Saturday, January 26, 2019

अंतराल
- संतोष पाठक
भूमिका - दीपिका पादुकोण ने शादी कर ली, ये खबर सुनकर बलुआ मोहल्ले में घूम-घूमकर लोगों को बताने लगा कि दीपिका बेवफा है, बलुआ उससे मोहब्बत करता था फिर भी उसने सात फेरे किसी और के साथ ले लिए! ये फिल्मों वाली होती ही ऐसी हैं, कपड़े की तरह अपना प्यार बांटती फिरती हैं।
‘‘नमस्ते।‘‘
प्रोफेसर को वो साढ़े तीन शब्द अपने कानों में मिश्री की तरह घुलते महसूस हुए। उसने नाक पर थोड़ा नीचे ढुलक आए चश्में को ठीक किया और गर्दन उठाकर सामने देखा। एक अल्हड़ युवती, शालीनता की प्रतिमूर्ति बनी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी थी। उसकी सूरत पर दृष्टि पड़ते ही प्रोफेसर को अपने अंतःकरण में अवर्चनीय किंतु सुखानुभूति से ओत-प्रोत, ना समझ आने वाली सनसनाहट का अनुभव हुआ। वह हकबका कर एकटक युवती को देखने लगा। यूं प्रतीत हो रहा था जैसे कुदरत ने अपनी तमाम सुषमा उसके अद्भुत सौंदर्य को गढ़ने में लगा दी थी। युवती के अप्रतिम सौंदर्य ने कुछ पलों के लिए उसे जड़ कर के रख दिया। दृष्टि अभी तक उसके चेहरे पर जमी हुई थी, जिनकी पकड़ निरंतऱ मजबूत होती जा रही थी।
वक्त जैसे अचानक ही ठहर सा गया था, पलकें थीं कि झपकना भूल गई थीं। प्रोफेसर की यूं फट पड़ने को उतारू आंखें और उनमें अचानक उत्पन्न हुए भाव शोभनीय नहीं थे, इस बात से वह अनभिज्ञ नहीं था, मगर युवती के अकल्पनीय सौंदर्य के चुम्बकीय आकषर्ण से वो खुद को विरक्त नहीं रख पा रहा था। कुछ ही पलों में जैसे उसने एक बहुत लंबी दूरी, जो कल तक असहनीय लग रही थी, तय कर डाली। जीवन के जिस आनंद को वह अब तक भूला बैठा था, सुखानभूति के जिन अद्भुत पलों की उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी, युवती के आगमन ने उसका पल भर में एहसास करा दिया। जिन सपनों को वह देखने से परहेज करता था, उन्हीं को युवती जैसे अपने दामन में समेटे उसके सामने उपस्थित थी। पल भर में वहां अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके उसके सौंदर्य जाल में लिपटे प्रोफेसर को उसकी नमस्ते की स्मृति तक नहीं थी।
‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं।‘‘
सम्मोहन टूटा, जैसे रति की ओर अनुरागित नेत्रों से देखते कामदेव के सामने साक्षात सरस्वती आ खड़ी हुई हों। तत्काल ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ, प्रोफेसर ने अपने विचलित मन पर मुश्किल से अंकुश लगाया फिर गहरी निगाहों से युवती को यूं देखा जैसे पिछले जन्म की अपनी प्रेयसी को पहचानने का प्रयत्न कर रहा हो। कुछ याद नहीं आया। वह विस्मृत सा एक बार फिर उसे देखने लगा, उसकी आंखों में एक साथ मानो कई प्रश्न आकार लेने लगे थे, मगर वो प्रश्न उनमें नहीं थे, जिसका अनुमान युवती के अपरिपक्व मस्तिष्क को उस वक्त हुआ।
‘‘मैं माधुरी हूं!‘‘ - वह सकुचाई सी बोली - ‘‘दसवीं क्लास में आप मुझे पढ़ाया करते थे। फिर उसी साल आप विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नियुक्त हो गये थे। याद आया आपको?‘‘ युवती ने अपनी जिज्ञासा भरी निगाहें प्रोफेसर के चेहरे पर टिका दीं।
