Wednesday, April 5, 2017

अनदेखा खतरा     

जूही मानसिंह को लगता था, कोई है जो उसकी जान लेना चाहता है। वो हर वक्त खुद को एक  अनजाने अनदेखे खतरे से घिरा हुआ महसूस करती थी। उसका दावा था कि उसकी हवेली में नर-कंकाल घूमते थे! मरे हुए लोग अचानक उसके सामने आ जाते और फिर पलक झपकते ही गायब हो जाते थे। बंद कमरे में उसपर गोलियां चलाई जाती थीं, बाद में ना तो हमलावर का कुछ पता चलता, ना ही उसकी चलाई गोलियां ही बरामद होती थीं। हद तो तब हो गई जब वो एक ऐसे डाॅक्टर की प्रिस्क्राइब की हुई दवाइयां खाती पाई गई - जिस डाॅक्टर का कोई वजूद ही नहीं था।
                 क्या पुलिस, क्या मीडिया! यहां तक कि उसके भाई को भी यकीन आ चुका था कि पिता की मौत के सदमे ने उसका दिमाग हिला दिया था! वो पागल हो गई थी। बावजूद इसके वो पुरजोर लहजे में चीख-चीख कर कह रही थी- मैं पागल नहीं हूं! सुना तुमने मैं पागल नहीं हूं.....!
ऐसे में जब प्राइवेट डिटेक्टिव विक्रांत गोखले ने मामले की तह में जाने की कोशिश की, तो एक के बाद एक हैरतअंगेज, दिल दहला देने वाले वाकयात सामने आते चले गये--------


                                    अनदेखा खतरा


             मैं अपने फ्लैट में सोफा चेयर में धंसा हुआ, सिगरेट का कस लेने में मशगूल था। दस बज चुके थे मगर आॅफिस जाने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं था। सिगरेट के कश लेता हुआ मैं ये तय करने की कोशिश कर रहा था कि क्या करूँ, आॅफिस ना जाने की सूरत में क्या करूं?
इन दिनों कोई खास काम मेरे हाथ में नहीं था और गैर-खास काम करने की आपके खादिम को आदत नहीं थी, बर्शते कि बहुत ही ज्यादा कड़की भरी जिंदगी ना चल रही हो। मेरी रिसेप्शनिष्ट कम सेक्रेटरी-कम-पार्टनर-कम-सब कुछ-शीला वर्मा पिछले दो दिनों से छुट्टी पर थी। दरअसल वह अपनी किसी दूर के रिश्तेदार से मिलने सीतापुर गई हुई थी। मेरी उसे सख्त हिदायत थी कि वहाँ पहुँचकर पहली फुर्सत में वो मुझे फोन करे।
मगर थी तो आखिर एक औरत ही! एक बार में कोई बात भला भेजे में कैसे दाखिल हो सकती थी। लिहाजा दो दिन बीत जाने पर भी मुझे उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली थी।
मैं उसके लिए फिक्रमंद था।
उतना ही जितना मैं अपनी काम वाली बाई के लिए फिक्रमंद होता हूं! भला जूठे बर्तन धोना क्या कोई हंसी मजाक है।
बहरहाल शीला के बिना अपने आॅफिस जाकर, तनहाई की बोरियत झेलते हुए किसी क्लाइंट का इंतजार करना, अपने आप में निहायती लानती काम था। टेलीफोन के लिए आॅनसरिंग सर्विस की सुविधा मुहैया थी। अगर कोई मुझे फोन करता तो मैसेज मुझे मिल जाना था। इसलिए आॅफिस जाना भी जरूरी नहीं था।
वैसे तो आज के मोबाइल के दौर में शायद ही कोई लैंडलाइन पर काॅल करता हो फिर भी कमबख्त शीला को जैसे कोई अलामत थी वह जब तक जीभरकर लैंडलाइन की घंटी ना बजा ले मोबाइल पर काॅल करना तो उसे सूझता ही नहीं था।
अब आप सोच रहे होंगे कि अगर मैं उसके लिए फिक्रमंद हूं तो खुद उसके मोबाइल पर काॅल क्यों नहीं कर लेता।
उसकी माकूल वजह पहले ही बयान कर चुका हूं कि मैं उसके लिए किस हद तक फिक्रमंद हूं। ना-ना, आप मेरे बारे में गलत धारणा बना रहे हैं। मेरी बातों का मतलब ये हरगिज ना लगायें कि मुझे उसकी परवाह नहीं है। उल्टा इस दुनियां में खुद के बाद अगर बंदा किसी की परवाह करता है तो वह शीला वर्मा ही है। मगर है वो पूरी की पूरी आफत की पुड़िया। और आफत! जैसा कि आप जानते ही होंगे, जहां जाती है दूसरों को फिक्र में डाल डेती है, फिर भला आफत की क्या फिक्र करना।
क्या नहीं आता कम्बख्त को! मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट है। निशाना उसका इतना परफेक्ट है कि क्या कहूं! अगर वह एकलब्य की जगह होती तो द्रोणाचार्य ने सिर्फ उसका अंगूठा मांगकर तसल्ली ना की होती बल्कि पूरा हाथ ही निपटवा दिया होता। अर्जुन को हीरो जो बनाना था।
और डांस!....माई गाॅड, डांस फ्लोर पर जाते ही उसके जिस्म की सारी हड्डियां जगह-जगह से टूटी हुई महसूस होने लगती हैं? जरूर प्रभु देवा साहब का असर होगा। कहती है बचपन से उनका डांस देखती हुई बड़ी हुई है, पता नहीं वो प्रभुदेवा साहब को उम्रदराज साबित करना चाहती थी या खुद को कमसिन साबित करना चाहती थी। वैसे भी जो प्रभू भी हो और देवा भी हो उसकी चेली ने कुछ तो खास होना ही था और वो खास बात उसके डांस में दूर से ही नुमायां हो जाती थी।
