Saturday, March 2, 2013

तुम ऐसे तो न थे

तुम ऐसे तो न थे



भगवान ने रूप प्रदान करने में यद्यपि बहुत कंजूसी दिखलाई थी नीता के प्रति, पर जहां तक यौवन का प्रश्न है, जी भर कर उन्होंने यौवन प्रदान किया था उसे। अठारह वर्षीया नीता को जिस दिन ब्याह कर लाया था शंकर, अंधेरी में अवस्थित अपनी छोटी सी खोली में, उस दिन उसने अपने आप को संसार का एक बहुत ही भाग्यशाली व्यक्ति समझा था।
बात यह थी-शंकर एक यतीम खाने में पला हुआ व्यक्ति था। कहा जाता है कि जब वह छोटा सा था, तभी उसके माता-पिता एक दिन मृत्यु के देवता से मिलने चले गये, ‘प्लेग’ के शिकार होकर सदा के लिये। उसके बाद उसने परवरिश पाई बम्बई के ही एक अनाथ आश्रम में। थोड़ी सी पढ़ाई के बाद ही उसे बुनाई का कार्य सीखने के लिये नियुक्त कर दिया गया, आश्रम के ही बुनाई विभाग में। बुनाई शिक्षा समाप्त करके वह बम्बई की ही एक मिल में बहाल हो गया। अब वह अपने पैरों पर खड़ा साधारण मनुष्य था। उसमें असाधारण कुछ नहीं था, सिवाय गठीले बदन और लम्बे कद के। रंग सांवला था और देखने में अच्छा नहीं, तो बुरा भी नहीं था वह।
अब उसे आवश्यकता थी एक गृहिणी की। शाम को मिल से लौटकर वह अपनी खोली में बैठकर बहुत ही एकाकीपन का अनुभव करता। दिन भर के परिश्रम के बाद उसका शरीर कदापि पसंद नहीं करता, दो घंटे चूल्हा बर्तन से उलझने को। फिर मिल में दिन भर कार्य करके लौटने पर उसे न तो कोई घर पर स्वागत करती मिलती और न ही कोई एक गिलास पानी उसकी ओर बढ़ाता। मिल में साथियों के मुंह से जब वह उनके बच्चों और घरवालियों के बारे में सुनता, तब उसकी आत्मा सिसक उठती। उसे न तो मिल में ही चैन मिलता, न ही घर आकर शान्ति मिलती और अपनी इसी कमी को दूर करने के लिये वह व्यग्र हो गया, ब्याह करने के लिये। और मिल के जब उसके एक साथी गंगा ने शंकर से अपनी छोटी साली के लिये बात की तो शंकर को ऐसा अनुभव हुआ जैसे सारे संसार की सम्पदा ही उसे मिलने वाली हो।
शीघ्र ही ब्याह से पूर्व की रस्में पूरी की गईं और फिर एक दिन नीता को उसकी विधवा मां ने पांच आदमियों के सम्मुख हिन्दू रिवाज के अनुसार सौंप दिया शंकर के हाथों। शंकर को अपने हाथों में मानो ‘कोहनूर’ मिल गया। ब्याह के नाम पर ही बचाये गये पैसों से सोने का एक हार व दो कर्णफूल तथा कुछ चांदी के जेवर खरीद कर और उन्हीं से अपनी दुल्हन को सजा कर, अपनी खोली पर ले आया।
अठारह वर्षीया नीता, सांवली व मध्यम कद की कन्या थी। मुख श्री में एक प्रकार का आकर्षण था जो कदाचित इस उम्र की लड़कियों में साधारणतः हुआ ही करता है। उसका गदराया हुआ बदन व सुडौल अंग प्रत्यंग देखने वाले को आकर्षित करने के लिये काफी थे। घर के काम काज में भी एक साधारण गरीब कन्या की तरह ही वह निपुण प्रमाणित हुई।
ब्याह कर आते ही उसने शंकर और उसके घर को अच्छी तरह संभाल लिया। बदले में शंकर ने अपने हृदय का सारा प्यार उस पर उंडेल दिया। शंकर सर्वदा ख्याल रखता कि उसे किसी प्रकार का कष्ट न हो। मिल से लौटते वक्त अपनी जेब के पैसों के मुताबिक वह कुछ न कुछ अपनी प्यारी नीता के लिये जरूर लाता। शादी के बाद कुछ दिन तक तो शंकर मिल से छुटते ही घर भागा करता और आते ही कुछ भी करती हुई नीता को अपनी बांहों में लेकर अपने प्यासे हृदय से लगाकर उसकी प्यास बुझाया करता। साधारणतः वह भी संध्या को उसकी दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती होती।
