Saturday, March 9, 2013

रोंगटे खड़े कर देने वाली हैरत अंगेज कथा

सफेद भेड़िया की भटकती रूह

भेड़िया एकदम अजीब-सी खौफजदा आवाज निकाल कर ठहर गया। उसने चारों तरफ सिर घुमा कर देखा, जैसे मैं देखा करता था। इत्मीनान करने के बाद उसका मुंह खुला, ‘‘उन्नीस तारीख याद रखना।’’ मैं चकरा कर गिरते-गिरते बचा। भेड़िये के मुंह से मैंने इंसानी स्वर सुना था, मुझे यकीन नहीं हो रहा था। दिल की धड़कने डूबने लगी थी। खौफ की ज्यादती से मेरा बदन थर-थर कांपने लगा।
उन दिनांे मैं एक प्राइवेट कंपनी में एकाउंटेंट की हैसियत से काम कर रहा था। आर्थिक वर्ष का अंतिम महीना था। उन दिनों आडिट का काम जोरों पर था। हमें हिसाब-किताब ठीक करना था। इसी आधार पर ओवर टाईम भी हो रहा था।
उन दिनों मैं जिस इलाके में रहता था, वहां से मेरा ऑफिस काफी दूर पड़ता था। मेरे पास अपनी कोई सवारी नहीं थी। फिर शहर के हालात ठीक नहीं थे। मैंने बड़ी कोशिश की कि किसी तरह रात ज्यादा होने से पहले ही छुट्टी कर लिया करूं। इसी चक्कर में मैं बहुत सवेरे ऑफिस पहुंच जाता था, लेकिन काम था कि किसी भी सूरत में कम नहीं हो रहा था।
मेरा एक साथी नासिर मेरे ही इलाके के किसी ब्लॉक में रहता था। मैंने अपनी परेशानी उसे बताई, तो उसने मुझे तसल्ली दी और रात का काम खुद संभाल लिया। यूं मैं आठ बजे ही घर के लिए निकल जाता था। ऑफिस से घर तक का सफर और वह भी खटारा बस, में बड़ा तकलीफदेह था।
दूसरी बड़ी परेशानी यह थी कि मेरा घर बस-स्टाप से दूर सूनसान आबादी में था। रास्ते में एक बड़ा कब्रिस्तान पड़ता था, जिसकी दीवार के साथ-साथ मुझे बहुत दूर-दूर तक सफर करना पड़ता था।
अब से पहले मुझे यह सफर कभी लम्बा नहीं लगा था और ना रास्ता ही भयानक। लेकिन शहर के हालात की वजह से, खास तौर पर सेन्ट्रल का इलाका तो शाम से ही सुनसान हो जाता था। वहां वीरानी छा जाती थी।
पहली बार यह एहसास तीव्रता के साथ मेरे दिल में जड़ें पकड़ रहा था कि रास्ते में कब्रिस्तान भी है। मैं डरपोक नहीं हूं, ना कमजोर विश्वास का हूं, लेकिन यह इंसानी स्वभाव है कि अंधेरे से डरता है मानो मेरा यह डर पैतृक था। फिर यह ख्याल भी परेशान करता था कि कब्रिस्तान दहशतगर्दों, लुटेरों और शैतानों के लिए बेहतरीन पनाहगाह साबित होते हैं और हो सकते हैं।
बहरहाल, यह तो भूमिका थी। सिर्फ यह बताने का मकसद था कि रात का यह सफर, ऑफिस से स्टॉप तक का तकलीफदेह, लेकिन स्टॉफ से घर तक का सफर खौफनाक हुआ करता था। नासिर की वजह से मैं ऐसे वक्त में घर पहुंच जाता था, जब इक्का-दुक्का लोग आ-जा रहे होते थे। यूं डर की जड़ें मेरे अंदर ज्यादा गहरी नहीं हो पाती थीं।
यह भी बताता चलूं कि मैं अपने घर में सबसे बड़ा था। मेरे दो भाई और एक बहन छोटे थे। अब्बू दूसरे शहर में काम करते थे। हम दो बरस पहले ही इस शहर में आए थे। उस वक्त यहां अमन था। मेरे छोटे भाई-बहन पढ़ रहे थे। मैं एम.बी.ए. कर चुका था और बहुत धक्के खाने के बाद एक प्राइवेट कम्पनी में जॉब कर रहा था।
उन दिनों मेरी मौसेरी बहन की शादी थी। मेरी मौसी दूसरे शहर में रहती थीं। अब्बू से मुलाकात भी। छोटे भाई-बहनों की छुट्टियां थीं, इसलिए अम्मी ने जाने का प्रोग्राम बना लिया। मैं अकेला रह गया था। सवेरे निकलता था तो रात को लौटता था। खाना-पीना बाहर ही होता था। सिर्फ सुबह की चाय बना लिया करता था।
ऑफिस का काम खत्म होने में अभी लगभग एक हफ्ता बाकी था कि नासिर का एक्सीडेंट हो गया। जख्म गहरे नहीं थे, लेकिन बहरहाल उसे रेस्ट करना था। घुटने और कुहनियां छिल गई थीं। बाईक भी टूट-फूट गई थी। इसका नतीजा यह हुआ कि उसका सारा काम मुझे ही संभालना पड़ा।
यूं मुझे फिर ऑफिस से निकलते-निकलते रात के दस बजने लगे। बस तसल्ली इस बात की थी कि अब एक हफ्ते का काम बाकी था। मैं सोच रहा था कि काम खत्म होते ही कम से कम दस रोज की छुट्टी लेकर अब्बू के पास चला जाऊंगा। शादी में तो शरीक नहीं हो सका, लेकिन अब्बू से मिल लूंगा।