खूबसूरत इतनी कि मत पूछिये, ऐश्वर्या जी पर रहम खाकर उसने मिस वल्र्ड 1994 की प्रतिस्पर्धा से अपना नाॅमीनेशन वापस न लिया होता तो आज आप उसके जलवे देख रहे होते और मुझे उसपर डोरे डालने का कोई चांस ही हांसिल न होता।
सबकुछ वाह-वाह! वाला था, बस कमबख्त में एक ही ऐब था - मुझे जरा भी भाव नहीं देती थी।
बहरहाल जैसा की मैंने बताया - घर में बैठा सिगरेट फूंकने का निहायत जरूरी काम कर रहा था और आॅफिस जाने का मेरा कोई इरादा नहीं था। अब सवाल ये था कि आॅफिस ना जाने की सूरत में क्या किया जाए? सिगरेट का कश लगाने के अहम काम को मुल्तवी करके क्या किया जाय! अभी मैं इसी उधेड़बुन में फंसा हुआ था कि टेलीफोन की घण्टी बज उठी।
जनाब मेरी सलाह है कभी भी टेलीफोन या मोबाईल की काॅल पहली घंटी पर हरगिज ना अटैंड करें, बल्कि उसे बजने दें, ताकि काॅल करने वाले को यकीन आ जाय कि आप कितने व्यस्त हैं-जो कि आप बिल्कुल नहीं होते-मगर इससे सामने वाले को एहसास होता है कि उसकी काॅल अटैंड करके आपने उसकी आने वाली सात पुश्तों पर कितना बड़ा एहसान किया है।
मैंने कुछ देर तक घंटी बजते रहने के बाद रिसीवर उठाकर कान से सटा लिया।
”हैल्लो“-मैं माऊथपीस में बोला, ”विक्रांत हियर।“
”विक्रांत“-दूसरी तरफ से उसकी खनकती आवाज कानों में पड़ी। कसम से! सच कहता हूं पूरे शरीर में चींटियां सी रेंग उठीं, ”मैं शीला बोल रही हूँ।“
खामोशी छा गयी, मगर इयर-पीस में उसकी सांसों के उतार-चढ़ाव की आवाज आती रही। मैं उन लम्बी-लम्बी सांसों के साथ उसके बदन के फ्रंट पेज पर उठते-गिरते उभारों का तबोस्सुर करने लगा। मैं तो जनाब अभिसार के सपने भी संजो लेता मगर कमीनी ने पहले ही टोक दिया।
”तुम सुन रहे हो।“
”यस, माई डियर, एक ही तो अहम काम है इस वक्त, जो मैं कर रहा हूं।‘‘
”मैं सीतापुर में हूं।“
”अच्छा, मैं तो समझा था तू चाँद पर है।“
”मजाक मत करो प्लीज, गौर से मेरी बात सुनो।“
”नहीं सुनता कोई जबरदस्ती है।“
”ओफ-हो! विक्रांत।“ वह झुंझला सी उठी- ”कभी तो सीरियस हो जाया करो।“
उसकी झुंझलाहट में कुछ ऐसा था जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सका, तत्काल संजीदा हुआ।
‘‘सुन रहे हो या मैं फोन रखूं।‘‘
”अरे-अरे तू तो नाराज हो गई, अच्छा बता क्या बात है, वहां सब खैरियत तो है।“
”पता नहीं यार! यहां बड़े अजीबो-गरीब वाकयात सामने आ रहे हैं। कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या करूं।‘‘
”तू ठीक तो है।“
”हाँ तुम सुनाओ क्या कर रहे हो?“
”झख मार रहा हूँ।“
वह हँस पड़ी। क्या हंसती थी कम्बख्त, दिल के सारे तारों को एक साथ झनझनाकर रख देती थी।
”सोचता हूं जासूसी का धंधा बंद करके, मूँगफली बेचना शुरू कर दँू।“
”नाॅट ए बैड आइडिया बाॅस, लेकिन मूँगफली नहीं गोलगप्पे! सच्ची मुझे बहुत पसंद हैं।“
”क्या, गोलगप्पे?‘‘
”नहीं गोलगप्पे बेचने वाले मर्द़“
”ठहर जा कमबख्त, मसखरी करती है।“
”क्या करूं तुम और कुछ करने ही कहां देते हो, बस मसखरी करके ही काम चला लेती हूं।“
”और कुछ! और कुछ क्या करना चाहती है?“
     ”ओह माई गाॅड! यार विक्रांत तुम मतलब की बात हमेशा गोल कर जाते हो।“
”मतलब की बात!“
”हाँ मतलब की बात जो इस वक्त मैं कर रही हूं।‘‘ वह बेहद संजीदा लहजे में बोली, ‘‘ये तो तुम जानते हो कि मैं यहाँ क्यों आई थी।“
”हाँ तेरे किसी पुराने आशिक का फोन आया था जो तुझसे मिलने को तड़प रहा था। उसी की पुकार सुनकर तू बावली-सी, दिल्ली से सीतापुर पहुंच गई। एक जो यहां पहले से बैठा है उसका तुझे ख्याल तक नहीं आया।“
”नानसेंस, वह फोन मेरे आशिक का नहीं बल्कि हमारे दूर के रिश्तेदार मानसिंह की लड़की जूही का था।”
”तो पहले बताना था कि वो कोई लड़की है, मैंने खामखाह ही पांच सौ रूपये बर्बाद कर दिये।‘‘
‘‘किस चीज पर!‘‘
‘‘कल ही थोड़ा सा संखिया खरीद कर लाया था।‘‘
‘‘किसलिए?‘‘
‘‘सुसाईड करने के लिए।‘‘
‘‘हे भगवान!‘‘उसने एक लम्बी आह भरी,‘‘विक्रांत आखिरी बार पूछ रही हूं तुम ध्यान से मेरी बात सुन रहे हो या मैं फोन रख दूं।‘‘
‘‘जूही को तुम कब से जानती हो।‘‘ मैं मुद्दे पर आता हुआ बोला।
