Monday, April 1, 2013

रहस्मयी हत्या कथा

तुरप का इक्का

- स्व. श्री कृष्ण कुमार सक्सेना


‘‘अरे एक दिन का भी क्या कोई छोटा बड़ा होता है पगले। अजरा अगर हमारे घर दुल्हन बनकर आ जाए तो भाग्य खुल जाएंगे। सब यही तो चाहते हैं। देख मेरे बच्चे... मैं तो कब से अजरा को इस घर की दुल्हन के रूप मंे देख रही हूं। तेरे अब्बू भी यही चाहते थे। मेरी आरजूू का ख्याल कर मेरे बच्चे...।’’


मैं नूरा-यानी नूर मुम्महद। अम्मी मुझे प्यार से नूरे कहतीं तो अब्बू नूरा। तो सारा मुहल्ला ही मुझे नूरे या नूरा के नाम से पुकारने लगा। अब्बू बहुत ही मेहनती और इमानदार आदमी थे। हमारी ताले बनाने की पफैक्ट्री थी। अब्बू ताले बनाने के काम में माहिर समझे जाते थे। शहर में बिकने वाली बड़ी तिजोरियों और अल्मारियों के ताले हमारी ही पफैैक्ट्री से सप्लाई किये जाते थे।
इसलिए कहा जा सकता था कि ताले बनाने के क्षेत्रा मेें हमारा एकाधिकार था। घर में ही ताले बनाने की पफैैक्टरी होने के कारण मैं भी इस काम का खासा जानकार हो गया था। किसी भी अल्मारी या तिजोरी का ताला लाख कोशिश करने पर भी जब ना खुलता तो अब्बू को याद किया और वे जरा से कोशिश से ही उसे खोल देते। इस काम में मदद के लिए वे अक्सर मुझे भी साथ ले जाते थे। यही वजह थी कि तालों की हर पेचीदगी से मैं भी वाकिपफ हो गया था।
वक्त गुजरता रहा और मैं मैट्रिक में पास हो गया। उन्होंने गले से लगाकर मेरा स्वागत किया और बोले- ‘‘मियां आज से हम तुॅम्हें नूरा नहीं कहेंगे। अब तुम बड़े हो गये हो इसलिए अब तुम नूर मुहम्मद हुए।’’
अब्बा की बात सुनकर मैं शर्म से भर गया। अब्बू वास्तव में मुझे से बहुत मुहब्बत करते थे। शायद इसकी वजह यह थी कि मैं घर में अकेला बेटा था। मेेरे अलावा मेरी एक बहन भी थी जिसे हम नूरी कहते थे। वह हम सब की बहुत लाडली थी। हम लोग खाते -पीतेे परिवार से थे। अब्बू अम्मी का आपसी तालमेल और सादगी से हमारा घर बड़ी इज्जत और आबरू वाला घर माना जाता था।
मैट्रिक में पास होने के बाद मेरा दाखिला कालेज में करा दिया गया। मैं पढ़ने में ठीक-ठाक था। इसलिए हर साल आगे बढ़ता जा रहा। मेरी एक पफूपफी भी थीं। वे हमारे पड़ोस में ही रहती थीं। उनकी बेटी अजरा। अजरा आपा मुझ से उम्र में एक दिन बड़ी थी। इसलिए हम दोनों एक ही कक्षा के विद्यार्थी थे। लेकिन अजरा आपा पढ़ाई मंे तेज थंीं। हिसाब में उन्हंे महारत हासिल थी। एक ही सवाल को वे कई तरीकों से हल कर सकती थीं। उनकी जहानत देख कर तो हिसाब के टीचर भी दांतों तले उंगुली दबा लेेते थे। यूं तो मैं और अजरा आपा साथ खेले, पढ़े-लिखे और बड़े हुए किन्तु ना जाने क्यों मेरे दिल में उनके लिए एक खास सी इज्जत थी। इसका कारण यह भी हो सकता है कि देखने मंे वेे बहुत सुंदर थीं।
उनका गोरा रंग काले बाल और सदगी भरी खामोश सी मुस्कराहट मुझे बहुत भली लगती थी। मेरे अब्बू अम्मी और नूरी भी उन्हें बहुत पसंद करते थे। घर में यह चर्चा आम थी कि बचपन में ही पफूपफा जी मुझे अजरा आया के लिए मांग लिया था। यही वजह थी कि पफूपफी के घर में सभी मुझे बहुत पसंद करते थे। मेरे अब्बू और पफूपफा जी के संबंध बहुत अच्छे थे। शतरंज की एक ही बाजी खेलने में ये लोग कई-कई रातें काली कर देते थे। पफूपफा जी पेशे से वकील थे किन्तु छल पफरेब और झूठ से कोसों दूर रहते थे। शायद इसी लिए उनकी वकालत कुछ खास नहीं चलती थी। यही वजह थी कि पफूपफी को हमेशा ही उनसे शिकायत रहती थी।
रात के करीब दस बजे का वक्त था। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। अब्बा बाहर आये। पता लगा कि कोई बच्चा अल्मारी मंे बंद हो गया है और अल्मारी खुल नहीं रही है। अब्बा मास्टर चाबियों का गुच्छा लेकर उनके साथ चले गये। जब वे वापिस आये तो बेहद झल्लाये हुए थे। अम्मी ने पूछा तो उन्होंने बताया कि कोई खब्बीस पैसों का लालच देकर किसी गैर की तिजोरी खुलवाना चाहता था। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया और वापिस आ गए। लेकिन उसने अब्बा को देख लेने की धमकी दी थी। अम्मी चितिंत हुई तो उन्होंने समझाया कि ऐसी धमकियां तो उन्हें पहले भी कई बार मिल चुकी हैं।

‘‘खोलो...!’’ इंस्पेक्टर ने कहा।