उस रोज मैं जिस बस में बैठा था, वह यकीनन किसी आलसी की बस थी। ड्राइवर भी उसी का आदमी लग रहा था। लोगों के शोर मचाने के बावजूद वह अपनी मनमानी रफ्तार से गाड़ी चलाता रहा। मैं बस-स्टॉप पर उतरा, तो रात के पौने ग्यारह बज चुके थे। बस से उतरने के बाद जैसे ही बस मेरी नजरों से ओझल हुई, यूं लगा, जैसे मुझे अफ्रीका के जंगलों में उतार दिया गया हो।
छोटी-छोटी झाड़ियां, जो सड़क के दोनों तरफ उगी हुई थी, सिर से ऊपर तक फैली महसूस हुई। फिर ठंडी तेज हवा की सरसराहट और दूर पोल में लगे इकलौते बल्ब की रोशनी में उसके घटते-बढ़ते साए मेरे रोंगटे खड़े करने के लिए काफी थे।
हवा में खुनकी बहुत थी। यह इस शहर की खासियत थी, यानी दिन भर गर्मी और रात को ठंड। मैंने लम्हा भर रूककर अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई। दूर-दूर तक कोई नहीं था। मैंने दिल मजबूत किया। कोट की जेबों में हाथ डालकर उस सड़क पर चल दिया, जिसके दाएं तरफ बंद दुकानें थीं और बाईं तरफ यानी जिस तरफ मुझे जाना था, कब्रिस्तान की दीवार थी।
अभी मैं कुछ कदम ही चला था कि मेरी नजर एक छाया पर पड़ी। यह छाया किसकी थी, यह तो मैं नहीं जान सका, लेकिन इतना एहसास हुआ, जैसे कोई शख्स कब्रिस्तान की दीवार से लगा बैठा हो। पलभर को मैं ठिठका। ठंडे पसीने छूटे। फिर बदन में हल्की-सी कंपकपी का एहसास हुआ, मगर दूसरे ही लम्हे मैंने खुद पर काबू पा लिया। सोचा, मुमकिन है, कोई मेरी तरह थका-हारा दम लेने को बैठ गया हो।
यह सोच कितनी बेवकूफी भरी थी, इसका एहसास भी मुझे फौरन हो गया था, लेकिन अब प्रॉब्लम यह थी कि मैं अब ना पलट कर भाग सकता था, ना रास्ता काट कर किसी और तरफ मुड़ सकता था, इसलिए कि यहां दूर-दूर तक कोई मोड़ ही नहीं था। पहला मोड़ वहीं आता जहां मुझे मुड़ना था और वहां से कुछ कदम दूर मेरा घर था।
मैंने हिम्मत की। धीमी रफ्तार से आगे बढ़ता चला गया। दिल ही दिल में दुआएं पढ़ रहा था। संजीदगी से सोच रहा था कि कल मैं बॉस से बात करूंगा कि अगर वह मुझे जल्दी फारिग नहीं कर सकते, तो मेरे सोने का इंतजाम ऑफिस में ही कर दें, ताकि मैं मानसिक तनाव से बच सकूं।
सड़क पर लगे पोल की रोशनी, यहां तक पहुंचते-पहुंचते काफी कम हो गई थी, मगर फिर भी करीब पहुंच कर उस वक्त मेरी जान में जान आई, जब देखा, वह छाया किसी इंसान की नहीं, बल्कि भेड़िये की थी। अजीब बात यह थी कि वह भेड़िया बिल्कुल सफेद था, जो बर्फीले इलाकों में ही पाया जाता है।
यह सफेद भेड़िया यहां क्या कर रहा है। अवचेतन रूप में मैं लम्हे भर को ठिठका, लेकिन भेड़िये का अंदाज आक्रामक नहीं था, बल्कि दोस्ताना था। हालांकि वह खुद बड़ा ही खौफनाक लग रहा था। वह बिल्कुल सफेद रंग का मोटा-ताजा भेड़िया था।
उसने सिर घुमाकर मेरी तरफ देखा, तो मुझे उसकी हरी-हरी आंखें इतनी हल्की रोशनी में भी नजर आ गईं, क्योंकि वह जुगनुओं की तरह चमक रही थीं। मेरे ठिठकने पर उसने सिर नीचे झुकाया। जमीन को सूघां। फिर दुम हिलाते हुए मुझसे आगे की तरफ चल दिया।
अब मैं काफी हद तक संभल चुका था, हांलाकि दिलो-दिमाग काफी थक चुके थे, लेकिन मौजूदा सूरतेहाल बहरहाल गनीमत थी। भेड़िये की मौजदूगी मुझे यूं भी अजीब नहीं लगी थीं, क्योंकि उन दिनों कई बड़े-बड़े जमींदार घरानों में कुत्तों की जगह भेड़िये पालने का शौक आम बात हो चुकी थी।
मेरे कदमों में कुछ तेजी आ गई। अब मैं जल्दी से जल्दी उस शैतान की आंत जैसी भयानक सड़क को पार कर लेना चाहता था। सफेद भेड़िये की मौजूदगी भी थोड़ा-सा खौफजदा कर रही थी। इतना मुझे पता था कि अगर उससे डरा तो यह और डराएगा। इस मामले में भेड़िये इंसान से कतई भिन्न होते हैं। अगर उसके करीब से बिना डरे गुजरूंगा तो यह कुछ नहीं कहेगा।
सो, मैंने सावधानी के तौर पर उससे कुछ दूर होकर आगे चलना शुरू कर दिया। कुछ ही देर बाद वह मुझसे पीछे रह गया। अब उसका पीछा करना मेरी पिंडलियों में ऐंठन पैदा कर रहा था। मुझे भागने पर उकसा रहा था, मगर मैं उसी रफ्तार से आगे बढ़ता चला गया।
कुछ ही देर बाद मैं अपने घर के दरवाजे पर पहुंच गया। मैंने जेब से पहले ही चाबी निकाली थी। दरवाजे का लॉक खोलते हुए मैंने धीरे से पलट कर देखा भेड़िया मेरे ऐन पीछे खड़ा मेरी तरफ ही देख रहा था।