”जानने जैसी तो कोई बात नहीं थी, क्योंकि इससे पहले बस दो-तीन बार अलग-अलग जगह पर रिश्तेदारों की शादियों में हाय-हैलो भर हुई थी, बस उसी दौरान थोड़ी जान-पहचान हो गई थी। तुम यकीन नहीं करोगे सप्ताह भर पहले जब उसने काॅल करके बताया कि वो जूही बोल रही है तो मैं उससे पूछ बैठी कि कौन जूही! कहने का तात्पर्य ये है कि मुझे उसका नाम तक याद नहीं था। मगर पिछले दो दिनों मैं उसके बारे में सबकुछ जान चुकी हूं। वो तो जैसे एकदम खुली किताब है! छल-कपट जैसी चीजें तो जैसे उसे छूकर भी नहीं गुजरी हैं। बहुत ही मासूम है वो, एकदम बच्चों की तरह! ग्रेजुएट है मगर दुनियादारी से एकदम कोरी। ऐसे लोगों की जिन्दगी कितनी कठिन हो जाती है, इसका अंदाजा तुम बखूबी लगा सकते हो।‘‘
”मैं समझ गया तेरी बात, मगर ये समझ नहीं आया कि उसने खास तुझे क्यों बुलाया, जबकि तेरे कहे अनुसार तुम दोनों एक दूसरे को ढंग से जानते भी नहीं थे?“
‘‘उसने खास मुझे नहीं बुलाया विक्रांत, बल्कि चाचा, मामा, मौसा, फूफा वगैरह-वगैरह को फोन कर करके, हर तरफ से निराश होकर, उसने मुझे फोन किया था और झिझकते हुए पूछा था-‘क्या मैं कुछ दिनों के लिए उसके साथ उसके घर में रह सकती हूं।‘‘
‘‘उस वक्त उसका लहजा इतना कातर था विक्रांत, कि मैंने उससे वजह पूछे बिना ही हामी भर दी।‘‘
‘‘बुलाया क्यों था?‘‘
”क्योंकि वो मुसीबतों के ढेर में नीचे-बहुत नीचे कहीं दबी पड़ी है। हाल ही में हुई पिता की मौत तो जैसे उसके लिए सूनामी बनकर आई और उसकी तमाम खुशियां अपने साथ बहा ले गई। सुबह से शाम तक आंसू बहाना और फिर बिना खाए-पिए अपने कमरे जाकर बिस्तर के हवाले हो जाना, यह दिनचर्या बन चुकी है उसकी।‘‘
”यानी कि तू हकीम-लुकमान साबित नहीं हो पाई उसके लिए।“
‘‘समझ लो नहीं हो पाई।‘‘
‘‘ओके अब मैं तुझसे फिर पूछ रहा हूं कि असली मुद्दा क्या है, क्या उसे कोई आर्थिक मदद चाहिए।‘‘
जवाब में वह ठठाकर हंस पड़ी।
‘‘मैंने कोई जोक सुनाया तुझे!‘‘
‘‘कम भी क्या था। तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूं-उसके पास इतनी दौलत है कि उसकी सात पुश्तें बिना हाथ-पांव हिलाए ऐश की जिन्दगी गुजार सकती हैं।‘‘
‘‘जरूर बिल गेट्स की बेटी होगी, अब मैं फिर पूछ रहा हूं कि उसकी प्राॅब्लम्स क्या हंै, कैसी मदद चाहिए उसे?‘‘
”पता नहीं उसे किस किस्म की मदद चाहिए। वह बुरी तरह डरी हुई है। वो समझती है कि उसकी जान को खतरा है। कोई हैै, जो उसे मार डालना चाहता है, वह हर वक्त किसी अनजाने-अनदेखे खतरे से खुद को घिरा हुआ महसूस करती है।“
”घूंट लगाती है?“
”क्या!....कौन?“
”तेरी सहेली और कौन?“
”नहीं वो ड्रिंक नहीं करती?“
”तू कहती है वो डरी हुई है, हर वक्त खुद को किसी खतरे से घिरा हुआ महसूस करती है। ये बता कोई पड़ा क्यों है यूं उसकी जान के पीछे। मेरा मतलब है उसने कोई वजह तो बताई हो, किसी का नाम लिया हो, किसी पर शक जाहिर किया हो?“
”ऐसा कुछ नहीं है, वो किसी का नाम नहीं लेती। मैंने भी बहुत कोशिश की मगर कुछ नहीं पता चला। लेकिन जिस तरह की हालिया वारदातें यहाँ घटित हुई हैं उससे साफ जाहिर हो रहा है कि कोई बड़ा खेल खेला जा रहा है यहां, कोई गहरी साजिश रची जा रही है इस हवेली में।‘‘
”हवेली!“
”हां हवेली-लाल हवेली, जूही यहीं रहती हैं यह उसके पुरखों की हवेली है, उनका खानदान सदियों से यहां रहता चला आ रहा है।“
‘‘ठीक है आगे बढ़।“
‘‘वो कहती है कि मरे हुए लोग अचानक उसके आगे आ खड़े होते हैं। हवेली में नरकंकाल घूमते दिखाई देते हैं। बंद कमरे में कोई अंजान सख्स दो बार उसपर गोली चलाकर उसकी जान लेने की कोशिश कर चुका है।“
”उसको बोल डरावनी कहानियां लिखना शुरू कर दे।“
”देखो बाकी बातों का मुझे नहीं पता मगर नरकंकालों को घूमते मैंने अपनी आंखों से देखा है।‘‘
”अब तू शुरू हो गयी?“
”मुझे मालूम था तुम्हें यकीन नहीं आएगा, यकीन आने वाली बात भी नहीं है।“
”फिर भी तू चाहती है कि मैं यकीन कर लूँ।“
”हाँ और ना सिर्फ तुम्हें यकीन दिलाना चाहती हूँ बल्कि साथ में ये भी चाहती हूँ कि तुम फौरन यहाँ आ जाओ।“
”तौबा मरवाने का इरादा है क्या?“
”क्या?“
”देखो जाने जिगर मैं जासूस हूँ कोई तांत्रिक नहीं, मैं जिन्दा व्यक्तियों से तो मुकाबला कर सकता हूँ, पूछताछ भी कर सकता हूँ मगर किसी भूत-प्रेत या नरकंकाल का इंटरव्यू लेना मेरे बस का रोग नहीं है, फिर उनसे मुकाबला क्या खाक करूँगा।“