परन्तु शीघ्र ही प्यार का यह दौर समाप्त हो गया। अपनी प्यारी पत्नी को सुख में रखने के लिये शंकर को अब फिक्र लगी अधिक से अधिक पैसा कमाने की। उसने निश्चय कर लिया कि अब वह भी दूसरों की तरह ओवर टाईम करेगा। उसकी राय से अवगत होते ही नीता ने प्रतिवाद किया, ‘‘नहीं, नहीं। तुम इस ओवर टाईम फोवर टाईम के पचड़े में मत पड़ो जी। हमको वैसे ही दिन भर अच्छा नहीं लगता अकेले अकेले। उस पर अब तुम शाम को भी काम में रहोगे। हम इसी कमाई में किसी प्रकार गुजारा कर लेंगे।’’
उसे समझाते हुए अपने सीने से लगाकर शंकर ने कहा, ‘‘पगली हो तुम। अरे सभी करते हैं ओवर टाईम। और हम भी तो चाहते हैं कि तुम सुखी रहो। तुम्हारे बदन पर दो एक गहने रहें। कल को हमारा कोई बच्चा होगा तो उसको भी आराम मिले।’’ और किसी प्रकार राजी कर ही लिया उसने नीता को।
अब शंकर एक प्रकार से घर से बाहर ही रहने लगा। घर पर तीन चार घंटे अधिक काम करके लौटता वह। अपनी पत्नी को सुखी रखने के लिए अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिये व्यग्र था वह।
इधर नीता और भी उदास रहने लगी। उसे अब कुछ भी नहीं भाता। घर के काम काज से छुट्टी पाने के बाद समय उससे काटे नहीं कटता। उसकी उदासीनता अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाया करती, जब रात को भी शंकर केवल खाने के लिये आकर कह जाया करता कि मैं आज रात को नहीं आ सकूंगा। रात को ओवर टाईम कर रहा है।
पहले नीता बन संवर कर रहा करती थी, परन्तु अब वह शृंगार से उदासीन रहने लगी। उसका मन सदैव पति प्यार को तरसने लगा। शंकर का अधिक से अधिक समय मिल की चारदीवारी में व्यतीत होने लगा।
वह जानता था कि इस दुनिया में अभावग्रस्त व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है। वह जानता था कि गरीब की बीवी सबकी भाभी हुआ करती है और अपनी इसी कमजोरी को दूर करने के लिए शंकर सचेष्ट था। न चाहते हुए भी अपने हृदय पर शिला रखकर वह अपनी प्यारी पत्नी से दूर रहा करता।
आजकल नीता फिर संवर कर रहने लगी। शंकर हालांकि अब भी पहले की तरह मिल के कामों में अधिक उलझा रहा करता, पर नीता को अब उसकी पहले की भांति चिन्ता नहीं थी। वह भी खुश रहना चाहती थी और खुश रहने के लिये ही उसने उपाय ढूंढ़ना शुरू कर दिया। उपाय मिलते उसे देर भी न लगी। पड़ोस के एक बंगाली बाबू शांति रंजन सरकार में उसे आशा की किरण दिखलाई पड़ गई।
शांति बाबू स्थानीय किसी बैंक के क्लर्क थे। उन्हें शुरू से ही नीता बहुत अच्छी लगती थी। वे शंकर के पड़ोस में पिछले चार वर्षों से रहते आ रहे थे। मुम्बई में किराये पर घर मिलना बहुत ही कठिन होता है, इसीलिये शांति बाबू जब एक बार मजदूर और छोटे-मोटे कर्मचारियों की इस बस्ती में आकर बस गये तो फिर न जा सके और सच पूछा जाये तो बाद में उन्होंने जाने के विचार को सदा के लिये स्थगित ही कर दिया, क्योंकि बस्ती में उन्हें सभी सम्मान की दृष्टि से देखा करते। एक प्रकार से शांति बाबू सर्वेसर्वा बन गये थे मोहल्ले के। गरीबों व उनके बच्चों को सवेरे शाम होम्योपैथिक की दवाईयां मुफ्त में बांट बांट कर उन्होंने अपने लिये काफी यश भी कमा लिया था।
शांति बाबू अकेले ही रहा करते थे वहां पर। कहते हैं कि एक बहन के अलावा, जिसका ब्याह वह कलकत्ते में कर चुके थे, उनका अपना कहने को और कोई नहीं था। वह मोहल्ले में सभी से मिल जुल कर रहा करते। शंकर के ब्याह के पूर्व से ही शंकर से उनकी खूब पटा करती। शंकर अपना खाली समय अक्सर अपने पड़ोसी बाबू के ही साथ बिताया करता। चूंकि वह कुछ लिखा-पढ़ा था, इसलिये विश्व की ओर विशेषतः देश की प्रमुख घटनाओं की थोड़ी बहुत जानकारी सप्ताह में दो एक बार दैनिक पत्र खरीद कर जानने का प्रयास करता और अपनी जानकारी की पुष्टि वह शांति बाबू से जिनका घर सदा विभिन्न प्रकार की पत्रिकाओं से भरा होता, करवा लेता।