दरवाजा खुलते ही मैं गड़ाप से अंदर दाखिल हो गया और फौरन ही दरवाजा भी लॉक कर दिया। अंदर पहुंच कर मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत बहुत खराब है। मेरी सांस फूली हुई थी। हवा में खुनकी होने के बावजूद मेरी कमीज पीठ पर से पसीने में भीगी हुई थी। हथेलियां पसीज गई थीं।
मैंने कोट उतारा। कमीज बदली, मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारे। तब जाकर होशो-हवास बहाल हुए। तभी एहसास हुआ कि मुझसे बड़ा कोई बेवकूफ नहीं है। एक भेड़िये ने, बल्कि एक शरीफ भेड़िये ने मेरे कस-बस निकाल दिये। मैंने बॉस से बात करने का इरादा छोड़ दिया। यूं भी वह उस वक्त मजाक उड़ता, जब यह बताता कि मैं एक शरीफ भेड़िये से डर गया हूं। इसलिए रात को मैं अपने घर नहीं जाना चाहता।
अगले रोज मैं उठा तो कल के दिमागी तनाव की वजह से बदन दुःख रहा था, लेकिन उठना तो था। गर्म पानी से नहाकर मैं खुद को काफी बेहतर महसूस कर रहा था। चाय पीकर ऑफिस पहुंच गया।
सारा दिन फाईलों में सिर खपाता रहा। दुनिया जहान की खबर नहीं रही। सोचा था, नासिर की खैरियत फोन पर ही मालूम कर लूंगा, वरना यह क्या सोचेगा। अपना काम था, वक्त बेवक्त फोन कर लिया करता था।
काम से कुछ फुर्सत मिली, तो सिर उठाकर देखा। रात के नौ बज चुके थे। मेरे अन्य साथी भी चिड़चिड़े हो रहे थे। कुछ काम समेट रहे थे, कुछ फाईलों में डूबे हुए थे। मैंने अपना काम समेटा, तो मेरा एक साथी मेहमूद भी खड़ा हो गया था। हम दोनों साथ ही ऑफिस से निकले थे। पौने दस बजने वाले थे। मैंने हिसाब लगाया कि आज भी अगर बस ड्राइवर आलसी मिला, तो मुझे घर पहुंचते-पहुंचते साढ़े ग्यारह भी बज सकते हैं और अगर कोई रहमदिल इंसान मिल गया तो यकीनन कल वाले टाईम तक पहुंच जाऊंगा। बस फौरन ही मिल गई। मैं महमूद को खुदा हाफिज कहकर भागकर बस में सवार हो गया।
मेरी दुआ कबूल हो गई थी। यह ड्राइवर या तो रहमदिल था या उसकी नई-नई शादी हुई थी। स्टॉप आने से पहले कंडक्टर से पूछ लेता था कि आगे कोई उतरने वाला है कि नहीं। कोई होता तो गाड़ी रोक देता और अगर नहीं होता तो फर्राटे भरता, गुजरता चला जाता। मैं खुश हो गया। उम्मीद बंध गई कि शायद कल से भी जल्दी पहुंच जाऊं।
इसे आप मेरा दुर्भाग्य कह लें कि बस में डिजल कम था या उसे अभी डलवाना जरूरी था। वह एक पेट्रोल पम्प पर जाकर खड़ा हो गया। उस पेट्रोल पम्प पर तीन ट्रक आगे-पीछे खड़े थे। बस की बारी आते-आते पन्द्रह मिनट हवा हो गए। फिर जब चला तो लगा कि पेट्रोल खत्म होने के डर से तेज भगा रहा था। पेट्रोल डलवाते ही वह टेंशन-फ्री हो गया। टेप भी ऑन कर दिया। पहलू बदल कर आधा सीट पर और आधा दरवाजे की तरफ झुक कर बैठ गया। मुमकिन है, यह उसके पुरसकून होने का अंदाज हो या गाने से लुत्फ लेने का स्टाइल। मेरा दिमाग गरम होने लगा।
मुझसे ज्यादा गर्म दिमाग वालों ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया। शायद टंकी के साथ उसके कान भी पेट्रोल से लबालब भर गए थे कि सिवाए गाने के कोई आवाज उसके कानों तक नहीं पहुंच रही थी। मुझे यकीन हो गया, ना सिर्फ यह कि वह कुंवारा है, बल्कि मेरी तरह अकेला भी है, बल्कि उसका इंतजार करने वाला पूरी दुनिया में कोई नहीं है।
मैं स्टाप पर उतरा तो ग्यारह बज कर बीस मिनट हो चुके थे। बस मुझे सुनसान सड़क पर उगलकर निकल गई। भरी बस से उतरते ही सन्नाटे के दैत्य ने मुझे जकड़ लिया। मैंने पहले की तरह होशियार नजरों से चारों तरफ देखा।
दूर पोल के टिमटिमाते बल्ब के सिवा जिन्दगी का कोई एहसास नहीं था। रोशनी जिन्दगी की निशानी है और अंधेरा मौत का। मैं इस फलसफे को दिल में दोहराता हुआ और बिजली वालों को दुआएं देता हुआ कि कम से कम इस वक्त वह लाईट बंद नहीं करते। फिर मैं अपने रास्ते चल पड़ा।
आज मुझे उस भेड़िये का कोई ख्याल नहीं आया। सिर्फ सुनसान रास्ते और कब्रिस्तान की दीवार की मौजूदगी ने कछुए के खोल की तरह मुझे बंद करके डराना शुरू कर दिया। मैं तेज कदमों से अपने घर की तरफ बढ़ रहा था कि अचानक वह सामने आ गया।
मैं बेअख्तियार उछल पड़ा। दिल जैसे गोला बनकर गले में फंस गया। कदम जमीन ने पकड़ लिए। भेड़िया ठीक मेरे सामने खड़ा कुत्ते की तरह दुम हिला रहा था। आज भी उसका अंदाज आक्रामक नहीं था।