”मगर अभी पल भर पहले तो तुम उनके अस्तित्व को नकार रहे थे।“
”मैं सिर्फ तेरी हौसला-अफजाई कर रहा था, तब मुझे ये कहाँ मालूम था कि तू मुझे वहाँ आने को कहने लगेगी, ये तो वही मसल हुई कि नमाज बख्शवाने गये और रोजे गले पड़ गये।“
”यानी कि डरते हो भूतों से।“
”सब डरते हैं यार इसमें नई बात क्या है।“
”मैं तुम्हारी बात कर रही हूँ।“
”मैं तो और भी फट्टू हूं इस मामले में।“
”यानी कि तुम यहाँ नहीं आओगे।“
”हरगिज नहीं अलबत्ता मैं तेरी सहेली की एक मदद जरूर कर सकता हूँ।“
”वो क्या?“
”एक हनुमान चालीसा खरीद कर उसे कूरियर कर सकता हूँ।“
”शटअप।“
”तूने शायद पढ़ा नहीं है उसमें लिखा है जब महाबीर नाम सुनावै भूत पिशाच निकट नहीं आवै।“
”आई से शटअप।“
”मेरी माने तो फौरन से पेश्तर उस भूतिया हवेली से किनारा कर ले।“
”विक्रांत“ - वो गुर्रा उठी - ”मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगी।“
”हे भगवान! तेरे पर ही असर होने लगा उस भूतिया माहौल का, खून पीने की बात करने लगी है।‘‘
”विक्रांत प्लीज! जूही सचमुच किसी बड़ी मुसीबत में है।“ - वह अनुरोध भरे स्वर में बोली - ”उसकी हालत पागलों जैसी हो कर रह गई है, अगर यही हाल रहा तो वह सचमुच पागल हो जाएगी। बल्कि उसका चचेरा भाई तो उसे पागल करार दे भी चुका है। मैंने खुद सुना, वह फोन पर किसी से कह रहा कि-जूही को अब किसी पागलखाने में भर्ती कराना पड़ेगा।“
”जमूरे का नाम क्या है?“
”प्रकाश! पहले मुम्बई में रहता था अपने पेरेंट्स के साथ मगर पिछले कुछ महीनों से यहीं डेरा डाले हुए है। मैंने आज सुबह ही इस बाबत सवाल किया तो कहने लगा कि वो जूही को इस हालत में छोड़कर कैसे जा सकता है।“
”ठीक है, अब फाइनली बता कि तू मेरे से क्या चाहती है।“
”प्लीज यहां आ जाओ। जूही के लिए ना सही मगर मेरी खातिर तो आ ही सकते हो।“
”मैं चाँद पर भी जा सकता हूँ, मगर सिर्फ तेरी खातिर।“
”थैंक्स यार।“ कहकर उसने सीतापुर पहुंचकर लाल हवेली पहुंचने का रास्ता समझाया। फिर काॅल डिस्कनैक्ट कर दिया।
सिगरेट एक्स्ट्रे में मसलने के बाद मैं कुर्सी छोड़कर उठ खडा हुआ। एक बैग में अपना कुछ जरूरी सामान पैक करने के पश्चात् मैंने अपनी अड़तीस कैलीवर की लाइसेंसशुदा रिवाल्वर निकालकर पतलून की बेल्ट में खोंस कर ऊपर से कोट का बटन बन्द कर लिया और कुछ एक्सट्रा राऊण्ड अपनी जेब में रखने के पश्चात् अपना फ्लैट छोड़ दिया। अपनी मोटरसाइकिल द्वारा मैं नीलम तंवर के आॅफिस पहुँचा, रिसैप्शनिष्ट ने बिना पूछे ही मुझे बता दिया कि वो आॅफिस में मौजूद थी।
अठाइस के पेटे में पहुंची नीलम बेहद खूबसूरत युवती थी। वो क्रिमिनल लाॅयर थी, इस पेशे में उसने खूब नाम कमाया था। आज की तारीख में वो वकीलों की फर्म घोषाल एण्ड एसोसिएट की मालिक थी। उससे मेरी मुलाकात लगभग पांच साल पहले एक कत्ल के केस में हुई थी। बाद में घटनाक्रम कुछ यूं तेजी से घटित हुए थे कि उसके बाॅस अभिजीत घोषाल का कत्ल हो गया जो कि इस फर्म का असली मालिक था। घोषाल बेऔलाद विदुर था, हैरानी की बात ये थी कि उसने अपनी वसीयत में पहले से ही नीलम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रखा था, जो कि महज उसके फर्म के दूसरे वकीलों की तरह ही एक वकील थी। बहरहाल उसके कत्ल के बाद उसकी तमाम चल-अचल सम्पत्ति जैसे छप्पर फाड़कर नीलम की गोद में आ गिरी थी। लिहाजा जिस आॅफिस में वह नौकरी भर करती थी आज उसकी इकलौती मालिक थी। और वो सोचती थी कि ये सब मेरी वजह से हुआ था। मैंने भी उसकी ये गलतफहमी दूर करने की कभी कोशिश नहीं की। उसके बाॅस की मौत के बाद गाहे-बगाहे हमारी मुलाकातें होती रहीं। फिर बहुत जल्दी हम अच्छे दोस्त बन गये। आज तक यह दोस्ती ज्यों की त्यों बरकरार थी।
मैं उसके कमरे मंे पहुँचा वो कुछ लिखने में व्यस्त थी।
”हैल्लो।“ - मैं धीरे से बोला।
”हैल्लो“ - उसने सिर ऊपर उठाया और चहकती सी बोली -‘‘हल्लो विक्रांत प्लीज हैव ए सीट।’
”नो थैंक्स मैं जरा जल्दी में हूँ।“
‘‘कभी-कभार मेरे लिए भी वक्त निकाल लिया करो यार! वो कहावत नहीं सुनी चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी ना घटियो नीर। मुझे वो चोंच भर ही दे दिया करो कभी।‘‘