प्रोफेसर ने पलभर में अपने मस्तिष्क को मथ डाला, यूं जब उसके ज्ञानचक्षु खुले, चेतना का संचार हुआ, तो उसे वह लड़की याद आई, मरघिल्ली सी, बात-बात पर आंसू बहाना शुरू कर देने वाली, एक किशोरी जिसका नाम माधुरी था। उन दिनों जिसे हर कोई - स्वयं प्रोफेसर भी - कुपोषण का शिकार समझता था। वह यूं कभी किसी कवि की उपमाओं को साक्षात करती हुई उसके सामने आ खड़ी होगी! प्रोफेसर ने कभी सोचा तक नहीं था।
‘‘माधुरी!‘‘ जैसे उसने स्वंय भाषण किया हो।
‘‘जी हां माधुरी, दसवीं के बाद मैं दिल्ली चली गई थी, अपनी मौसी के यहां, ग्रेज्युएशन तक की शिक्षा मैंने वहीं से ली है। बीच में कई बार वापिस लौटी, कई बार आपसे मिलने की इच्छा मन में बलवती हुई मगर कभी आप उपस्थित नहीं थे तो कभी मेरे पास अवकाश नहीं था। सच कहती हूं, यहां से दिल्ली जाने के बाद मैंने जितना आपका स्मरण किया उतना किसी का नहीं, अपनी सहेलियों का भी नहीं।‘‘
प्रोफेसर के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी, ‘‘अच्छा! स्मरण का कारण कुछ रहा होगा?‘‘
‘‘आप जिस तरह मेरा उत्साह बढ़ाया करते थे, वह विस्मृत नहीं किया जा सकता। विद्यालय में आप मेरे सर्वाधिक प्रिय शिक्षक थे, वर्तमान में भले ही आप मेरे शिक्षक नहीं हैं, मगर आपके प्रति मेरा लगाव ज्यों का त्यों है। मैं आज भी उतना ही, अपितु पहले से ज्यादा आपको पसंद करती हूं।‘‘
माधुरी की बातें प्रोफेसर के अंतर्मन में एक नये आनंद को जन्म दे रही थीं, एक सोता सा फूटा था जिसके बहाव में निरंतर तेजी आती जा रही थी। मुखमंडल पर प्रसन्नता, खिलने को तत्पर कुमुदनी की तरह अपनी छटा बिखेरने लगी थी। वह बहता जा रहा था! आनंद के अचानक फूटे सोते के तेज बहाव में, एक नई ऊर्जा उसे अपने भीतर अनायास ही संचरित होती महसूस होने लगी। वह एक नया पथ था, एक नई - दबी हुई ईच्छा थी, जो सौंदर्य के मुखौटे से पल्लवित होकर उसे अपने भीतर समाहित कर लेने को आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी।
अचानक वह अपनी कुर्सी से उठा, मेज की अर्ध-परिक्रमा करके बाहर निकला, फिर सोफे की तरफ इंगित करता हुआ माधुरी से बोला, ‘‘यहां आराम से बैठ जाओ।‘‘
‘‘पहले आप बैठिए।‘‘
प्रोफेसर ने सहमति में सिर हिलाया और सोफे पर एक किनारे होकर बैठ गया। माधुरी तकरीबन उससे सटकर बैठ गयी। बैठते समय प्रोफेसर को उसके कंधे का हल्का सा स्पर्श मिला तो सहसा उसे अपने शरीर में कंपन सा महसूस होने लगा, सुख की ऐसी अनुभूति हुई जो कदाचित उसने पूर्व में कभी महसूूस नहीं किया होगा।
‘‘मेरा परिचय बहुत हो चुका अब अपने बारे में बताइए, कैसा चल रहा है आप का अध्यापन कार्य।‘‘
‘‘अच्छा चल रहा है, तो अब तुम यहीं रहोगी?‘‘
‘‘जी हां, परिवार पर बोझ जो बन गई हूं, जल्दी से हाथ पीले कर देना चाहते हैं। कल लड़के के परिवार वाले मुझे देखने के लिए आए थे। निगाहों से ऐसे मुझे टटोल रहे थे कि पूछिए मत, मैं एकदम से सिमटकर रह गई। भला ये भी कोई रिवाज हुआ, जैसे बेटे के लिए दूल्हन ना तलाश रहे हों, बाजार से सामान खरीदने निकले हों।‘‘