आज भी लम्हा भर मुझे देखने के बाद उसने मुड़कर आगे-आगे चलना शुरू कर दिया था। मैं खुद को संभालता रहा। फिर उसके पीछे चल पड़ा। वह उस वक्त अंधेरे में था और मेरे करीब पहुंचते ही अचानक सामने आ गया था।
मुझे गुस्सा तो बहुत आया। फिर यह सोचकर चुप हो गया कि उस पर गुस्सा करना बेकार है। बल्कि सच्ची बात तो यह थी कि सुनसान रास्ते पर उससे बिगाड़ना ठीक नहीं था। अब तक तो उसने शराफत का प्रदर्शन किया था, लेकिन जरूरी नहीं था कि वह मेरे गुस्से को भी बर्दाश्त कर ले और इसी शराफत से चलता रहे। अगर पलटकर वह मुझ पर हमला कर देता, तो दूर-दूर तक मुझे बचाने वाला कोई न था।
आज भी वह मुुझे घर के दरवाजे तक छोड़ कर खड़ा हो गया था। अब मैं उसके बारे में संजीदगी से सोच रहा था। इसलिए घर के अंदर दाखिल होते ही मैंने खिड़की से बाहर झांका। सिर्फ यह देखने के लिए कि वह क्या कर रहा है? वह सिर झुकाए वापस उस तरफ जा रहा था, जहां से हम साथ-साथ आए थे। बात बिल्कुल समझ में नहीं आई। उसका व्यवहार कतई हैवानी नहीं था।
इससे पहले मैंने उसे देखा भी नहीं था। वह क्यों मेरे इंतजार में रहता है? क्यों मुझे घर तक पहुंचा कर पलट जाता है? यह बात मेरी समझ में नहीं आई थी। यह एक दिन की बात होती तो कोई मसला नहीं था। मैं इसे इत्तेफाक समझता रहता, मगर आज दूसरे दिन भी वही कुछ हुआ।
मैं उलझा रहा और रोज के काम निपटाता रहा। आज बहरहाल कल जैसी हालत नहीं हुई थी, इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं थी। मैं उस रात कल की अपेक्षा ज्यादा आराम से सोया।
तीसरे रोज ऑफिस से बाहर आते ही वह भेड़िया फिर मेरे दिमाग पर सवार हो गया। पता नहीं, आज भी पिछले दो दिनों वाला इतेफाक होगा या नहीं? यही सोचता हुआ मैं बस में सवार हो गया। आज भी ऑफिस से निकलते हुए दस बज चुके थे, मगर आज ना मुझे ड्राइवर पर गुस्सा आया, ना बस की रफ्तार नोट की।
मैं तो बस उस भेड़िये के बारे में सोचता रहा और जब कंडक्टर ने मेरे स्टॉप पर आवाज लगाई तो मैं चौंक उठा। यूं लगा, जैसे बस मिनटों में मेरे स्टॉप पर पहुंच गई हो। मैंने घड़ी देखी, पौने ग्यारह बज रहे थे।
माहौल पहले की तरह, बल्कि पहले से ज्यादा खौफनाक था, मगर आज आसपास की वीरानी ने मुझे खौफजदा नहीं किया था। मेरा सारा ध्यान कब्रिस्तान की दीवार के गहरे अंधेरे साए पर था, जहां से वह कल अचानक सामने आ गया था। आज वह मुझे दिखाई नहीं दे रहा था।
मैं तेज रफ्तार से आगे बढ़ता हुआ कब्रिस्तान की दीवार के करीब पहुंच गया। वह नजर नहीं आया। उस जगह पर कोई नहीं था। मैंने रफ्तार कम कर ली। चारों तरफ देखा। दूर-दूर तक कोई जीव नहीं था। मेरी सारी उत्सुकता हवा हो गई।
उस तरफ से ध्यान हटा तो माहौल का दानव धीरे-धीरे मेरे दिलो-दिमाग पर पंजे गाड़ने लगा। तेज हवा से कब्रिस्तान की दीवार से लगे दरख्त झूमने लगे, तो बेवजह ही बदन में ठंडी लहरें उठने लगी। मैंने खुद पर काबू पाते हुए दरम्यानी रफ्तार से चलना शुरू का दिया।
अचानक मुझे आहट महसूस हुई। मैं चौंका और पलटकर देखा। कोई नहीं था। फिर मुड़कर चल पड़ा। तभी कदमों की आहट साफ सुनाई दी। इस बार मैं उछल पड़ा। ठिठक कर रूक गया। अब भी दूर-दूर तक कोई शख्स दिखाई नहीं दिया। दिलो-दिमाग फिर चटखने लगा। अखबार की सुर्खियां आंखों में घूमने लगीं, ‘‘अज्ञात सशस्त्र दहशतगर्दो ने पन्द्रह लोगों का कत्ल कर दिया।’’
‘‘दूध के लिए जाने वाले शख्स को गोली मारी।’’
‘‘दोस्त ने दोस्त का अपहरण करके मौत के घाट उतारा।’’
यह सारी सुर्खियां मेरी आंखों के सामने गोल-गोल घूमने लगीं। फिर सुर्ख धब्बों की शक्ल में सामने आने लगीं। मेरे कदमों में तेजी आ गई। फिर अज्ञात दहशतगर्द के कदमों की आहट मेरा पीछा करने लगी। कब्रिस्तान में सिसकियां-सी गूंजती महसूस होने लगीं। पसीना बहने लगा। सर्दी का एहसास मिट गया।
रफ्तार और तेज हो गई, लेकिन कब्रिस्तान की दीवार मानो दीवारे-चीन जितनी लंबी हो गई थी। इतना चलने के बावजूद खत्म ही नहीं हो रही थी। वह मोड़ ही नहीं आ रहा था, जहां से मुड़कर मेरा घर आ जाता और खौफ कहीं पीछे सुनसान रास्ते पर कुलांचे भरता रह जाता।
‘‘बेटा...।’’ सन्नाटे और भयानक वीरानी में कई दरारें पड़ गईं।