‘‘ताने दे रही हो?‘‘
‘‘हां मगर तुम्हारी समझ में कहां आता है।‘‘
कहकर वो हंस पड़ी मैंने उसकी हंसी में पूरा साथ दिया।
”कहीं बाहर जा रहे हो।“
”हाँ?“
”कहाँ?“
मैंने बताया।
”किसी केस के सिलसिले में या फिर.....।“
”मालूम नहीं।“
”लेकिन जा रहे हो।“
”हाँ शीला भी वहीं हंै उसी ने फोन कर के मुझे वहाँ बुलाया है।“
”ओह! यूं बोलो ना ऐश करने जा रहे हो।“
”मुझे तुम्हारी कार चाहिए।“
उसने कार की चाबी मुझे पकड़ा दी।
”मुझे वहाँ हफ्ता-दस रोज या इससे ज्यादा भी लग सकते हैं।“
”क्या फर्क पड़ता है यार!“ - वह बोली - ”वैसे अगर तुम चाहो तो मैं ड्राईवर को तुम्हारे साथ भेज दूँ, लम्बा सफर है थकान से बच जाओगे।‘‘
”नो थैंक्स।“
”तुम्हारी मर्जी“ - उसने कंधे उचकाये।
आॅफिस से बाहर आकर मैं उसकी शानदार इम्पाला कार में सवार हो गया।
सीतापुर मेरे लिए कदरन नई जगह थी, मगर पूरी तरह से नहीं। करीब दो साल पहले मैं एक बार सीतापुर आ चुका था, और काफी कुछ मेरा देखा-भाला था, मगर फिर भी था तो मैं वहां बेमददगार। जहाँ एक तरफ सीतापुर आई हाॅस्पीटल के लिए मशहूर है, वहीं दूसरी तरफ मेरी निगाहों में आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से उसे क्राईम के लिए भी मशहूर होना चाहिए था, क्योंकि मेरे द्वारा विजिट किए गए शहरों में सबसे ज्यादा क्राइम वाला शहर है, वहाँ के लोग-बाग असलहा साथ लिए यूँ घूमते हैं मानों वो फाॅयर आम्र्स न होकर बच्चों का खिलौना हो।
     तेज रफ्तार से कार चलाता मैं रात के साढ़े आठ बजे सीतापुर पहुंचा।
अधिकतर दुकानें बंद हो चुकी थी बस इक्का-दुक्का ही खुली हुई थीं। जिनके दुकानदार इकट्ठे बैठकर गप्पे हांकने में व्यस्त थे, सड़क पर आवागमन ना के बराबर ही रह गया था। बस कभी-कभार रोडवेज की कोई बस आकर रूकती तो कोलाहल बढ़ सा जाता था। कुल मिलाकर चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। लाल बाग चैराहे पर पहुंचकर मैंने अपनी कार रोक दी और ड्राइविंग डोर खोलकर नीचे उतर आया।
मैं लापरवाही से चलता हुआ बगल में बने एक वाइन शाॅप पर पहुँचा।“
अपनी कुर्सी पर ढेर सा हुआ पड़ा दुकानदार मुझे ग्राहक समझकर सीधा होकर बैठ गया।
”क्या चाहिए?“ - वो उबासी लेता हुआ बोला।
”बियर।“
उसने फौरन एक बियर की बोतल निकालकर काउण्टर पर रख दिया।
”सौ रूपये“ - वो बोला।
मैंने बिल पे कर दिया। कुछ देर अनिश्चित सा वहीं खड़ा रहा।
”आप मुझे लाल हवेली का पता बता सकते हैं।“
‘‘आप सिंह साहब के रिश्तेदार मालूम होते हैं।‘‘
‘‘सिंह साहब!‘‘ मैं अचकचाया।
‘‘हम मानसिंह बाबू जी की बात कर रहे हैं बड़े ही नेक और दयालू व्यक्ति थे। बहुत अफसोस हुआ उनका मौत का सुनकर।‘‘
‘‘क्या कर सकते हैं भई जिसकी जब आई होती है जाना ही पड़ता है, अब कौन जाने अभी तुम अपनी दुकान में जाकर बैठो और आसमान से बिजली गिर पड़े.....मौत का कोई भरोसा थोड़े ही है।‘‘
‘‘ठीक कहत हौ साहब मौत का कौनो भरोसा नाहीं।
मेरी बात से सहमति तजाता हुआ वह दुकान से बाहर निकल आया फिर उसने विधिवत ढंग से मुझे रास्ता बताया और वापस अपनी दुकान में जाकर बैठ गया।
मैं अपनी कार की तरफ बढ़ा, मगर इससे पहले कि दरवाजा खोलकर अंदर बैठ पाता।
”धाँय“ फायर की जोरदार आवाज गूंजी।
गोली मेरे कान को हवा देती हुई गुजर गई। पलभर को मैं सूखे पत्ते की तरह कांप उठा। मगर यह वक्त अपनी कमजोरी जाहिर करने या हैरान होने का नहीं था।
मैंने फौरन खुद को सड़क पर गिरा दिया और घिसटकर अपनी कार के नीचे पहुंच गया। इस दौरान मेरी रिवाल्वर बेल्ट से निकलकर मेरे हाथ में आ चुकी थी।
धाँय...धाँय। -लगातार दो फायर और हुए।
दोनों गोलियां कार की बाॅडी से कहीं टकराईं, मैंने अनुमान से आवाज की दिशा में एक फाॅयर झोंक दिया। एक दर्दनाक चीख उभरी, कुछ दौड़ते हुए किंतु दूर जाते कदमों की आवाज सुनाई दी, फिर एक जोड़ी कदमों की आवाज मुझे अपनी तरफ आती महसूस हुई। मैं दम साधे वहीं पड़ा रहा, थोड़ी दूरी पर किसी गाड़ी का इंजन जोर से गरजा फिर आवाज लगातार दूर होती चली गयी। मैं करीब पांच मिनट तक यथावत पड़ा रहा तत्पश्चात सावधानी से कार के नीचे से बाहर निकल आया। वाइन शाॅप का अटेंडेंट ज्यों का त्यों अपनी दुकान में बैठा कान से मक्खी उड़ा रहा था़ मानों गोलियां ना चली हों, किसी बच्चे ने महज कोई पटाखा फोड़ दिया हो।