मैंने जेब से मास्टर का गुच्छा निकला और झट से ब्रीपफकेस का लॉक खोल दिया। थाने के सभी स्टापफ की दृष्टि मेरी ही ओर थी। ब्रीपफकेस खोला गया तो उसमें अस्सी हजार के नोट और लगभग एक लाख रफपया के बैंक ड्राफ्रट थे। सभी लोग आश्चर्य से कभी तो मेरी ओर देखते थे तो कभी नोटों और बैंक ड्राफ्रटों की ओर।

सुबह का अखबार देख कर अब्बा चौंक गये। उस रात सेठ अब्दुल पफजल की तिजोरी तोड़ कर कोई लुटेरा सात लाख रफपये लेकर पफरार हो गया था। अब्बू ने बताया कि ये वही कोठी थी जहां रात में उन्हें ले जाया गया था। अब्बू ने कहा कि इस की रिपोर्ट वे थाने में अवश्य करेंगे क्योंकि चोर को वे पहचानते हैं।
लेकिन दूसरे ही दिन अब्बू का खून हो गया। अब्बू की लाश रात में कोई हमारे ही दरवाजे पर डाल गया था। अब्बू की मौत से घर में कोहराम मच गया। पफूपफी के घर में भी मातम का माहौल बन गया। इंस्पेक्टर सलीम इस केस की छानबीन कर रहे थे। लेकिन पूरी कोशिशों के बावजूद भी वे अब्बू की मौत का कोई सुराग नहीं लगा सके। सब कुछ बताने पर पुलिस ने तिजोरी की लूट से अब्बू की मौत के जुड़े होने का हादसा तो मान लिया लेकिन चोर पकड़ा नहीं जा सका। अम्मी का ख्याल था कि अब्बू का कातिल वही शख्स है जो अलमारी खुलवाने आया था और अब्बू नाराज होकर वापिस आ गये थे। नूरी ने उसकी आवाज सुनी थी। वह अब्बू को इशरार मियां कह पुकार रहा था। नूरी का ख्याल था हत्यारा स को श बोलता था। क्यांेकि अब्बू का नाम इसरार अली था। इसके अलावा पुलिस को कुछ सिगरेटों की टोटे मिले थे जो चरस भर कर पी गई थीं। इससे अंदाजा लगाया गया कि चोर चरस पीता था।

अब्बू की बे वक्त मौत ने हमारे घर की हालात बदतर कर दी थी। उस वक्त मेरा बी.एस.सी का आखिरी साल था। पढ़ाई के बाद अब्बू का इरादा मुझे इंजीनियर बनाने का था। लेकिन अब तो इरादे सपनों जैसे लगते थे।
वक्त गुजरा और मैंने बी.एस.सी. पास की ली। लेकिन उसके बाद मैं इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला ना ले सका। मैं अपनी पफैक्टरी के काम में ही लग गया। लेकिन जो बात अब्बू के समय में थी वह बात नहीं आई। बड़ी कंपनियों ने हमारी पफैक्टरी से नाता तोड़ लिया और मजबूर होकर मुझे पफैक्टरी बंद करनी पड़ी। अब मैं बेकार था। और नौकरी की तलाश मंे घूमा करता था। लेकिन देश में नौकरियों की हालत बहुत खराब थी। लोग पढ़-लिख कर दुबई या अबूधावी जैसे मुल्कों में जाकर खूब पैसा कमा रहे थे। लेकिन मेरे घर की हालत ऐसी नहीं थी मैं देश छोड़ सकता था। सबसे बड़ा ख्याल मुझे अपनी बहन नूरी का था। वह बड़ी हो गई थी और उसके हाथ पीले करने से पहले मैं ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकता था।
अजरा आपा आजकल वकालत कर रही थीं। मेरी हालत देखकर उन्हें भी बड़ा अपफसोस होता था। पफूपफा जी चाहते थे कि मैं इंजीनियरिंग करके अजरा से शादी कर लूं। इसलिए सभी खर्च वह उठाने को तैयार थे। लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहता था। एक दिन जब अम्मी ने इसी बात की जिद पकड़ ली तो मैंने सापफ-सापफ कह दिया कि मैं यह शादी नहीं करूंगा।
‘‘क...क्यों...?’’ अम्मी ने कहा।
‘‘क्यांेकि अजरा आपा मुझसे से बड़ी हैं...’’ मैंने कहा।
‘‘अरे एक दिन का भी क्या कोई छोटा बड़ा होता है पगले। अजरा अगर हमारे घर दुल्हन बनकर आ जाए तो भाग्य खुल जाएंगे। सब यही तो चाहते हैं। देख मेरे बच्चे... मैं तो कब से अजरा को इस घर की दुल्हन के रूप मंे देख रही हूं। तेरे अब्बू भी यही चाहते थे। मेरी आरजूू का ख्याल कर मेरे बच्चे...।’’
मां ने डबडबाई आंखों से मेरी ओर देखते हुए कहा। अम्मी को उस हालत में देखकर एक बार तो मैं भी जजबाती हो गया। कापफी सोच विचार के बाद मैंने कपड़े बदले और पफूपफी के घर पहुंच गया।
पफूपफी ने मेरा स्वागत किया। मैं आज बहुत दिनों के बाद उनके घर आया था। दिन के चार बजे थे। घर में उनके अतिरिक्त कोई नहीं था।
‘‘पफ... पूफ... पफूपफी...सलाम...!’’ मैंने कहा।
‘‘अ...आ बेटे...। आज बहुत दिनों बाद आया। तुझे देखने को आंखें तरस गईं!’’ पफूपफी ने भर्राये स्वर मंे कहा।
‘‘पफ...पफूपफी...!’’ मैंने कहा। मेरी आंखांे में आंसूं थे।
‘‘हां हां... बोल बेटे...?’’