मेरा दिल उछल-उछलकर गले में आ गया। मुझे लगा, जैसे यह आवाज किसी इंसान की ना हो, बल्कि कब्रिस्तान की दीवार चूमते हुए दरख्त, सुनसान सड़क, दूर लगा बिजली का पोल और हवा ने मुझे आवाज दी है।
मैं लड़खड़ा कर रूका। फिर घबराकर चल पड़ा। अब मैं दुआएं पढ़ रहा था। मेरी निगाहें सिर्फ उस मोड़ पर लगी थीं। न उससे ज्यादा मैं कुछ देखना चाहता था, न कुछ सोचना। मगर ऐसा करना मेरे लिए नामुमकिन हो गया।
‘‘बेटा रूको जरा।’’
उस आवाज ने मेरे पैरों को जकड़ लिया। मैं अनजाने तौर पर घूम गया। पीछे रास्ता सुनसान था। खौफ बटी हुई रस्सी की तरह मुझे अपनी लपेट में ले रहा था। मेरी निगाहें चारों तरफ का जायजा लेकर लौटने ही वाली थीं कि...।
ठीक उसी जगह, कब्रिस्तान के अंधेरे साए तले मैंने हरकत महसूस की, जहां पिछले दो दिन से वह भेड़िया बैठा मेरा इंतजार कर रहा था। फिर देखते ही देखते एक इंसानी आकृति निकल कर मेरे सामने आ गई। मैंने पलटकर भाग जाना चाहा, लेकिन कदमों ने मेरा साथ नहीं दिया।
वह आकृति हल्की-सी लंगड़ाहट लिए मेरी तरफ आ रही थी। मेरा गला खुष्क हो चुका था। पोल की रोशनी ने आकृति को काफी स्पष्ट कर दिया था, लेकिन फिर भी हमारे बीच फासला इतना था कि मैं उसे यानी उसके नयन-नक्श को साफ तौर से नहीं देख पा रहा था।
अचानक मुझे ख्याल आया कि कोई सशस्त्र आतंकवादी भी हो तो सकता है। ऐसा आतंकवादी, जो कहीं से पुलिस का मुकाबला करके आ रहा हो, उसकी टांग में गोली लगी हो। अब यह मुझे गन प्वाईंट पर मुझे अपने घर लेकर आएगा और मुझसे टांग से गोली निकालने को कहेगा। सारी रात मेरे घर में छुपा रहेगा और सुबह-सवेरे पहचान लेने के डर से मुझे कत्ल करके भाग जाएगा।
मेरी लाश बंद कमरे में सड़ती रहेगी। मेरे ऑफिस वाले मेरे ना पहुंचने पर परेशान होंगे, लेकिन वह जानते हैं कि मैं अपने अब्बू के पास दूसरे शहर जाने वाला था, शायद वहीं चला गया हूं। घरवाले वहां मेरा इंतजार करते रहेंगे। फिर जब मेरे घर से उठने वाली बदबू मोहल्ले में फैलेगी, तब या जब मेरे घरवाले आ जाएंगे, तब मेरी मौत का राज खुलेगा, बल्कि राज क्या खुलेगा, सिर्फ इतना पता चल सकेगा कि अज्ञात आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बन गया और बस...।
‘‘बेटा...।’’
इस बार आवाज बिल्कुल मेरे करीब से आई थी। मैं उछल पड़ा। ख्यालों से बाहर आया तो वह मुझसे कुछ कदम के फासले पर खड़ा था। होश आते ही मैं खुद को लानत-मलामत करने लगा, क्योंकि मेरे सामने खड़ा आदमी बेहद बुजुर्ग लग रहा था। वह लगभग साठ-सत्तर साल के एक बड़े मियां थे। सफेद कुर्ता-पाजामा और सफेद टोपी पहने वह साहब कतई अजनबी महसूस नहीं हुए।
‘‘ज...जी...।’’ बेसाख्ता मेरे मुंह से निकला।
‘‘तुम शायद खौफजदा हो गए हो।’’ उनका लहजा बेहद नर्म था।
‘‘न...नहीं तो...वैसे यह जगह...अचानक...।’’
‘‘हां, यह रास्ता बहुत सुनसान है।’’ वह धीरे से मुस्कराए। अब वह ऐसे रूख पर खड़े थे कि पोल की हल्की रोशनी सीधे तौर पर उनके चेहरे पर पड़ रही थी।
‘‘मगर तुम तो यहां से रोज गुजरते हो। मुझे भी जब पता चला था, तो मैंने...।’’ वह अचानक चुप हो गए।
‘‘जी...आप...आपको कैसे पता चला? क्या आप यहीं कहीं रहते हैं?’’ मैंने पूछा।
‘‘नहीं...मैं कुछ दूर रहता हूं।’’ उन्होंने मुझे अजीब-सी निगाहों से देखा।
‘‘फिर...?’’ मैं उलझ गया।
‘‘बेटा, तुम्हारे लिए यह रास्ता बहुत मेहफूज (सुरक्षित) है। मगर तुम...उन्नीस तारीख को...उन्नीस तारीख को यहां से मत गुजरना...वहीं ऑफिस मैं रूक जाना।’’
‘‘जी...?’’ मैं हैरान रह गया। आज बारह तारीख थी, ‘‘मगर क्यों...और आप कौन हैं?’’ मैं अब परेशान भी हो गया था।
‘‘मैं तुम्हारी वालिदा का दोस्त हूं। हम साथ ही पढ़े-लिखे थे। साथ ही नौकरी की थी। हम दोनों एक ही इलाके में रहते थे। फिर उसने यहां मकान खरीदा तो मैंने प्लॉट खरीद लिया। मैं उसे बनवाना चाहता था, मगर...खैर...यह तो लंबी कहानी है। तुम छोड़ो इसे...सिर्फ मेरी बात ध्यान से सुनो। उन्नीस तारीख याद रखना। मैं चलता हूं।’’ इतना कहकर वह साहब पलटे, मगर मैं उनके सामने आ गया।
‘‘क्यों अंकल! आप ऐसा क्यों कह रहे है? आप मुझे बताएं...उन्नीस तारीख को क्या होगा?’’