‘‘हमारा समाज ऐसा ही है, कुछ नहीं हो सकता, सुधार की उम्मीद हम कर सकते हैं माधुरी, मगर बदलाव तो सदियों बाद ही आएगा। तुम्हें वो सब अनोखा इसलिए लगा क्योंकि तुमने जीवन के कई वर्ष मुंबई जैसे बड़े महानगर में व्यतीत किये हैं। यहां तो हर लड़की को जाने कितनी बार ऐसे तौर तरीकों से गुजरकर अपने मांग का सिंदूर मिलता है, तुम्हें भी जल्दी ही इसकी आदत पड़ जाएगी।‘‘
‘‘कह नहीं सकती, लड़के की फोटो दिखाई गई थी मुझे, सूरत से ही गवारों का सरदार प्रतीत होता था। जब पिता जी ने पूछा कि लड़का करता क्या है तो जवाब मिले लड़के को भला कुछ करने की आवश्यकता ही क्या है, बाप दादा की इतनी जमीनें हैं कि बाजार भर जाता है, फिर भी हर साल बहुत कुछ दान कर देना पड़ता है।‘‘
‘‘तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम्हें लड़का पसंद नहीं आया।‘‘
‘‘तनिक भी नहीं, उसकी सूरत देखकर ही मुझे अरूचि हो आई, पिता जी से साफ कह दिया कि मुझे उस लड़के से शादी नहीं करनी। मेरी सारी जिन्दगी इस फैसले पर निर्भर करती है, मैं भला यूं..... अरे कुछ दिखाई तो दे मेरे होने वाले पति में, किसी काबिल तो हो वह! अब आप स्वयं को देखिए, कितना ओज, कितना ठहराव दिखाई देता है आप में, थोड़ा फैशन के साथ रहें तो आज के नौजवान मात खा जाएं। आप बचपन से ही मुझे बहुत अधिक पसंद हैं, मैं अक्सर सोचती थी, अभी भी सोचती हूं कि मेरा पति आपके जैसा हो! - प्रोफेसर विचलित हो उठा, मन में पहले ही स्थान बना चुकीं असामान्य भावनायें एकदम से फन उठाकर खड़ी हो गईं - वह जब बाहर निकले तो लोग उसके सामने नतमस्तक हो जाएं, उसके ज्ञान और व्यक्तित्व के आगे लोग स्वयं को अकिंचन महसूस करें। ताकि मैं गर्व से कह सकूं कि मैं प्रोफेसर नित्यानंद पांडे की पत्नी हूं। सच कहती हूं प्रोफेसर साहब, मैं जब कभी अपने भावी पति का अक्श अपने दिमाग में बनाने की कोशिश करती हूं तो वह आप से मिलता-जुलता ही निकलता है। मन होता है आपसे ही कह दूं कि कोई अपने जैसे व्यक्ति ढूंढ लाइए और अपनी माधुरी का ब्याह उससे करा दीजिए, एहसान होगा मुझपर। कहिए करेंगे ऐसा, बोलिए ना!‘‘
जैसे कोई शिशु मचल उठा हो, उसने प्रोफेसर का हाथ तनिक अपनी ओर खींचा, उस कोशिश में प्रोफेसर थोड़ा उसकी तरफ झुक सा गया, उसकी बांह माधुरी के वक्षस्थल को स्पर्श करने लगी, उस क्षण प्रोफेसर के मन में सैकड़ों ख्याल उभरे जिनसे माधुरी पूरी तरह निर्लिप्त थी। प्रोफेसर ने उसकी तरफ झुक आए अपने शरीर को सीधा करने का प्रयत्न नहीं किया ना ही अपनी बांह को वापिस खींचने की कोशिश की। रति की संलिप्तता नहीं थी परन्तु वह उसकी उपस्थिति और उसके प्रभाव से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया, यथास्थिति बना रहा। माधुरी उससे कुल जहान की बातें करती जा रही थी, मगर उसके शब्द प्रोफेसर के कानों तक नहीं पहुंच रहे थे, उसका सारा ध्यान केंद्रित होकर उस बांह पर चिपका हुआ था जो माधुरी के वक्षस्थल को स्पर्श कर रही थी।