‘‘क्या बेटे को दामाद बनाओगी...पफूपफी, मैंने आप को हमेशा मां का दरजा दिया है। अजरा आपा मेरी बहन हैं। क्या आप मुझे मेरी ही नजरों से गिराना चाहती हो।...?’’ मैंने कहा।
मेरी बात सुनकर पफूपफी आश्चर्य चकित थीं।
‘‘तो क्या तू...?’’
‘‘हां पफूपफी हां... अजरा आपा ने मुझे हमेशा बहन जैसा ही प्यार दिया है...!’’ मैंने उसकी बात काटते हुए कहा।
‘‘तो ठीक है बेटे...तूने बहुत अच्छा किया जो वक्त रहते हमें बता दिया।’’
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। पूफपफा जी आ गये थे। मुझे देखकर वह बहुत खुश हुए। हम दोनों ने साथ-साथ चाय पी। जब मैंने जाने की इजाजत मांगी तो बोले-‘‘अजरा के वकील बनने में कोई ज्यादा वक्त नहीं है। जब मैं जल्दी ही उसकी शादी से पफारिग हो जाना चाहता हूं। इसलिए अपनी अम्मी को कल ही भेज दो ताकि...।’’
‘‘क्या कह रहे हो जी...?’’ अचानक पूफपफी ने बात काटी।
‘‘अरे भई वही, अजरा की शादी के बारे मंे...?’’
‘‘लेकिन किस के साथ...?’’
‘‘भई ये कोई पूछने की बात है- अपने नूर मुहम्मद के साथ...?’’
‘‘क्या कह रहे हो...?’’ अचानक पूफपफी ने प्रश्न उछाला।
‘‘क्यों- कुछ गलत कहा मैंने...!’’
‘‘और क्या...?’’
‘‘ऐं... !!! पफूपफा जी चाैंके।
‘‘नूर मुहम्मद और अजरा की शादी तो हो ही नहीं सकती...।’’
‘‘क्यों भई क्यों...?’’
‘‘क्यांेकि इन दोनों का दूध सांझा है। इसलिए दोनों भाई बहन हैं, पफूपफी ने जैसे धमाका सा कर दिया।
‘‘ये क्या कह रही हो तुम...?’’
‘‘मैं ठीक कह रही हूं जी- नूर मुहम्मद उस वक्त कुछ ही महीनों का था कि इसकी अम्मी इसे मेरे पास छोड़कर बाजार गई थी। बड़ी तेज गर्मी थी। शायद इसीलिए वह इसे साथ नहीं ले गई थी। इसे भूख लगी तो इसने जबरदस्ती मेरा दूध पी लिया। मिनटों में सबकुछ बदल गया।’’
‘‘अरे इतनी बड़ी बात हो गई और तुमने मुझे आज तक नहीं बताया...!’’ पफूपफा जी ने ताज्जुब से कहा।
उसके बाद मैं पफूपफी के घर ज्यादा देर नहीं रूका।
जब अम्मी को इस बात का पता चला तो बेचारी मन मारकर बैठ गईं। लेकिन अब क्या हो सकता था।
उसके बाद मेरी जिंदगी डांवाडोल सी हो गई। मैं नौकरी की तलाश में घूमता रहा लेकिन नौकरी ना मिली। कोई मेरे कम नम्बरों की दुहाई देता तो नो वेैकेन्सी के बोर्ड की ओर इशारा कर देता।
सर्दियांें के दिन थे। रात के लगभग नौ बजे थे। मैं उदास सा एक पार्क की बैंच पर बैठा अपनी बेबसी के बारे सोच रहा था कि तभी एक मर्दानी चीख ने मुझे चौंका दिया। सामने देखा तो एक आदमी जमीन पर तड़प रहा था और दूसरा दूर खड़ी एक सपफेद कार की तरपफ जा रहा था। कार तो चली गई लेकिन मन ही मन मैंने कार का नम्बर याद कर दिया।
मैं पास गया तो जमीन पर आदमी के सीने के चाकू घुंपा हुआ था। मैं घबरा गया। नब्ज देखी तो ऐसा लगा जैसे वो मर चुका हो। आस-पास देखा तो सिगरेट के कुछ टुकड़े और एक ब्रीपफकेस पड़ा था। मैं घबरा गया। अगर लाश को हाथ लगाया तो मुजरिम करार दिया जाउंफगा। इसलिए ब्रीपफकेस को उठाया और भागते हुए कार का नम्बर पिफर मन ही मन ही मन दोहराया। सामने ही पी.सी.ओ. देखकर मैं उसमें घुस गया और पुलिस को मामले की सूचना दे दी।
समय अपने कमरे मंे आराम करने के बाद मेरी कुछ हिम्मत बंधी।
‘‘मैंने तो कोई अपराध नहीं किया... पिफर मैं क्यों डर रहा हूं...!’’ मैेंने सोचा।
‘‘नूरे... बेटे नूरे...!’’ अम्मी की आवाज थी ये।
‘‘ ज...जी अम्मी...!’’ मैंने कहा।
‘‘बेटे खाना तो खा ले...!’’