‘‘यह तुम्हें बीस तारीख को पता चल जाएगा...जल्दी न करो। कुछ बातें ऐसी होती हैं कि जिन्हें बताने के लिए इंसान ही नहीं हैवान भी मजबूर होते हैं।’’ उनके लहजे में गहरा खेद था। वह कुछ लम्हें मुझे देखते रहे। फिर उन्होंने अजीब से अंदाज में सिर हिलाया और पलट गए।
कुछ कदम चले होंगे कि वह रूके। फिर पलट कर बोले, ‘‘हां जैकी मिले तो उससे कहना, तुम्हें मियां साहब पूछ रहे थे। उसे यूं गायब नहीं होना चाहिए था, मुझे आकर बताना चाहिए था।’’
मैं हैरान हुआ और पूछा, ‘‘कौन जैकी?’’
‘‘मेरा पालतू सफेद भेड़िया...।’’
मैं उछल पड़ा, ‘‘वह...वह सफेद भेड़िया आपका है?’’
‘‘मेरा था मगर, खैर...कल वह जरूर आएगा। तुम उससे कह देना।’’
फिर इससे पहले कि मैं कुछ और पूछता, वह हैरतअंगेज रफ्तार से चलते हुए फिर कब्रिस्तान की दीवार के अंधेरे साए में गुम हो गए। उन्हें उस जगह गायब होते साफ मैंने देखा था। और इसके बाद मेरे दिमाग में धमाके होने लगे थे। पसीना बह कर पूरी कमर को भिगो गया था।
इसके बाद तो मैं ऐसे सरपट भागा कि बहुत-से कदमों की चाप को अपने पीछे महसूस करने के बावजूद मैं रूका नहीं, बल्कि भागता रहा। वह कदमों की चाप मेरी ही थी या किसी और की, मैंने सोचने और पलटकर देखने की जरूरत न समझी।
घर के दरवाजे पर पहुंच कर मैं बेदम हो गया। यूं लग रहा था, जैसे मैंने बस स्टॉप से घर तक का नहीं, बल्कि ऑफिस से घर तक का रास्ता यूं ही भागते हुए तय किया है। मेरे हाथ बुरी तरह कांप रहे थे। चाबी किसी सूरत में लॉक में नहीं जा रही थी। बार-बार कांपते हाथों में लरज कर रह जाती थी।
बड़ी मुश्किल से लॉक खुला और मैं दरवाजे को जोर से धक्का देता हुआ अंदर दाखिल हो गया। वह सारी रात सोचते-सोचते, जागते-सोते, बल्कि खौफजदा होते बीत गई। सुबह होते-होते मुझे बुखार भी हो गया।
बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। पहले सोचा कि ऑफिस फोन करके छुट्टी मांग लूं, मगर फिर वही मसला सिर उठाए खड़ा था कि अगर देर करूंगा, तो भी काम मुझे ही निपटाना है। नहीं गया तो और देर हो जाएगी। अम्मी-अब्बू के पास दूसरे शहर जाना भी खटाई में पड़ जाएगा। अम्मी, बच्चों के स्कूल की वजह से ज्यादा इंतजार नहीं करेंगी।
लिहाजा, हिम्मत करके उठ खड़ा हुआ, चाय पी। दो सलाईस खाकर, दो गोलियां निगल लीं और ऑफिस जाने के लिए तैयार हो गया। मैं दिमागी तौर पर बहुत परेशान था। यह बुखार...बुखार तो मेरे लिए अहम नहीं था, मगर सफेद भेड़िया और फिर उन बड़े मियां वाला मामला अब खासा रहस्यपूर्ण हो चुका था।
बड़े मियां के कहने के मुताबिक, वह सफेद भेड़िया उनका था। उन्होंने उससे कोई काम कह रखा था। वह दो दिन मेरे इंतजार में रहा था। अपनी हिफाजत में घर तक पहुंचा जाता था। फिर पिछली रात वह गायब था। तीसरे दिन उसकी जगह बड़े मियां उसी दीवार के साए से बरामद हुए थे।
बड़े मियां खुद को मेरी वालिदा का दोस्त बता रहे थे। लेकिन उन्होंने अपना नाम मुझे नहीं बताया था, ना ही मेरी वालिदा का नाम लिया था कि उनकी बात की पुष्टि होती। उन्होंने भेड़िये के लिए मुझे पैगाम दिया था, जो आज मुझे उस तक पहुंचाना था, मानो वह इंसानी जुबान से बखूबी वाकिफ हो। मियां साहब का नाम लेना उसके लिए काफी था, बल्कि मुझे उसे मियां साहब की नाराजगी के बारे में भी बताना था कि वह उन्हें खबर दिए बिना गायब हो गया।
यह सारा चक्कर कहीं फिट नहीं हो रहा था। फिर भी मैं इन बातों पर अंदर से यकीन कर रहा था, हालांकि कमजोर विश्वास वाला ना होने का दावा अब भी था। मैं इस सिलसिले में नासिर से बात करना चाहता था, ताकि हल्का-फुल्का हो सकूं, लेकिन नासिर से मुलाकात मुमकिन नहीं रही थी। वह ऑफिस आने के काबिल नहीं था और मुझे उसके पास जाने का वक्त नहीं मिल रहा था।
आज तो ऑफिस में बॉस भी नहीं आए थे कि मैं उन्हें अपनी बीमारी की मजबूरी बताकर ऑफिस से जल्दी निकल जाता। इस बारे में अन्य लोगों से बातें करके मैं अपना मजाक नहीं उड़वाना चाहता था। इसी कशमकश और व्यस्तता में दिल निकल गया।
रात घर जाते हुए मैंने पहले सोचा कि जेनब खाला के पास चला जाऊं, मगर मैं खानदान वालों से ज्यादा घुला मिला नहीं था। फिर जेनब खाला की बेटी इस्मत से मेरा कुछ जज्बाती लगाव भी था। अम्मी इस्मत से मेरा रिश्ता तय करने वाली थीं, इसलिए उनके घर जाने में और झिझक महसूस होती थी। आखिरकार मैंने फैसला कर लिया कि अपने ही घर जाऊंगा। उनके घर जाता भी तो कब तक रहता?