‘‘अब चलती हूं!‘‘ कुछ समय पश्चात वह उठकर खड़ी हो गई, प्रोफेसर उसे दरवाजे तक छोड़ने आया, दरवाजा पार करने से पूर्व वह प्रोफेसर की तरफ घूमी, ‘‘मेरी बात पर विचार कीजिएगा, आप जिसको भी पसंद करेंगे मैं उसे देखे बिना ब्याह रचा लूंगी। इतना विश्वास है मुझे आप पर। बहुत अच्छे इंसान हैं आप!‘‘
उसकी आंखे अचानक ही सजल हो उठीं, बाहर निकलने से पूर्व उसने प्रोफेसर का आलिंगन किया और प्रस्थान कर गयी।
प्रोफेसर चित्रलिखित सा उसे जाता हुआ देखता रहा। उसके मस्तिष्क में माधुरी की कही बातें नगाड़ों सी ध्वनि कर रही थीं। क्या वह इशारा था, यह प्रगट करने का कि माधुरी उसपर मुग्ध हो उठी है। क्या वह ये कहना चाहती थी कि प्रोफेसर को वह अपना जीवनसाथी बनाना चाहती है? प्रश्न अनेक थे, उत्तर भी अनेक हो सकते थे किंतु प्रोफेसर ने उन उत्तरों को तलाशने की कोशिश नहीं की।
शीशे के सामने खड़े होकर अपने बालों में छिटक रही चांदनी का नजारा करने लगा। उसकी उम्र पैंतालिस हो चुकी थी, किंतु कुछ गिने चुने बालों ने ही अपनी रंगत खोई थी। विवाह उसने नहीं किया था, कुछ मिनट पूर्व तक उसके मन में ख्याल तक नहीं आता था वैवाहिक सूत्र में बंधने का, मगर माधुरी का आगमन जैसे ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक गया था, लहरें उठने लगी थीं, जिनपर शीध्र विराम नहीं लगाता तो वह लहरें कालांतर में तूफान का रूख ले सकती थीं। मगर इस समय ज्ञान से उसका रिश्ता टूट चुका था। बुद्धि की देवी कदाचित उसके वाम भाग में जा बैठी थीं। खुद को आईने में निहारता वह निरंतर आत्ममुग्धता का शिकार होता रहा।
तारीख बदलने से पूर्व प्रोफेसर नित्यानंद पांडे की काया परिवर्तित हो चुकी थी। सबसे पहले उस नाई के चेहरे पर आश्चर्य के भाव परिलक्षित हुए जिसे प्रोफेसर ने बालों को रंग करने का आदेश दिया। तत्पश्चात दर्जी की भी आंखें फटी रह गईं, कानों तक पहुंचे शब्दों पर सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ, जब हमेशा कुर्ता पैजामा सिलवाने वाले प्रोफेसर साहब ने उसके सामने पैंट-बुशर्ट का कपड़ा रखकर कहा कि कल तक सिल जाना चाहिए।
दर्जी की दुकान से वापिस लौटने तक प्रोफेसर का पूरा व्यक्तित्व परिवर्तित हो चुका था। गर्दन में अकड़ थी, छाती पांच इंच बाहर निकल आई थी, कदम मजबूती से जमीन पर गड़ते जान पड़ते थे। बीते दो दशक की बात बन चुकी नौजवानी फिर से अंगड़ाई लेने लगी। सबकुछ अचानक ही मनभावन प्रतीत होने लगा मानो ज्येष्ठ मास में बसंत ने दरवाजे पर दस्तक दे दी हो।
अगले दिन फिर माधुरी का आगमन हुआ। वह जींस की काली पैंट और स्लीवलेस टाॅप पहने हुए थे। प्रोफेसर अपनी सुध खोकर उसके सौंदर्यपान में रम सा गया। उस दिन माधुरी को सोफे पर बैठाने के बाद वह अधिकार पूर्ण ढंग से उसकी बगल में बैठ गया। अपने कपड़ों पर उसने कोई इत्र छिड़का हुआ था जिससे कमरे का वातावरण महक रहा था।