मैंने अपने कपड़ों से धूल झाड़ा और एक उड़ती सी नजर अपने आस-पास डालने के पश्चात मैं कार के अंदर जा बैठा।
अभी मैं कार स्टार्ट भी नहीं कर पाया था कि मुझे गाड़ी की पिछली सीट पर हलचल का आभास मिला।
‘‘खतरा!‘‘ मेरे दिमाग ने चेतावनी दी, मगर तब तक देर हो चुकी थी।
”खबरदार“ - पीछे से रौबदार आवाज गूंजी - ”हिलना नहीं।“
मैं जहाँ का तहाँ फ्रीज होकर रह गया, क्योंकि अपनी गर्दन पर चुभती किसी पिस्तौल की ठण्डी नाल का एहसास मुझे हो चुका था। मुझे अपनी कमअक्ली पर तरस आने लगा। मैं बड़ी आसानी से उनके जाल में फंस गया था।
”बिना किसी शरारत के अपनी रिवाल्वर मुझे दो।“ आदेश मिला।
मैंने चुपचाप रिवाल्वर उसे सौंप दी। तब वह सीट की पुश्त के ऊपर से गुजरता हुआ अगली सीट पर मेरे पहलू में आकर बैठ गया। उसकी पिस्तौल की नाल अब मेरी पसलियों को टकोह रही थी।
मैंने उसकी शक्ल देखी। तकरीबन चालीस के पेटे में पहुंचा हुआ वह तंदुरूस्त शरीर वाला सांवला किन्तु बेहद रौब-दाब वाला व्यक्ति था, इस वक्त जिसके होंठों पर एक विषैली मुस्कान नाच रही थी।
”गाड़ी को वापस मोड़ो।“ - उसने हुक्म दिया।
”मगर........।“
”जल्दी करो“ - वो कड़े स्वर में बोला।
”मेरे ऊपर गोली तुमने चलाई थी।“
”जुबान बंद रखो“ - उसने रिवाल्वर से मेरी पसलियों को टकोहा - ”यू टर्न लो फौरन।“
मैंने कार वापस मोड़ दिया।
”गुड अब सामान्य रफ्तार से आगे बढ़ो।“
मैंने वैसा ही किया। वह जो भी था मंझा हुआ खिलाड़ी था। एक पल को भी उसने लापरवाही नहीं दिखाई ना ही कार की स्पीड तेज करने दी वरना मैं तेजी से बे्रक लगाकर उसके चंगुल से निकलने की कोई जुगत कर सकता था।
तकरीबन पांच मिनट तक कार चलाने के बाद मेरी जान में जान आई जब सीतापुर कोतवाली के सामने पहुँचकर उसने कार अंदर ले चलने को कहा। कम्पाउण्ड में पहुँचकर मैंने कार रोक दी, निश्चय ही वो कोई पुलिसिया था।
मुझे लेकर वो एक ऐसे कमरे में पहुँचा, जिसमें पहले से ही एक सब इंस्पेक्टर और एक कांस्टेबल मौजूद थे, उसे देखते ही वो दोनों उठ खड़े हुए और बिना कुछ कहे चुपचाप कमरे से बाहर निकल गये।
”बैठो“-वो खुद एक कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला।
”शुक्रिया“ - मैं बैठ गया।
कुछ देर तक वो अपनी एक्सरे करती निगाहों से मुझे घूरता रहा, यूँ महसूस हुआ जैसे वो खुर्दबीन से किसी कीड़े का परीक्षण कर रहा हो।
दो मिनट पश्चात।
”कहीं बाहर से आये हो।“ - वो बोला।
मैंने सिर हिलाकर हामी भरी।
”कहाँ से?“
”दिल्ली से।“
”दिल्ली में कहाँ रहते हो?“
कहते हुए उसने एक राइटिंग पैड और पेन उठा लिया।
”तारा अपार्टमेंट में।“
”करते क्या हो?“
”प्राईवेट डिटेक्टिव हूँ, दिल्ली में रैपिड इंवेस्टिगेशन नाम से आॅफिस है मेरा।“
”ओ आई सी“ - इस बार उसने नये सिरे से मेरा मुआयना किया -”नाम क्या है तुम्हारा?“
”विक्रांत-विक्रांत गोखले।“
”यहाँ क्या करने आये हो?“
”किसी से मिलने के लिए।“
”किससे?“
”मानसिंह जी के यहां, लाल हवेली में।“
”सच कह रहे हो, सिर्फ मिलने आये हो।“
”मैं झूठ नहीं बोलता।“
‘‘जरूर राजा हरिश्चंद्र के खानदान से होगे।‘‘
मैं खामोश रहा।
”मुझे लगता है तुम हवेली में हो रहे हंगामों की वजह से आये हो?“
”कैसा हँगामा?“
”वहीं पहुँचकर मालूम कर लेना। मुझे तो वो लड़की पूरी पागल नजर आती है। बड़ी अजीबो-गरीब बातें करती है। कहती है रात के वक्त उसकी हवेली में नर कंकाल घूमते हैं, हमने कई दफा उसके कहने पर इंक्वायरी भी की मगर हमारे हाथ कुछ नहीं लगा।“
”आप भूत प्रेतों पर यकीन करते हैं?“
”नहीं।“
”इसके बावजूद भी आप इंक्वायारी के लिए लाल हवेली चले गये।“
”डियुटी जो करनी थी भई, उसका बाप यहां के ‘वीआईपी‘ का दर्जा रखता था, मैं उसकी कंप्लेन को इग्नोर नहीं कर सकता था।“
”अब आपकी फाइनल ओपनीयन ये है कि उसका दिमाग हिला हुआ है?“
”ठीक समझ रहे हो। एक महीने पहले बाप के साथ हुए हादसे का उसके दिमाग पर कोई गहरा असर हुआ मालूम पड़ता है। लगता है उसका कोई दिमागी स्क्रू ढीला पड़ गया है, तभी वो यूँ बहकी-बहकी बातें करती है।“
”ओह।“
”तुमने जो कुछ अपने बारे में बताया क्या उसे साबित कर सकते हो?‘‘
‘‘करना ही पड़ेगा जनाब क्योंकि अपनी रात हवालात में खोटी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।“
‘‘समझदार आदमी हो।‘‘