फिर जैसे-जैसे मैं उस सफेद भेड़िये और बड़े मियां के बारे में सोचता गया, जेहन हल्का होता गया। वह भेड़ियां जंगली तो हरगिज नहीं था। पालतू था और पालतू भेड़िये सधाए हुए होते हैं। मुझे यह बात फिल्मों से भी याद आने लगी, जिनमें कुछ भेड़ियों ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। भेड़ियों ने बैंकों में डकैतियां भी डाली थी। हीरो को भी बचाया था या फिर हीरोइन को।
फिल्मी स्टाइल का वह भेड़िया भी हो सकता है। जब फिल्मों में भेड़िये अंग्रेजी भाषा समझ लेते हैं, तो हमारे देश का भेड़िया उर्दू भी समझ जाता होगा। अब रही उन्नीस तारीख की बात, तो अभी उन्नीस तारीख में काफी दिन थे। यह सब अट्ठारह तारीख को भी सोचा जा सकता था कि उन्नीस तारीख को क्या करना है। यह भी मुमकिन था कि मेरा काम खत्म हो जाता और मैं यहां से अम्मी-अब्बू के पास चला जाता।
बस स्टॉप पर उतरा तो लगा कि जैसे खौफ जमीन पर किसी दरिया की तरह बह रहा था। बस कदम निकालते और जमीन पर रखते ही मैं घुटनों-घुटनों खौफ में डूब गया। पता नहीं, कैसा मनहूस इलाका था कि किसी रोज भी उस रास्ते से कोई आता-जाता नहीं था।
मेरी बस के रवाना होते ही, लगता था। जैसे उस सड़क से न कभी कोई गुजरा है, न कभी जिन्दगी भर गुजरेगा। ओस में भीगी हुई काली चमकती सड़क, किसी विधवा की उजड़ी हुई मांग की तरह नजर आती थी।
मैं खौफ से भीगता घर की तरफ चल पड़ा। सबसे पहले मेरी निगाह कब्रिस्तान की दीवार की जड़ें टटोलने लगी थीं, जहां आज कोई नहीं था, मगर इससे पहले भी ऐसा हो चुका था कि मुझे किसी के न होने के एहसास के बावजूद वह दोनों मेरे सामने आ चुके थे।
आज मैं तैयार था और दरम्यानी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था। उम्मीद के मुताबिक आधे रास्ते पर पहुंच कर एक साया-सा निकल कर मेरे सामने आ गया। मैं ठिठक गया। वह सफेद भेड़िया था और आज फिर सिर उठाए मुझे देख रहा था। फिर वह पलटकर चल पड़ा। मैंने खंखार कर गला साफ किया और कहा, ‘‘मियां साहब तुम्हें पूछ रहे थे।’’ ऐसा कहते हुए मैं अपने-आपको दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख और बेहद चुगद शख्स महसूस कर रहा था।
लेकिन उस वक्त मेरे रोंगटे खड़े हो गए, जब वह एकदम रूका। उसने पलट कर मुझे देखा। मैं अंजाने तौर पर एक कदम पीछे हट गया। यूं जैसे वह मुझ पर हमला करने वाला होे। दूसरे ही लम्हे वह फिर आगे चल दिया। मैंने सिर घुमाकर चारों तरफ देखा कि कहीं कोई मेरी बेवकूफी को तो नहीं देख रहा, मगर बेकार था। वहां कोई नहीं था। मेरा एतमाद बहाल होने लगा।
मैंने भेड़िये से फिर कहा, ‘‘वह कह रहे थे कि तुम्हें यूं गायब नहीं होना चाहिए था। जाकर रोज उन्हें खबर देनी चाहिए थी।’’
उसने सिर उठाकर मेरी तरफ देखा। मैं फिर सहम गया। मगर वह फिर सामने देखकर चल पड़ा। ना जाने मुझे यूं क्यों लगा कि मैं अपने किसी दोस्त के साथ जा रहा हूं। एक अजीब-सा अपनापन था और एक अजीब-सा अहसास कि मेरे साथ कोई जानवर नहीं, बल्कि इंसान है।
‘‘यह उन्नीस तारीख वाला क्या चक्कर है?’’ बेसाख्ता मैंने उससे पूछा।
वह एकदम अजीब-सी खौफजदा आवाज निकाल कर ठहर गया। मैं भी उसके साथ ही रूक गया। उसने चारों तरफ बिल्कुल उसी तरह सिर घुमाकर देखा, जैसे मैं देखा करता था। इत्मीनान करने के बाद उसका मुंह खुला।
‘‘यह तुम्हें बीस तारीख को मालूम हो जाएगा।’’
मैं चकरा कर गिरते-गिरते बचा। मैंने भेड़िये को साफ तौर पर बोलते देखा और सुना था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था। दिल की धड़कनें डूबने लगी थीं। खौफ की ज्यादती से मेरा बदन थर-थर कांपने लगा।
‘‘कक...क्या कहा तुमने...।’’ मेरे गले से फंसी-फंसी आवाज निकली।
‘‘जो तुमने सुना...।’’ उसने सिर उठाकर फिर कहा।
फिर उसने भागना शुरू कर दिया, मगर रफ्तार बहुत तेज नहीं थी। मैंने लंबे-लंबे डग भरने शुरू कर दिए। आज वह मुझे मोड़ पर ही छोड़ कर भाग रहा था। उसके निगाहों से ओझल होते ही मुझे अकेलेपन का एहसास हुआ, मगर मैं खौफजदा नहीं था।
मेरी गली मेरे सामने थी। दोनों तरफ बने घरों की खिड़कियों के अंदर से रोशनी छन-छन कर बाहर आ रही थी। कहीं से टी.वी. और कहीं से रेडियो की आवाज आ रही थी। कोई बच्चा रो रहा था और किसी का शौहर चीख-चीख कर बीवी को गालियां दे रहा था। उसके एक जुमले ने उसका शौहर होना साबित कर दिया था।