‘‘प्रोफेसर साहब!‘‘ - जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई - ‘‘आज आप कुछ बदले बदले से प्रतीत हो रहे हैं।‘‘
‘‘ऐसा नहीं है, तुम बताओ शादी की बात कहां तक पहुंची?‘‘
‘‘कहीं नहीं, मैंने कल कहा तो था आपसे, मैंने पिता जी को इंकार कर दिया था।‘‘
‘‘करना ही चाहिए, ऐसी बातों पर चुप रहना मतलब अपनी जिंदगी को जानबूझकर नर्क की आग में ढकेलने जैसा होता है। तुमने बहुत अच्छा किया, लड़कियों को ऐसे वक्त पर अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन प्रत्यक्ष, बिना सकुचाए करना चाहिए। तभी इस देश की नारी अपना वह सम्मान प्राप्त कर सकेगी, जो उसका हक है। पढ़ने-लिखने का कोई मतलब तो तभी है जब लड़कियों को अपनी आजादी का एहसास हो। वह अपने फैसले खुद कर सकें, ना कि माता-पिता की बताई राह पर नेत्र मूंदे आगे बढ़ जाएं, आखिर स्वयं का विवेक भी तो होना चाहिए। फिर तुम इतनी खूबसूरत हो, पढ़ी-लिखी हो, तुम्हें लड़कों की भला क्या कमी होगी, जो तुम्हारे अभिभावक यूं जल्दी मचा रहे हैं। अभी तुम्हारी अवस्था ही क्या है, मेरे विचार से तुम उन्नीस या बीस वर्ष की होगी।‘‘
‘‘बीस की हूं प्रोफेसर साहब। मगर पिता जी को लगता है उम्र निकली जा रही है। आप ही थोड़ा समझाइए न उन्हें, आपकी बात यहां कोई नहीं टालेगा।‘‘
‘‘मैं समय निकालकर आऊंगा किसी दिन तुम्हारे घर।‘‘
‘‘नहीं अभी चलिए!‘‘ - माधुरी ने प्रोफेसर का हाथ थाम लिया, फिर अधिकार पूर्ण ढंग से खींचती हुई बोली - ‘‘चलकर समझाइए उन्हें, मेरी तो एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे, किंतु आपकी बात को गंभीरता से सुनेंगे, सुनकर उसपर मनन जरूर करेंगे।‘‘
प्रोफेसर ‘बाद में‘ कहता रह गया किंतु माधुरी ने एक नहीं सुनी। प्रोफेसर ने माधुरी के पिता को तरह-तरह के उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया कि क्यों अभी माधुरी का विवाह आवश्यक नहीं था। उस दिन माधुरी ने अपने घर में प्रोफेसर की खूब खातिर की, माधुरी के अनुरोध पर रात के खाने तक उसे वहीं ठहरना पड़ा था।
अब प्रत्येक दिन माधुरी उसके कालेज से लौटने के बाद उसके घर आ जाती, दोनों के मध्य खूब बातें होतीं, वह माधुरी की बातों को बड़े ही मनोयोग के साथ सुनता, सुनकर उन्हें अपने इच्छानुसार अर्थ देता और पूरी-पूरी रात जागकर उन अर्थों को अपने खुद के बनाये सांचे में नया रूप देकर उन्हें उनकी परिणति तक पहुंचाता।
नींद ना आने की बीमारी उसे पहले से ही थी, अक्सर वो बिस्तर पर जाने से पहले नींद की एक गोली गटक लेता था। मगर अब उसे उन गोलियों की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि वह निद्रा के आगोश में जाना ही नहीं चाहता था। वह जागते हुए स्वप्न देखता, इसलिए सोने पर उन स्वप्नों के टूट जाने के अंदेशे से भयभीत हो उठता था। धीरे-धीरे वह स्वप्न लोक में विचरने का इस तरह अभ्यस्त हो गया कि एक बार भी उसके मन में ये ख्याल नहीं आया कि जिन बातों को लेकर वह एक नई दुनियां का निर्माण करने को तत्पर था, वह बातें मात्र दो पीढ़ियों के अंतराल से उत्पन्न हो रही थीं। उनके कोई मायने नहीं थे, वह सिर्फ उतनी ही थीं जितनी माधुरी के मुख से उसके कानों तक पहुंच रही थीं। उनमें कोई विशेष अर्थ निहित नहीं था। उनका कोई और जवाब संभव नहीं था, जिसे वह रातों को जागकर खोजा करता था।