‘‘ अभी भूख नहीं है अम्मी...आप बावर्ची खाने मंे खाना रख दो। मैं खुद खा लूंगा।’’
उन दिनों यही हाल था मेरा। खाना खाने का मन ही नहीं होता। इसलिए अम्मी ने मरी बात पर भरोसा कर लिया और चली गईं।
तभी मुझे ब्रीपफकेस का ख्याल आया। मैेंने उसे उठाया और सोचा कि देख तो लूं कि इस ब्रीपफकेस मंे क्या है, हो सकता है कि ये नोटों से भरा हो और मिनटों में मैं लखपती बन जाउफं। यही सोच कर मैंने एक गहरी सी दृष्टि ब्रीपफकेस पर डाली। किन्तु सामने ही अब्बू की तस्वीर देख कर मैं चौंका। मैं क्या कर रहा हूं। हराम की कमाई... छि...छि....। अचानक मेरे हाथ रूक गये। मेरे अब्बू ने ईमान के लिए अपनी जान दी आज मैं उसे ही हलाल करने जा रहा था।
‘‘पिफर मैं क्या करूं...?’’ मैंने सोचा।
अचानक मैं उठा और ब्रीपफकेस लेकर बाहर आया। अपनी साईकिल उठाई और सीधे थाने पहुंच गया। सामने ही इंस्पेक्टर सलीम को देख कर मेरी कुछ हिम्मत बंधी।
‘‘अ...आप...!’’ इंस्पेक्टर सलीम ने मेरी तरपफ देखा।
‘‘ज...जी मैं, नूर मुहम्मद...!’’ मैंने ब्रीपफकेस मेज पर रखते हुए कहा।
‘‘अच्छा अच्छा...इसरार अहमद के नूरेचश्म, जिनका कत्ल हो गया था।’’ इंस्पेक्टर ने याद करते हुए कहा।
‘‘ज...जी हां...!’’
‘‘कहिए...?’’
‘‘व...वो अभी जो नेता जी पार्क में खून हुआ था। वो पफोन...!’’
‘‘क्या वो पफोन आपने किया था?’’
‘‘जी हां... मैंने मुजरिम को भागते हुए अपनी आंखों से देखा है।’’
‘‘क्या उसे पहचान सकते हैं...?’’
‘‘जी नहीं... वो मुझसे दूर था और रोशनी भी कम थी। मैंने उसे कार में बैठते देखा था।’’
‘‘और ये ब्रीपफकेस...!’’ इंस्पेक्टर ने पूछा।
‘‘ये लाश के पास पड़ा था।’’
‘‘पहले क्यांे नहीं बताया...?’’
‘‘मैं डर गया था...और...!’’
‘‘और क्या...?’’
‘‘कुछ लम्हों के लिए दिल बेईमान हो गया था। लेकिन अब्बू की तस्वीर देखकर...!’’ मैंने कुछ कहना चाहा लेकिन इंस्पेक्टर सलीम ने मेरी बात काट दी और बोला-‘‘बाप की तस्वीर देख दिल में इमानदारी आ गई...क्यों?’’
‘ज... जी हां...!’’ मैंने कहा।
‘‘खोल कर देखा, क्या है इसमें...?’’ उन्होंने ब्रीपफकेस की ओर इशारा करते हुए पूछा।
‘‘जी नहीं...!’’ मैंेने कहा।
‘‘खोल सकते हो...?’’
‘‘ज...जी...!’’