‘‘दुरूस्त फरमाया जनाब, आदमी तो खैर ये बंदा जन्म से ही है, अलबत्ता समझदार बनने में पच्चीस साल लग गये।‘‘
मैंने उसे अपना ड्राइविंग लाइसेंस और डिटेक्टिव एजेंसी का लाइसेंस दिखाया।
वो संतुष्ट हो गया।
”बाहर चैराहे पर तुमने गोली क्यों चलाई थी?“
”आत्मरक्षा के लिए।“
”मतलब?“
”किसी ने मेरी जान लेने की कोशिश की थी, मजबूरन मुझे जवाबी फायर करना पड़ा।“
”ली तो नहीं जान।“
”मेरी किस्मत जो बच गया, मुझपर पर चलाई गयी तीन-तीन गोलियों के बाद भी बच गया।“
”काफी अच्छी किस्मत पाई है तुमने नहीं?“
”जी हाँ-जी हाँ।“ - मैं तनिक हड़बड़ा सा गया। जाने किस फिराक में था वह पुलिसिया।
”वो तुम्हारी जान क्यों लेना चाहते थे?“
”मालूम नहीं।“
”भई जासूस हो कोई अंदाजा ही बता दो।“
”शायद वो मुझे लूटना चाहते थे।“
मेरी बात सुनकर वो हो-हो करके हँस पड़ा।
”क्या हुआ?“ मैं सकपका सा गया।
”भई अपने महकमे में एक सीनियर और काबिल इंस्पेक्टर समझा जाता है मुझे और इत्तेफाक से ये कोतवाली भी मेरे अंडर में ही है। जबकि तुम तो लगता है मुझे कोई घसियारा ही समझ बैठे हो।“
”मैंने ऐसा कब कहा जनाब?“
‘‘कसर भी क्या रह गई? भला लूटने का ये भी कोई तरीका होता है कि पहले अपने शिकार को गोली मार दो और बाद में सामान लेकर चम्पत हो जाओ।“
”नहीं होता!“
”हरगिज भी नहीं, अगर उनका इरादा तुम्हें लूटने का होता तो वे तुम्हें पहले धमकाते बाद में न मानने पर यदि गोली चलाते तो बात कुछ समझ में आती। बजाय इसके उन लोगों ने सीधा तुम पर फायर झोंक दिया इसके केवल दो ही अर्थ निकाले जा सकते हैं या तो हमलावर तुम्हें डराना चाहते थे या फिर तुम्हारी जान लेना चाहते थे।“
”यूँ ही खामखाह।“
”ये बात तुम मुझसे बेहतर समझते हो, जहाँ तक मेरा अनुमान है तुम्हे हवेली में रह रही उस दूसरी लड़की ने यहां बुलाया है, निश्चय वो तुम्हारी कोई जोड़ीदार है। हवेली में फैले अफवाहों को तुम कैसे दूर करते हो, कथित भूत-प्रेतों, नरकंकालों से कैसे निपटते हो मैं नहीं जानना चाहता मगर इतनी चेतावनी जरूर देना चाहता हूँ कि उस पागल लड़की की बातों पर यकीन करके बेवजह शहर में इंक्वायरी करते मत फिरना, जो की यहां पहले से पहुंची तुम्हारी जोड़ीदार कर रही है। जो भी करना सोच-समझकर करना। इस इलाके का एक दस साल का बच्चा भी गोली चलाकर किसी की जान लेने कि हिम्मत रखता है। इसलिए सावधान रहना, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी बाहर से आये हुए व्यक्ति के साथ यहाँ कोई हादसा घटित हो।“
”आप मुझे डरा रहे हैं।“
”नहीं! अपना भला-बुरा तुम खुद समझो।“
”सलाह का शुक्रिया जनाब, अब आप बराय मेहरबानी मेरी रिवाल्वर मुझे वापस कर दीजिये।“
”अरे हाँ“ - वो चैंकता हुआ बोला - ”उसे तो मैं भूल ही गया था।“
”मगर मैं नहीं भूला था।“
”रिवाल्वर तुम्हारी है।“
”हाँ, इसका लाइसेंस भी मेरे पास है, अगर आप देखना चाहें तो.......।“
”रहने दो मुझे तुम पर ऐतबार है।“
कहते हुए उसने मेरी रिवाल्वर मुझे वापस कर दी।
”शुक्रिया, क्या बंदा आपका नाम जानने की गुस्ताखी कर सकता है?“
”जसवंत‘‘-वह बोला-‘‘इंस्पेक्टर जसवंत सिंह।“
मैं उठ खड़ा हुआ।
”जर्रानवाजी का बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब, अब बंदे को इजाजत दीजिए।“
”जा रहे हो।“
”जी हाँ।“
”अगर तुम चाहो तो मैं किसी को लाल हवेली तक तुम्हारे साथ भेज दूँ।“
”जी नहीं शुक्रिया।“
”बाहर खड़ी कार तुम्हारी अपनी है।“
”जी नहीं उधार की है।“
”मजाक कर रहे हो।“
”सच कह रहा हूँ।“
कहने के पश्चात मैं मुड़ा और उस अजीबो-गरीब बर्ताव करने वाले कोतवाली इंचार्ज को एक उंगली का सेल्यूट देकर मैं खुले दरवाजे से बाहर निकल गया। सब ताड़े बैठा था वो, हैरानी थी कि शीला के बारे में भी उसे सब पता था।
हालात अच्छे नहीं लग रहे थे।
दस मिनट पश्चात मैं लाल हवेली के सामने खड़ा था, शीला ने उसका वर्णन ही कुछ यूं किया था कि उसे पहचानने में कोई भूल हो ही नहीं सकती थी।