फिर एक दिन उसने माधुरी का मन टटोलने का निश्चय किया। रविवार होने की वजह से उस दिन माधुरी दोपहर में ही उसके सामने उपस्थित हो गई थी। प्रोफेसर को इस बात का पूरा-पूरा अनुमान था, इसलिए वह सुबह से ही सज-धजकर, नई पैंट-बुशर्ट धारण कर के उसके आगमन का इंतजार कर रहा था।
इधर-उधर की बातें करते हुए चर्चा ज्योंही माधुरी की शादी तक पहुंची, प्रोफेसर ने बात लपक ली, ‘‘तुम बहुत खूबसूरत हो माधुरी और गुणी भी!‘‘ - बहेलिए ने अपना जाल फैलाया - ‘‘मैं तुम्हारी उम्र का होता तो निश्चय ही तुम्हारे पिता के सामने पहुंचकर तुम्हारा हाथ मांग लेता। तुम्हें अपनी जीवन संगिनी बनाकर मैं स्वयं को धन्य महसूस करता।‘‘
‘‘अरे अभी तो आप पूरे जवान हैं प्रोफेसर साहब, मेरी मानिए तो एक बार प्रयत्न कर ही लीजिए, मैं भी इस रोज-रोज की लड़की दिखाने के रस्मो-रिवाज से व्यथित हो चुकी हूं।‘‘ कहकर वह अचानक ही खिलखिला उठी।
प्रोफेसर बड़े ही अनुराग से उसे ताकता रहा, माधुरी की खिलखिलाहट उसके अंतःकरण में स्पंदन पैदा करने लगी। अब इस बात में उसे किंचित मात्र भी संदेह नहीं रह गया कि माधुरी के मन उसकी ब्याहता बनने की चाह है। बस अपनी स्त्रीयोचित संकोच के कारण वह अपने मन के भावों को शाब्दिक रूप नहीं दे पा रही थी।
उस दिन जब माधुरी जाने लगी तो प्रोफेसर ने अपनी बाहें फैला दीं, उसका मन्तव्य समझकर माधुरी उसकी बाहों में समा गई। उसने अपनी बाहों को कसकर प्रोफेसर का आलिंगन किया।
‘‘आप बहुत अच्छे हैं प्रोफेसर साहब, आपसे जब भी मिलती हूं तो मुझे स्वयं के भीतर एक नई प्रकार की ऊर्जा का संचार होता महसूस होता है। वो कुछ ऐसा होता है, जिसे आत्मसात करने के पश्चात मन होता है कि यहीं आपके पास रह जाऊं। सुबह से शाम तक आपसे बातें करती रहूं, आपके ज्ञान के भंडार से कुछ बूंदें चुराती रहूं।‘‘
वह प्रोफेसर से अलग हुई, ‘‘अब चलती हूं, कुछ दिन नहीं आ पाऊंगी, बुआ के यहां जा रही हूं।‘‘
वह हवा के झोंके की तरह कमरे से बाहर निकल गई। प्रोफेसर उसकी आखिरी बात सुनकर सहम सा गया। मन के भीतर कुछ चटकता सा प्रतीत हुआ। वह तो ये भी नहीं पूछ सका कि वापिस कब आओगी।
अगले दिन प्रोफेसर काॅलेज नहीं गया। उसने फोन करके छुट्टी ले ली। उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था। वक्तगुजारी के लिए उसने कई बार कई पुस्तकें उठाईं मगर दो पंक्तियां भी नहीं पढ़ पाता कि माधुरी का चेहरा उसकी आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता और यूं उसका मन पुस्तक से हटकर माधुरी के साथ व्यतीत हुए क्षणों की पुनः कल्पना करने में व्यस्त हो जाता।