शांति बाबू से वह इतना प्रभावित हुआ था कि शादी करके नीता को अपने घर लाने के पश्चात जब शांति बाबू ने उसके घर आना जाना छोड़ दिया और चूंकि खुद भी वह अपनी नई दुल्हन में उलझा रहा करता और इसलिये शांति बाबू से नहीं मिल पाता, स्वयं उसने उनसे कहा था, ‘‘अकेले घर पर शाम को क्या करते हो बाबू? क्यों नहीं मेरे घर आ जाया करते। बैठकर इकट्ठे चाय पियेंगे, बातें करेंगे।’’
और जब शांति बाबू ने आना कानी की थी तब उसने जोर देकर कहा था, ‘‘नहीं, नहीं बाबू। मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगा। अरे तुम क्या मेरे लिये कोई गैर हो? और फिर मैं क्या इतने दिनों के मिलाप के बाद भी तुम्हें नहीं पहचान पाया?’’ और उसके बाद ही प्रायः शांति बाबू शंकर के घर जाया करते। शुरू-शुरू में तो नीता बेहद पर्दा करती पर बाद में अपने पति के कहने पर उसने भी धीरे-धीरे पर्दा करना छोड़ दिया और फिर कभी-कभी तो एक बात भी करने लग गई उनसे।
इधर जब से शंकर ने घर पर रहना कुछ कम कर दिया, तब से शांति बाबू पुनः अपने घर में सीमित हो गये। लेकिन एक दिन की घटना ने फिर से उन्हें शंकर की अनुपस्थिति में भी उसके घर जब तब जाने की इजाजत दिलवा दी।
एक बार नीता अस्वस्थ हो गई। कई दिनों से बुखार आने लगा था। इस अवस्था में पत्नी की देखभाल करने के लिए शंकर को छुट्टी लेनी आवश्यक जान पड़ी। लेकिन चूंकि ‘ओवर टाईम’ में काम करने के एक मास के खातिर उसने अपना नाम विशेष सूची में लिखवा लिया था और फिर कुछ ही दिन पूर्व उसने अपनी समूची प्राप्य छुट्टी ब्याह के अवसर पर खत्म कर दी थी, इसलिये उसे छुट्टी नहीं मिल सकी, हालांकि उसने अर्जी दी भी थी। और फिर जब उसने देखा कि यह तो केवल साधारण बुखार मात्र है और शांति बाबू की ओर से भी जब उसे ‘‘घबराने की बात नहीं, कुछ नहीं होगा’’ का अमर वरदान प्राप्त हो गया, तब वह कुछ निश्चिंत हुआ। लेकिन उसने अपने अनुरोध से शांति बाबू को भी बाध्य किया कि वे उसकी अनुपस्थिति में भी, विशेष करके उन दिनों, जाकर उसकी पत्नी को देखभाल लिया करें।
शुरू में शांति बाबू ने एक आदर्श व्यक्ति बनकर ही नीता के निकट जाना आरम्भ किया। दवा वगैरह पीने के बारे में निर्देश देने और देखभाल के नाम पर कुछ-कुछ पूछने, हालांकि नीता में कुछ ऐसा आकर्षण अवश्य था, जिससे वे शुरू से ही नीता में दिलचस्पी लेने लगे थे। वास्तव में शंकर ने अब उनसे अपनी अनुपस्थिति में नीता की देखभाल के लिये अनुरोध किया था, तब बरबस उनके हृदय ने अपार हर्ष का अनुभव किया था। बाद में इसका कारण विश्लेषण करके शांति बाबू के शिक्षित मस्तिष्क ने थोड़ा सा लज्जा का अनुभव भी किया था। लेकिन इससे कुछ न हुआ।
एक दिन एक ऐसी घटना घट गई कि शांति बाबू की शिक्षा और संस्कृति एक ओर धरी की धरी रह गई और उनके अपने ही हाथों उनमें अपार विश्वास रखने वाले शंकर की अरमानों की दुनिया उठ गई। एक सन्ध्या समय जब शांति बाबू शंकर के घर गये, तब उन्होंने नीता को लेटे हुए पाया।
वैसे एक दिन पहले ही नीता का बुखार उतर चुका था, यह शांति बाबू जानते थे। उन्होंने शाम के समय इस तरह उसे लेटे हुए देखा तो कुछ परेशान हो उठे। उन्होंने यह भी देखा कि कमरा प्रकाश से भी वंचित है। वे व्यग्र होकर लेटी हुई नीता के करीब गये और पूछा, ‘‘क्या बात है भाभी, क्या फिर तबियत खराब हो गई?’’ स्पष्ट था कि इधर आपसी बातचीत में वे काफी खुल चुके थे।