‘‘खोलो...!’’ इंस्पेक्टर ने कहा।
मैंने जेब से मास्टर का गुच्छा निकला और झट से ब्रीपफकेस का लॉक खोल दिया। थाने के सभी स्टापफ की दृष्टि मेरी ही ओर थी। ब्रीपफकेस खोला गया तो उसमें अस्सी हजार के नोट और लगभग एक लाख रफपया के बैंक ड्राफ्रट थे। सभी लोग आश्चर्य से कभी तो मेरी ओर देखते थे तो कभी नोटों और बैंक ड्राफ्रटों की ओर।
तभी द्वार पर पुलिस वैन आकर रूकी। उसमें एक सब इंस्पेक्टर और कुछ कांस्टेबल नीचे उतरे। सभी लोग अंदर आये। सब इंस्पेक्टर ने कहा-‘‘हजूर, पंचनामा करने के बाद लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है।’’
‘‘और कार का कुछ पता चला...?’’ इंस्पेक्टर ने पूछा।
‘‘तलाश जारी है, सब इंस्पेक्टर रावत और हैड कांस्टेबल हरीओम को कुछ मुखबिरांे के साथ कार की तलाश में लगा दिया गया है।’’
‘‘ठीक है...!’’ इंस्पेटर सलीम ने कहा।
उसी समय कुछ महिलाओं ने थाने मंें प्रवेश किया। मैं आश्चर्य से उन्हें देखता ही रह गया। वे अम्मी, अजरा आपा और नूरी थे। अम्मी मुझे देख कर रोने लगीं। यही हाल नूरी का था। अजरा आपा भी उदास थी।
‘‘अरे भई आंसू जाया मत कीजिए-नूर मुहम्मद ने तो लाश के पास मिला ब्रीपफकेस देकर ईमानदारी का सबूत दिया है।’’ इंस्पेक्टर ने मुस्कराते हुए बताया।
‘‘ब्रीपफकेस...!’’
‘‘जी हां...उस ब्रीपफकेस में तकरीबन दो लाख रफपये मिले थे। जिन्हें ये आसानी से हजम कर सकते थे।’’ इंस्पेक्टर ने बताया।
‘‘तो क्या मेरे बेटे को छोड़ देंगे...?’’ अम्मी ने कहा।
‘‘जी हां, मैं एक वकील हूं। अब तो आप को नूर मुहम्मद को छोड़ ही देना चाहिए...!’’ अजरा आपा ने कहा।
‘‘अभी नहीं मोहतरमा-आप जानती हैं कि मामला दपफा 302 का है। इस लिए आज की रात इन्हें थाने की हिरासत में ही गुजारनी होगी। अलबत्ता कल सुबह कोर्ट से आप इनकी जमानत करा सकती हैं। प्रिफक मत कीजिए हमारी कस्टडी में ये एक मेहमान के हैसियत से ही रहेंगे।’’
और वह रात मुझे थाने में ही गुजारनी पड़ी। लेकिन उस दौरान इंस्पेक्टर सलीम ने वाकई मुझे एक मेहमान की तरह ही रखा। सुबह का नाश्ता उन्हीं की तरपफ से रहा।
‘‘शुक्रिया सर...!’’ नाश्ते के बाद अनायास मेरे मुंह से निकल ही गया।
‘‘नो सर ऐन्ड नो इंस्पेक्टर मिंया नूर मुहम्मद, सलीम और सिपर्फ सलीम यही मेरा नाम है...!’’
‘‘लेकिन सर...!’’
‘‘पिफर वही सर-अरे भई ये लफ्रज सिपर्फ मुजरिमों के लिए हैं तुम मुजरिम नहीं हो।’’ सलीम ने कहा।
कोर्ट में मेरी जमानत हो गई। अजरा आपा और अम्मी वहां मौजूद थीं। अम्मी खुश थीं और अजरा आपा मुतमईन।
इंस्पेक्टर सलीम भी खुश नजर आ रहे थे। जमानत के बाद इंस्पेक्टर सलीम ही हमें अपनी कार मंे घर छोड़ गए।
उसके बाद नौकरी के लिए मेरी जद्दोजहद पिफर जारी हो गई। मैं अर्जियां भेजता, बुलावे आते किन्तु बात न बनती। कहीं नौकरी मिलती भी तो पगार इतनी होती कि अपनी सभी डिग्रियां बेकार सी महसूस होतीं। एक दिन मुझे ख्याल आया कि क्यों ना मैं अपनी ही पफैक्टरी के लिए ही काम करूं? अब्बू की बनी बनाई साख तो थी ही और तालों की जानकारी भी मुझे बखूबी थी। अम्मी से बात की तो वो भी खुश हो गईं। कापफी सोच विचार के बाद मैंने अपनी ताला पफैक्टरी पिफर चालू कर दी।
लेकिन वो कत्ल का मुकदमा अभी चालू था। वह खून एक रईस, मुहम्मद कासिम का हुआ था। जिसकी तिजोरी तोड़ कर अस्सी हजार रफपये और बैंक ड्राफ्रट निकाले गये थे। उसका पीछा भी खुद मुहम्मद कासिम ने किया था। लेकिन नेताजी पार्क में मुजरिम ने मुहम्मद कासिम की छाती में छुरा भांेक दिया था। मुहम्मद कासिम की चींख सुनकर मैं भागा तो मुजरिम ने मुझे देख लिया और ब्रीपफकेस छोड़कर कार में बैठा और पफरार हो गया। छानबीन के बाद पता चला कि कार वहीं खड़ी करके कोई सज्जन पास खड़ी रेहड़ी पर पानी पी रहे थे। अपनी कार किसी अन्य को लेे जाते देख वे चिल्लाये किन्तु तब तक कार आंखों से ओझल हो चुकी थी। थोड़े समय बाद ही कार बरामद हो गई। इस कार में खास बात यह थी कि कार के दरवाजे और स्टेयरिंग पर मिले अंगुलियों के निशान मकतूल के सीने में छुपे खंजर पर मिले निशानों से मेल खा रहे थे। दूसरी बात यह कि अब्बू का कत्ल भी इसी प्रकार छाती में खंजर घोंप कर किया गया था।