तीसरे दिन प्रोफेसर ने धैर्य गवां दिया। सुबह होते ही वह माधुरी के घर पहुंच गया। मालूम हुआ वह सप्ताह भर बाद वापिस लौटेगी। उस बात ने प्रोफेसर पर वज्रपात सा असर किया। पल भर को यूं महसूस हुआ जैसे कोई उसके हृदय को अपनी मुट्ठी में भींच रहा हो। पिछले कुछ दिनों में आनंद की जिस पराकाष्ठा पर वह पहुंच चुका था, माधुरी के वियोग ने उसे पल भर में उससे कई गुणा रसातल में ला पटका था।
वह डगमगाते कदमों से घर पहुंचा। सोफे पर दोनों हाथों से सिर थाम कर बैठ गया।
अचानक माधुरी का स्वर सुनाई दिया, ‘मैं जब भी अपने भावी पति का कोई अक्श बनाती हूं तो वह आपसे मिलता-जुलता ही निकलता है।‘
वह बौखलाया, अनायास ही उसकी निगाह सोफे पर पड़ी जहां माधुरी बैठा करती थी। उस स्थान को वह जाने कब तक अनुरागित नेत्रों से निहारता रहा।
वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? कैसे अपने मन को शांत करे। कहां जाए, किससे मिले जो उसकी अंर्तवेदना को समझ सके, उसे कोई राह दिखा सके। सात दिन! उसे विश्वास हो चला कि सात दिनों तक वह माधुरी को दोबारा देखने के लिए इस संसार में नहीं रह पायेगा।
नख-शिख, प्रेम की चासनी में सराबोर प्रोफेसर अगले ही दिन माधुरी की बुआ के गांव पहुंच गया। उसने कई बार उसके घर के सामने से आना-जाना किया, इस उम्मीद में कि क्या पता उसकी कोई झलक पाने में सफलता मिल जाय। किंतु ऐसा नहीं हुआ, तमाम उद्योग निष्फल रहा। शाम हो आई तो प्रोफेसर वापिस अपने गांव लौट आया।
रात्रि का सफर सबसे मुश्किल साबित हुआ, नींद तो कोसों दूर पहले से ही थी, अब तो उठना-बैठना भी दुस्सह प्रतीत हो रहा था। उसने खुली आंखों से सपना देखना शुरू किया, माधुरी सोलह श्रृंगारों से सुशोभित, दूल्हन के लिबास में उसके सामने सिर झुकाये बैठी थी। उसने आगे बढ़कर उसका घूंघट पलट दिया, फिर उसके नजदीक बैठकर उसके वजूद को उसने अपनी बाहों के घेरे में ले लिया। वक्त का पहिया आगे सरका, तो दो नन्हें-मुन्ने बच्चे घर में किलकारियां मारते दिखाई दिये। दोनों एकदम अपनी मां का प्रतिबिम्ब थे।
उसके देखते ही देखते बच्चे घर से बाहर खेलने चले गये। तब माधुरी उसके नजदीक पहुंची। उसने झुककर उसकी चरणरज ली और अपने मांग में भरती हुई बोली, ‘‘आपने मुझे अपनाकर मुझपर बहुत बड़ा उपकार किया है प्रोफेसर साहब, आपकी भार्या बनकर मैं धन्य हो गई।‘‘
यूं ही अपने मन मुताबिक सपने गढ़ते हुए रात आखों में कट गयी। आखिरी पहर में उसे हल्की सी झपकी आई तो सपने में उसने माधुरी को एक भयंकर चुडै़ल का रूप लेते देखा। जो अपनी बालों से भरी भुजाएं फैलाये उसकी तरफ बढ़ रही थी। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने महसूस किया कि उसका बदन बुरी तरह से तप रहा है।
पांचवे दिन तक उसकी अवस्था ऐसी हो गई कि उसके भीतर बिस्तर से उठ पाने की शक्ति शेष नहीं बची। गांव का डाॅक्टर आकर उसे सुबह शाम दवाईयां दे जाता, मगर मर्ज उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था।
छठें दिन माधुरी लौट आई। प्रोफसर की अवस्था देखकर उसकी आंखें डबडबा गईं। किंतु उसके आगमन का बड़ा ही प्रत्याशित प्रभाव पड़ा। प्रोफेसर के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार हुआ, वह उठकर बैठ गया।