‘‘नहीं बाबू! वैसे ठीक ही हूं। खाली सिर दुख रहा है, जैसे फट ही जायेगा यह।’’ नीता ने धीमे स्वर में कहा।
‘‘ओह! ठहरो, मैं इसके लिए एक दवा लेकर आता हूं। तुम रुको तो जरा रोशनी कर लूं घर में।’’ शांति बाबू ने कहा।
‘‘नहीं नहीं, दवा-ववा की जरूरत नहीं है मुझे। हो सके तो मेरे तकिये के नीचे से माचिस लेकर जरा बत्ती जला दो बाबू। और अगर बुरा न मानो तो जरा धीरे-धीरे सिर दबा दो मेरा, जिससे मैं थोड़ा सो सकूं।’’ नीता ने कहा।
जहां तक बत्ती जलाने का सवाल था, शांति बाबू ने किसी प्रकार की परेशानी का अनुभव नहीं किया। पर सिर दबाने के विषय में वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये। बत्ती जलाकर क्या करूं, क्या न करूं, वे इसी कशमकश में पड़े हुए थे कि एक बार फिर दुखते हुए स्वर में नीता ने कहा, ‘‘जरा दबा दो न बाबू।’’
इस अनुरोध के बाद शांति बाबू स्थिर न रह सके। वैसे भी किसी पुरुष के लिये संध्याकाल में किसी युवती के सिर दबाने का आमंत्रण कम महत्व नहीं रखता।
शांति बाबू नीता के सिरहाने बैठकर धीरे-धीरे उसके सिर पर हथेली फेरने लगे। नीता आंखें बंद किये पड़ी रही। शांति बाबू की हथेली सिर के बालों से हटकर नीता के मस्तक पर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने लगी।
नीता उसी तरह आंखें बन्द किये पड़ी रही। शांति बाबू उसके सौन्दर्य का अवलोकन करने लगे, नीता के पुष्ट अंग प्रत्यंग शांति बाबू को काफी आकर्षक लगे। अब मस्तक दबाते हुए उनकी हथेली का चाप हल्का होने लगा और उनकी आंखों के सम्मुख एक प्रकार का अंधेरा छाने लगा और फिर हाथ पांव एक दम से ढीले पड़ गये उनके।
उसके बाद दीन दुनिया की बातें ताक पर रख और इन्सानियत को नमस्ते कर कूद पड़े शांति बाबू हैवानियत के समुद्र में समुद्र की मदमस्त लहरों ने उन्हें उठाकर नहीं फेंका, बल्कि स्वागत किया उनका और समा लिया उन्हें अपने में। बेचारे शंकर की दुनिया लुट गई।
शंकर को पहले तो इन बातों के बारे में कुछ भी पता न चला और जब पता चला तो वह लाचार था।
शांति बाबू आजकल महीने भर की छुट्टी पर थे। शंकर ने इन दिनों फिर से समयानुसार घर पर लौटना शुरू कर दिया था, क्योंकि अब मिल में काम अधिक नहीं था।
आज नीता ने शंकर से लौटते समय दादर स्थित अपने जीजा जी के यहां हो आने को कहा था, क्योंकि शंकर ने ही बताया था कि उसकी बहन की तबीयत खराब है। लौटने में शंकर को करीब आठ बज गये। घर आकर उसने देखा कि दरवाजे खुले पड़े हैं और घरवाली गायब है। नीता का गायब होना शीघ्र ही इसलिये स्पष्ट हो गया, क्योंकि कमरे के एक कोने में रखा हुआ ट्रक खुला पड़ा था और उसमें रखे जेवर कपड़े गायब थे। शंकर ठगा-सा रह गया। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि नीता ने उसके साथ विश्वासघात किया है। शंकर शांति बाबू के घर पहुंचा, पर शांति बाबू भी घर से गायब थे। उनका सामान भी नदारद था।
दूसरे दिन शांति बाबू के दफ्तर से शंकर को पता चला कि उन्होंने अर्जी देकर अपने बदली कलकत्ता करवा ली थी। शंकर को यह दूसरा आघात लगा, क्योंकि वह शांति बाबू को देवता समझे बैठा था। कलकत्ता में वह शांति बाबू को पा सकता था पर क्या फायदा कुछ नहीं। वह बस यही सोच रहा था, ‘औरत कितनी बेवफा होती है, पर मर्द?’ और शांति बाबू का चेहरा उभर आया उसकी दृष्टि में। पर वह तो पराया था, औरत तो अपनी थी। और उसे औरत के नाम से ही नफरत होने लगी-औरत बेवफा।
परन्तु क्या सचमुच नारी समाज की एक सदस्या नीता की वर्णित कृति ‘बेवफाई’ प्रमाण है?
- प्रस्तुति: रमेश गुप्त

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