अम्मी उस दिन बहुत खुश थीं क्योंकि कि कुछ लोग नूरी के रिश्ते के लिए आने वाले थे। शाम होते-होते हमारे घर में जश्न जैसा माहौल बन गया। पफूपफा जी और पफूपफी, अजरा आपा के अतिरिक्त कुछ अन्य रिश्तेदार भी घर में मौजूद थे। मेहमान आये और नूरी को पसंद कर भी गये। अब मेरे सामने पैसों की समस्या थी। पूरा जोड़ तोड़ करके भी मैं शादी लायक रकम नहीं जुटा सकता था। सोचा गया कि मकान बेच दिया जाए। लेकिन यह मुमकिन नहीं था। क्यांेकि मकान के निचले हिस्से में पफैक्टरी थी और उफपर हम लोग रहे रहे थे। सो मैं इन्हीं समस्याओं से जूझ रहा था कि उस दिन सुबह ही मेरा एक पुराना जानकार शेखू मेरे पास आया और नूरी की शादी तय हो जाने की मुझे मुबारकबाद दी। शेखू पड़ोस के बड़े बाजार में पटरी पर तालों की दुकान लगता था। अनेकांें ग्राहकों के पेचीदा तालों की मरम्मत में मेरी मदद ले चुका था। उसने बताया कि वह एक तिजोरी खुलवाना चाहता है जिसके एवज में मुझे अच्छी रकम मिल सकती है।
और एक बार पिफर मैं लालच में आ गया। नूरी की शादी के लिए मुझे भी एक अच्छी रकम की जरूरत थी। शाम को मिलने की बात कह कर वह तो चला गया लेकिन मेरे दिमाग में उसकी बातें सारे दिन घूमती रहीं। ना तो उस दिन मुझसे खाना खाया गया और ना ही काम में मन लगा। शाम होते ही मैं घर से निकल गया और सड़कों पर यूं ही मटरगश्ती करता रहा।
आखिर वह मुझे मिल ही गया। उसने कहा कि अगर मैंने वह तिजोरी खोल दी तो मुझे दस लाख रफपये मिलेंगे।
‘‘दस...!!!’’ इतनी रकम का नाम सुनकर ही मेरी आंखें लालच से पफैल गईं। रात में ग्यारह बजे पुनः मिलने की बात कह कर वह चला गया। मैं भी घर वापिस आया और खाना खाकर लेट गया।
मैंने चाबियों का अपना मास्टर गुच्छा संभाला और दबे कदमों से घर से बाहर आया। उस दिन अब्बू की तस्वीर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। गली से बाहर आते ही शेखू मुझे मिल गया। हम लोग अनेक गलियां पार करते हुए एक नई बनी इमारत के नजदीक पहुंचे। पूरे चांद की रात थी। हल्का उजाला वातावरण में तैर रहा था। अभी बारह नहीं बजे थे। वह इमारत एक छः पफीट उफंची दीवार से घिरी हुई थी। शेखू एक ही छलांग में दीवार पार कर गया। मेरे वश में ऐसा करना मुमकिन नहीं था। शेखू मेरी मजबूरी समझ गया और अपने हाथ के सहारे मुझे भी दीवार पार करा दी।
‘‘ये लोग गांव की जमीन बेचकर नये-नये शहर में आये हैं। घर में लाखों का सोना और रफपये हैं...!’’ शेखू ने मेरे कान में धीमें स्वर में कहा। मैं आंखें पफाड़-पफाड़ कर उस आधुनिक ढंग से बने खूबसूरत मकान को देखने लगा। सामने एक गलियारा था। उसी मंे कई कमरे बने हुए थे। वहां सभी कुछ नया-नया प्रतीत हो रहा था। नए-नए पालिश किए हुए किवाड़। नया पफर्नीचर और नया एअर कंडीश्नर, जिसके चलने का अंदाजा बालकोनी से ही लगाया जा सकता था। शेखू कुछ इस प्रकार हर कमरे को देख रहा था जैसे वह पहले से ही उस स्थान से परिचित हो।
शेखू ने एक ताला लगे कमरे की ओर इशारा किया। मैंने चाबी का गुच्छा निकाला और अन्दाजे से एक चाबी डालकर घुमाई। ताला खुल गया। हम दोनों उस कमरे में प्रविष्ट हुए। सामने ही एक तिजोरी रखी थी। मैंेने कई चाबियां लगाई किन्तु तिजोरी ना खुली। तभी कमरे का दरवाजा पुनः खुला और एक बूढ़ा सा आदमी अंदर आया।
‘‘कौन हो तुम लोग... अंदर कैसे घुस आए...?’’ बूढे ने कहा।
‘‘हम डाकू हैं... डाका डालने आये हैं...!’’ शेखू ने कहा।
‘‘नहीं...मैं पुलिस को इत्तिला करूंगा...!’’ बूढे़ ने कहा।
‘‘पुलिस को तब बुलायेगा ना जब हम तुझे जाने देंगे...!’’ इतना कहकर शेखू ने जेब से छुरा निकाल लिया और बोला-‘‘अब तिजोरी की चाबी भी तू ही देगा.. निकाल चाबी...!’’ शेखू पुनः बोला।
‘‘न...नहीं, मैं चाबी नहीं दूंगा...! बूढे़ ने लाचार से स्वर में कहा।
‘‘क्या है अब्बा-कौन है...?’’ यह एक नारी स्वर था। उसके पफौरन बाद ही एक जवान लड़की अंदर आयी।
कुछ नहीं बेटी तू अंदर जा...!’’ बूढ़ा बोला।
‘‘अरे वाह... क्या जोरदार माल है... क्यों मियां?’’
