूरी कर दी। फर्श पर जनाना अंडर गारमेंट बिखरे पड़े थे, मालूम नहीं ये उसकी लापरवाही का नतीजा था या इसके जरिये वो ग्राहक को कोई स्पेशल ट्रीटमेंट देती थी। पास ही कूडे़ जैसा ढेर लगा था जहां इस्तेमाल किए हुए कंडोम पड़े थे।
मुझे ऊबकाई-सी आने लगी, अब वहां और खड़े रह पाना मेरे बर्दाश्त के बाहर था। इधर-उधर घूमती मेरी निगाह जब दोबारा उस पर गई तो मेरे होश उड़ गये। वह जन्मजात नंगी पलंग पर चित्त पड़ी थी। तो उसकी आंखों में कोई नशा था और ही अधरों पर कोई प्यास थी। वह तो महज एक मशीन-सी जान पड़ी मुझे, जिसे कोई भी शुरू कर सकता था और शुरू करके बंद कर सकता था।
यह मेरे लिए औरत का एकदम नया रूप था। मैंने वेश्याओं के बारे में सुन रखा था, पढ़ रखा था, किन्तु रूबरू होने का यह पहला मौका था। वह पूरी तरह अहसास रहित दिखाई दे रही थी, उसके साथ संभोग करना और किसी की लाश को भभोड़ना एक जैसा ही आनन्द दे सकता था।
उसके नग्न शरीर को देखकर मैं शर्म से गड़ा जा रहा था, किन्तु उसकी आंखों में अभी भी कोई भाव नहीं आया था।
अरे...ओय...जल्दी कर फालतू टाइम नहीं है अपने पास।‘‘
जल्दी करूं!‘ मैं आवाज सुनकर चैंक पड़ा, ‘क्या करूं?‘‘
तेरे मां की साले...क्या करने आया है यहां?‘‘
मैं...मैं।मुझे लगा मैं रो पड़ूंगा, ‘तुम्हारा नाम क्या है?‘‘
क्यों...राशनकार्ड बनवाना है?‘‘
बताने में क्या हर्ज हैं।मैं उसके जिस्म से निगाहें चुराने लगा।
कोई हर्ज नहीं, पहले तू बता, तेरी अम्मा का क्या नाम है?‘‘
...बबीता।‘‘ मैं रोआंसे स्वर में बोला।
मेरा नाम सबिता है, पहचाना नहीं मेरे लाल! रिश्ते में तेरी मौसी लगती हूं, अब फटाफट भंभोड़ और फूट यहां से।‘‘
मेरा चेहरा कनपटियों तक सूर्ख हो उठा...आसार अच्छे नहीं दिख रहे थे...मैं खून का घूंट पीकर बर्दाश्त कर गया। तभी वहां आने का अपना मकसद फिर से जहन पर काबिज हो आया। मुझे उसके अतीत में झांकना था। उसकी जिंदगी की किताब को पढ़ना था। और पढ़कर उसे पूरी दुनियां के सामने लाना था।
तुम ये सब क्यों करती हो‘‘ मैं तनिक हिचकिचाता हुआ बोला।
स्साले हराम के पिल्ले, जो करने आया है कर और फूट यहां से, अभी तेरे दूसरे बापों को भी निपटाना है।सहमकर मैंने पुनः एक नजर उसके जिस्म पर डाली, स्तनों पर घाव के स्थाई निशान दिखाई दिये, निगाह कुछ नीचे गई, तो नाभि के नीचे भी एक गहरे घाव का निशान दिखाई दिया। पैरों पर चेचक के दाग बने हुए थे। कुल मिलाकर खुदा ने बदसूरती से उसे जी खोलकर नवाजा था।
मैंने एक बार पुनः उसके जिस्म का मुआयना कर डाला और फिर खुद से प्रश्न किया कि क्या मैं उस औरत के साथ हमबिस्तर हो सकता था।
मुझे फिर से ऊबकाई सी गयी।
मैं...मैं जाता हूं।मैं सहमें स्वर में बोला, डर था कहीं वो फिर अपनी गंदी जुबान के वार करना ना शुरू कर दे।
बिना कुछ किए?‘‘
हां।‘‘
पैसे।‘‘
किस बात के?‘‘
अबे खाली-पीली मेरा टाइम खोटा किया, दिमाग में टेंशन दिया उसके पैसे। इतनी देर में मैं तेरे तीन बापों को निपटा चुकी होती। भगवान बचाए तेरे जैसे नामर्द ग्राहकों से! साले घर पे बीवी के साथ भी ऐसा ही करता है क्या? अगर हां तो बच्चे जरूर पड़ोसियों पर गये होंगे, शक्ल मिलाकर देखना।‘‘
कहकर वो बड़े ही कुत्सित ढंग से हंसी।
उसके मुंह ना लगने में ही मैंने अपनी भलाई समझी। मैंने चुपचाप उसे सौ के दो नोट पकड़ाये और गेट की तरफ बढ़ गया।
                ‘स्याला, नामर्द।पीछे से उसका घृणित स्वर सुनाई दिया, ‘छक्का कहीं का...‘ ...थू...कदाचित उसने फर्श पर थूक दिया था, मारे अपमान के मेरी आंखें भर आईं, मैं हौल-हौले सिसकते हुए सीढ़ियां उतरने लगा।


!! समाप्त !!