रिहायशी इलाके से अलग-थलग लाल हवेली आसमान में सिर उठाये खड़ी थी। लाल हवेली को देखकर बाहर से यह अंदाजा लगा पाना कठिन था कि उसके भीतर कोई रहता भी होगा। सामने लकड़ी का दो पल्लों वाला कम से कम बीस फीट ऊंचा खूब बड़ा दरवाजा था, जो कि बाउंडरी से थोड़ा ऊंचा उठा हुआ था। दाईं ओर वाले पल्ले में एक छोटा दरवाजा बना हुआ था, जो पैदल आने-जाने के इस्तेमाल में लाया जाता होगा, इस घड़ी वो दरवाजा भी बंद था। विशालकाय दरवाजों के दोनों तरफ पत्थरों को तराशकर बनाये गये दो शेर मुंह खोले खड़े थे, जिनके सफेद दांत दूर से ही चमक रहे थे। वहां के माहौल में मौत सा सन्नाटा पसरा हुआ था। कहना मुहाल था कि वहां के वाशिंदे उस खामोशी को, उस मनहूसियत को कैसे झेल पाते होंगे।
सदर दरवाजे के नजदीक पहुँचकर मैंने लम्बा हार्न बजाया। तत्काल प्रतिक्रिया सामने आयी। दरवाजेे में हिल-डुल हुई।
”चर्रररररररर की आवाज करता हुआ हवेली के विशाल फाटक का एक पल्ला खुलता चला गया। मैंने इधर-उधर निगाह दौड़ाई मगर दरावाजे को पल्लों को खोलते हाथों को देख पाने में कामयाब नहीं हो पाया। गेट से भीतर आकर भी मैंने गेट खोलने वाले की तलाश में इधर-उधर निगाहें दौड़ाईं मगर कोई दिखाई नहीं दिया।
मैं कार सहित भीतर प्रवेश कर गया। पूरी हवेली अंधकार में विलीन थी, कहीं से भी किसी प्रकार की रोशनी का आभास मुझे नहीं मिला। तकरीबन सौ मीटर लम्बे बीस फीट चैड़े ड्राइवे से गुजर कर मैं इमारत की पोर्च में पहुँचा। पोर्च की हालत कदरन बढ़ियां थी। हाल-फिलहाल में वहां रंगरोदन होकर हटा महसूस हो रहा था। पेंट की मुश्क अभी भी वहां की फिजा में महसूस हो रही थी।
कार रोकने के पश्चात मैंने डनहिल का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया और वहां के माहौल का जायजा लेने लगा। इस दौरान आदम जात के दर्शन मुझे नहीं हुए। पहले मैंने सोचा हार्न बजाऊं, फिर मैंने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया। उम्मीद थी कि कार के इंजन की आवाज सुनकर कोई ना कोई अवश्य बाहर आएगा, मगर ऐसा नहीं हुआ। सिगरेट खत्म होते ही मैं कार से बाहर निकल आया, तभी दूर कहीं से उल्लू के बोलने की आवाज सुनाई दी और फड़फड़ाता हुआ एक चमगादड़ मेरे सिर के ऊपर से गुजर गया बरबस ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
सांय-सांय की आवाज करती हुई हवा और दूर कहीं कुत्ते की रोने की आवाज! इस हवेली के माहौल को और भी भयावह बनाये दे रही थी। कहीं से भी जीवन का कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहा था, वह रिहायश कम और किसी हाॅरर फिल्म का सेट ज्यादा नजर आ रही थी। मुझे यूं महसूस हो रहा था जैसे गलती से मैं किसी कब्रिस्तान में आ पहुँचा था। हर तरफ अजीब सी मनहूसियत फैली हुई थी।
ऐसी वीरान जगह में तो भूत-प्रेतों के दखल के बिना भी इंसान का हार्ट फेल हो सकता था। मैंने दरवाजा खुलवाने का विचार मुल्तवी कर दिया और एक सिगरेट सुलगाकर टहलता हुआ वापस सदर दरवाजे की ओर बढ़ा। कुछ आगे जाने पर दरवाजा दूर से ही दिखाई देने लगा, जिसे की पुनः बंद किया जा चुका था। मगर उसके आस-पास आदम जात के दर्शन मुझे अभी नहीं हुए या फिर अंधेरे की गहनता के कारण मैं उन्हें नहीं देख नहीं पा रहा था।
‘‘अरे कोई है भाई यहां!‘‘ दरवाजे के कुछ और नजदीक जाकर आस-पास देखते हुए मैंने आवाज लगाई।
जवाब नदारद।
‘‘कोई सुन रहा है भई?‘‘
‘‘जी साहब जी।‘‘ मेरे पीछे भार्रायी सी आवाज गूंजी।
मैं फौरन आवाज की दिशा में पलट गया।
”कहां जायेंगे?“-पुनः वही आवाज।
सामने निगाह पड़ते ही मैं एक क्षण को भीतर तक कांप उठा, क्या करता नजारा ही कुछ ऐसा था। मेरे सामने एक नर कंकाल खड़ा था, मेरा दिल हुआ जोर-जोर से चीखना शुरू कर दूं। मगर दूसरे ही पल मैंने खुद को काबू कर लिया। मैंने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले लिया और सधे कदमों से उसकी ओर बढ़ा। मेरा दिल हरगिज भी यह मानकर राजी नहीं था कि एक कंकाल मुझसे बातें कर रहा है।
     मैंने अभी पहला कदम ही उसकी ओर बढ़ाया था कि अचानक जैसे आसमान टूट पड़ा। मेरे सिर के पृृष्ठ भाग पर किसी वजनी चीज से प्रहार किया गया, मेरे हलक से दर्दनाक चीख निकली और मेरी चेतना लुप्त होने लगी। तभी उस नरकंकाल के दाहिने हाथ की हड्डी मेरी तरफ बढ़ी मुझे लगा वो मेरा गला दबाना चाहता है, मैंने अपने शरीर की रही-सही शक्ति समेटकर हाथ से छूट चुकी रिवाल्वर की तलाश में इधर-उधर हाथ मारना शुरू किया----------------------------------------------------------
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