शेखू ने मेरी तरपफ देख कर आंख मारी। वह पुनः पलटा और धमकाके हुए स्वर में बूढ़े से कहा-‘‘चाबी निकाल...!’’ छुरा उसने बुढ़े की ओर बढ़ाया और बोला, ‘‘पहले तिजोरी लूटूंगा पिफर तेरी बेटी की इज्जत...।’’
‘‘नहीं नहीं यकायक बूढ़े की आंखों में आंसू आ गये और वह लड़की को अपनी ओर खींचने लगा किन्तु शेखू ने सीधे हाथ मंे पकड़ा छुरा बूढ़े की ओर बढ़ाया और बायें हाथ से लड़की को अपनी ओर खींच लिया।
‘‘मुएं गुंन्डे बदमाश...अगर मेरे अब्बा से कुछ किया तो...!’’ लड़की ने दांस पीसते हुए कहा।
‘‘अब तेरे अब्बा से नहीं... पहलेे तेरे साथ ही कुछ करफंगा। इतना कहकर उसने लड़की को पुनः अपनी ओर खींचा।
‘‘छोड़ दे कम्बख्त...।’’ इतना कह कर बूढ़े ने एक झटके से लड़की को छुड़ाया और बोला-‘‘भाग जा रूही बेटी... तू अपने कमरे में जा...।’’
‘‘नहीं, अब ये अकेली नहीं जाएगी... मेरे साथ जायेगी। पहले मैं इसी से मौज करफंगा...!’’ शेखू ने गिरेबान पकड़ कर बूढे़ को धक्का दिया और खुद लड़की को खींचकर कमरे से बाहर की ओर धकेलने लगा।
‘‘बूढ़े ने हाथ जोड़े।
‘‘मेरी बेटी को छोड़ दे...।’’
‘‘नहीं शेखू किसी की इज्जत मत लूट। लड़की को छोड़ दे...!’ मैंने कहा।
‘‘ये तू कह रहा है...?’’ शेखू ने कहा।
‘‘हां-ये काम मैं नहीं होने दूंगा...।’’ मैं बोला।
‘‘अच्छा तो पहले तुझे से ही निबटना होगा...।’’
शेखू ने छुरा मेरी ओर बढ़ाया। लेकिन बीच में बूढ़ा आ गया और छुरा उसी के पेट में घुस गया।
‘‘ब...बेटे....मेरी बेटी को बचाना। इसकी इज्जत!’’
इसके बाद बूढ़े की आंखें पैफल गईं। । बेचारा अपनी बात भी पूरी ना कर सका। रूही चीखी और हाथ खंजर की ओर बढ़ाया।
‘‘नहीं रूही... छुरे को हाथ मत लगाना...!’ मैंने कहा। इसी शोर गुल में पड़ोस के लोग घर के बाहर इकट्ठे हो गये। अब शेखू घबरा गया और मेन गेट का दरवाजा खोल कर भाग गया। जब लोग अंदर आये तो बूढ़ा पफर्श पर पड़ा था। उसके पेट में छुरा घुसा हुआ था और पूरे कमरे में खून ही खून था।
अब मैं पफंस चुका था। थोड़ी ही देर में पुलिस आ गई और मैं गिरफ्रतार कर लिया गया।
थाने में इंस्पेक्टर सलीम मेरे सामने थे। थोड़े समय बाद ही अम्मी नूरी और अजरा आपा भी आ गए। पफूपफा पफूपफी उसके बाद आये। सब चिंितंत दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे।
‘‘हां तो मिस्टर नूर मुहम्मद-तुम हमेशा दपफा, 302 के केस में ही कैसे पफंस जाते हो?’’ सलीम भाई ने कहा।
‘‘ल...लेकिन खून मैंने नहीं किया सलीम भाई...!’’ मैंने कहना चाहा।
‘‘मैं जानता हूं-लेकिन आधी रात में तुम वहां क्या करने गए थे?’’