माधुरी ने पानी लाकर उसका मुंह हाथ धुलवाया फिर अपने घर से उसके लिए खाना ले आई, उसने अपने हाथों से प्रोफेसर को जबरदस्ती निवाले खिलाए। उसका प्रेम देखकर प्रोफेसर की आंखे सजल हो उठीं, उसे रोता देखकर माधुरी भी रो पड़ी।
‘‘अपना ख्याल रखा कीजिए प्रोफेसर साहब!‘‘ - माधुरी रोती हुई बोली - ‘‘इस तरह सेहत से दुश्मनी निकालेंगे तो चार दिन भी नहीं जी पायेंगे।‘‘
‘‘तो मत जाया करो मुझे छोड़कर, अब यहीं रह जाओ। भला ऐसा ध्यान मेरा और कौन रख सकता है?‘‘
‘‘आपकी भार्या रखेगी न, मेरी मानिए तो अभी देर नहीं हुई है, विवाह कर लीजिए, आपके लिए तो कन्याओं की लाईन लग जायेगी। मैं खुद ढ़ूढ लाऊंगी आपके लिए आपके योग्य लड़की, आप हामी तो भरिए।‘‘
‘‘और कोई तुम्हारे जैसी नहीं निकली तो?‘‘
‘‘जरूर निकलेगी, इसलिए फौरन इस शुभ कार्य को पूर्ण कर डालिये, या हम दोनों एक ही मंडप में विवाह कर लेंगे, खर्चा भी बच जायेगा।‘‘ - रोते-रोते वह खिलखिला उठी - ‘‘अरे हां मैं आपको बताना भूल गई, मेरा विवाह तय हो गया है। तीन महीने बाद की तारीख निश्चय हुई है। आप कहीं चले मत जाइएगा, क्योंकि सबसे पहले मैं अपने दूल्हे को आपसे ही मिलवाऊंगी। आखिर आप भी तो मेरे पिता की तरह ही हैं, बल्कि मैं तो आपको उनसे भी बढ़कर मानती हूं। देखिएगा मेरा दूल्हा एकदम आप की तरह दिखता है। अच्छा अब चलती हूं आराम कीजिए कल फिर आऊंगी।‘‘
वह उठी और किसी भयंकर तूफान की तरह प्रोफेसर नित्यानंद पांडेय के समूचे वजूद को तहस-नहस कर के दरवाजा खोलकर उसके घर से बाहर निकल गई।
प्रोफेसर आखें फाड़े, बिना सांस लिए उसे जाता देखता रहा, उसके अंतिम शब्द नगाड़े की तरह प्रोफेसर को अपने कानों में बजते प्रतीत हो रहे थे। जाने कितनी देर तक खुले दरवाजे की तरफ मुंह बाये, शून्य में ताकता रहा। यूं महसूस हो रहा था जैसे सोमरस की तरफ बढ़ते उसके हाथों को किसी ने मरोड़कर पीठ के पीछे कर दिया हो।़
आधी रात तक वह विचारों के बवंडर में घिरा किसी बच्चे की तरह आंसू बहाता रहा। फिर बड़े प्रयत्न से अपने स्थान से उठा और दीवार के साथ लगाकर खड़ी की गई आलमारी तक पहुंचा।
‘मुझे मालूम था सभी स्त्रियां ऐसी ही होती हैं, छल-कपट से भरी हुईं, तुम भी तो स्त्री ही थीं, मुझे सोचना चाहिए था, मनन करना चाहिए था। मगर क्या करता तुमने जाल ही इतना सुदृढ़ बुना था, कैसे नहीं फंसता। उफ! क्यों किया तुमने ऐसा, क्यों मेरे मन की बंजर भूमि में बसंत राग गाया, क्यों मरूस्थल में सरिता का बोध कराया! क्यों किया तुमने ऐसा छल मेरे साथ...... मगर करती क्यों नहीं, आखिर स्त्री जो ठहरीं, ऊपर से आधुनिक नारी, तुम लोगों को तो ये सब दिल्लगी लगता होगा। मानस में ठीक ही लिखा है, ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना .......‘
जाने क्या-क्या आत्म भाषण करते हुए उसने आलमारी में रखी नींद की गोलियों की शीशी बाहर निकालकर अपनी हथेली पर पलट लिया, फिर सारी गोलियां एक साथ मंुह में रखकर बिना पानी के निगल गया।
समाप्त