‘‘ज...जी, शोर की आवाज सुनकर...!’’ मैंने कहा।
‘‘ये ठीक कहते हैं इंस्पेक्टर साहब। अगर ये नहीं आते तो मेरी इज्जत लुट चुकी होती...!’’ ये रूही का स्वर था। वह कुछ पड़ोसियों के साथ आई थी।
‘‘जी...जी हां...ये साहब बिल्कुल निर्दाेष हैं। मुजरिम खून करके भाग गया है और आप इस बेकसूर को दोषी समझ रहे हैं।’’ यह स्वर रूही के पड़ोसी का था।
‘‘जी हां-मेरे अब्बा तो अब वापिस नहीं आ सकते लेकिन इस शख्स को मैं नहीं पफंसने दूंगी।’’ रूही ने कहा।
इंस्पेक्टर सलीम कभी तो नूरमुहम्मद को देख रहे थे तो कभी रूही को। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी।
‘‘आप नूरा को कब छोडेंगे...?’’ अम्मी ने पूछा।
‘‘इन्हें असली मुजरिम की गिरफ्रतारी के बाद....!’’ सलीम ने आगे भी कुछ कहना चाहा लेकिन बाहर से आते कांस्टेबल के स्वर ने बात काट दी।
‘‘कातिल हाजिर है हजूर-हरामी खौपफजादा हालत में भाग रहा था। मैं बीट पर था। इसकी कमीज पर खून देख मैंने इसे पकड़ लिया।’’ ये शेखू था। उसे देखकर सभी लोग पहचान गये और हैरानी से उसकी ओर देखने लगे।
इंस्पेक्टर सलीम ने गिरहबान से पकड़ कर अपने सामने खड़ा किया और उसकी जेबों की तलाशी ली। उसकी जेबों से एक सिगरेट का पैकेट और चरश की पुड़िया बरामद हुई।
‘‘ये क्या है...?’’ इंस्पेक्टर पुड़िया की ओर इशारा करते हुए पूछा।
‘‘च...चरस...!’’ शेखू ने डरे स्वर में कहा।
इंस्पेक्टर ने एक जोरदार थप्पड़ शेखू के मुंह पर जड़ दिया।
‘‘श...शर... सलीम भाई सुनिये तो...!’ शेखू ने कुछ कहना चाहा। तभी नूरी चीखी-‘‘सलीम भाई...यही है मेरे अब्बू का कातिल। मैंने इसे पहचान लिया है...।’’
सब अवाक थे। नूर मुहम्मद तो जैसे आश्चर्य से उछल ही पड़ा।
दूसरे दिन अदालत मंे जब खंजर पर छपी अंगुलियों की निशानों की पफॉरेंसिक रिपोर्ट मिली तो मामला बिल्कुल सापफ हो गया। ये तीनों खून शेखू ने ही किए थे। किन्तु पुलिस ने पिफर भी उसे रिमांड पर ले लिया। रूही और सलीम भाई के बयानों के कारण अदालत ने मुझसे अधिक सख्ती नहीं बरती। किन्तु अपराधी मैं था ही क्योंकि मैंने रूही के घर की दीवार पफांद कर उसके घर में प्रवेश किया था। इसलिए मुझे एक महीने के साधारण कारावास का दंड दिया गया।
एक महीने बाद जब मैं जेल से बाहर आया तो अजरा आपा, रूही, सलीम भाई, अम्मी और नूरी दरवाजे पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सभी ने मेरा स्वागत किया।
अचानक सलीम भाई ने कहा-‘‘अमा नूर मुहम्मद’
‘‘जी भाई जान...!’’ मैेंने कहा।
‘‘सिपर्फ तुम्हीं नहीं बल्कि हम सभी दपफा, 302 के तलबगार हैं...!’’
‘‘वो कैसे...?’’
‘‘भई तुमने रूही का कत्ल किया... आई मीन सलीम भाई ने आंख मार कर एक नजर रूही पर डाली और पिफर मेरी ओर देखकर मुस्कराये। मैंने जब रूही की ओर देखा तो वह शर्माकर अजरा आपा की ओर देखने लगी।
‘‘और...?’’
‘‘और तुम्हारी अजरा आया ने हमारा...!’’
‘‘ओ .... तो आप भी...!’’ सुनकर अजरा आपा और सलीम भाई दोनों ही हंस पड़े।
कुछ दिनों बाद अजरा आपा और सलीम भाई की शादी का जश्न था। घर में खुशी की गहमा गहमी थी। पूफपफी भी उस दिन बहुत खुश थीं। उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने पास बिठा लिया।
‘‘एक बात बताओ पफूपफी...?’’ मैंने कहा।
‘‘पूछ...!’’
‘‘वो सांझे दूध वाला तुरफप का इक्का...!’’
‘‘अरे चुप पगले...!’’ पफूपफी ने होंठों पर अंगुली रखी और बोली।
‘‘देख... एक खूबसूरत झूठ को सच बनवाने के लिए अगर सौ झूठ बोले जाए तो वे सच से ज्यादा मीठे होते हैं।’’
मैं श्र(ा से पफूपफी की ओर देखने लगा।
समाप्त

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