वह कह रहा था, ‘‘पहले तो मेरी मां को देखोगी, फिर अपनी मां के घर जाना...समझी।’’
मैं गहरी सांस लेकर घर की तरफ बढ़ गया। फिर हैरतअंगेज बात यह हुई कि चौदह-पन्द्रह, सोलह और सत्रह तारीख को मुझे रास्ते में न भेड़िया मिला, न ही वह बड़े मियां। मैं रोज इसी उम्मीद के साथ बस से उतरता कि आज उनमें से कोई न कोई या कम से कम वह भेड़िया मेरा इंतजार कर रहा होगा। मगर मुझे मायूसी होती। उन दोनों के न होने से इतना जरूर हुआ था कि मैं खौफजदा हुए बिना घर पहुंचा जाता था।
आज अठारह तारीख थी। बिस्तर पर आंख खुलते ही जैसे किसी ने मेरे कानों में सरगोशी की थी कि कल उन्नीस तारीख है। मैं एक झटके से उठ बैठा। कुछ देर सोचता रहा कि क्या करूं। फिर झुंझला कर उठ खड़ा हुआ। अभी सोचने को मेरे पास सारा दिन था। काम भी बस आज ही का था।
आज हर हालत में मुझे काम खत्म करना था। मेरा अंदाजा था कि रात नौ बजे से पहले ही काम खत्म कर लूंगा। सुना था, आज नासिर भी आ जाएगा। उसके ना होने से मेरा काम बहुत बढ़ गया था। नासिर होता तो मैं काम जल्दी से जल्दी खत्म कर सकता था। मैं खुश हो गया था। कल सुबह यानी उन्नीस तारीख को मैं अम्मी-अब्बू के पास दूसरे शहर जाने की तैयारी कर सकता था और अगर सुस्ती ना करता तो रात ही को तैयारी करके कल सुबह ही जा सकता था। फैसला करके मैं उठ गया।
तैयार होकर ऑफिस पहुंचा तो पता चला कि नासिर का फोन आया था कि उसके घुटने में तकलीफ है, वह कल से ऑफिस ज्वाइन करेगा। यह सुनते ही मेरा मूड खराब हो गया। जैसे-तैसे रात दस बजे तक तमाम काम निपटाया।
फिर घर के लिए निकल पड़ा। आज भी रास्ते में कोई नहीं था। सहमा-सुकड़ा मैं घर की तरफ जा रहा था। सोच रहा था कि आज इस भयानक माहौल से मुक्ति मिल जाएगी। अम्मी-अब्बू के पास जाकर दिलो-दिमाग का तनाव भी कम होगा। फिर तो आठ बजे से पहले ही घर आना होगा। यह सोचते ही सब कुछ दिमाग से निकल गया। दिमाग हवा में उड़ता महसूस हो रहा था।
मोड़ पर पहुंच कर याद आया कि आज भी भेड़िया नहीं था। होंठों पर मुस्कान फैल गई। सोचा कि जरूर बड़े मियां ने उस भेड़िये की क्लास ली होगी और घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी होगी, क्योंकि रात को वह आवारगी करता है।
मोड़ पर पहुंच कर मैं हल्के सुरों में सीटी बजाता हुआ घर के दरवाजे पर पहुंच गया। चाबी निकाली, ताला खोला और उछल पड़ा। वह भेड़िया अगले दोनों पांव खड़े किए पिछली टांगों पर बैठा, अपनी हरी-हरी आंखों से मुझे घूर रहा था।
‘‘तुम...तुम अन्दर कैसे आ गए?’’ मैंने घबराकर बुलंद आवाज में कहा। फिर पलट कर खिड़की को देखा। वह अंदर से बंद थी। उस दरवाजे और खिड़की के सिवा आने का रास्ता भी कोई नहीं था। चारों तरफ की दीवारेें ऊंची थीं और उन पर शीशों के टुकड़े लगे हुए थे। खिड़की में भी ग्रिल लगी हुई थी। लेकिन अगर वह खुली रह जाती, तो मैं जरूर सोचता कि वह उसी रास्ते से अंदर आया होगा।
उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। जिस जगह बैठा था, वहां से जरा सरक कर दूसरी जगह जा बैठा और वह सफेद कागज मुझे साफ नजर आ गया, जो उसके नीचे दबा हुआ था। मैं खौफजदा हो गया था, मगर उस भेड़िये से नहीं, बल्कि किसी अनहोनी से...। मैंने झुक कर कागज उठाया। किसी ने घसीटती हुई राईटिंग में लिखा था, ‘‘इसके साथ चले जाओ।’’ नीचे कोई नाम नहीं था।
उसूली तौर पर तो मुझे इस हिदायत पर कतई अमल नहीं करना चाहिए था, मगर मैं बेवजह बेचैन हो गया। भेड़िया उठ खड़ा हुआ था और शायद मेरे चलने के इंतजार में था। उस वक्त दिमाग में कोई नेगेटिव बात नहीं आई, बल्कि उन बड़े मियां का चेहरा नजरों में घूम गया।
‘‘क्या बात है जैकी, मियां साहब तो ठीक है ना?’’ मैंने पूछा।
और जैकी की आंखों से टपकते आंसू देखकर मैं भौंचक्का रह गया।
‘‘चलो।’’ मैं दरवाजे की तरफ पलट गया।
जैकी यह सुनते ही मुझसे आगे निकल कर बाहर खड़ा हो गया। मैंने दरवाजे को लॉक किया और उसके साथ चल पड़ा। वह आगे-आगे चल रहा था और बार-बार पलट कर मुझे यूं देख रहा था, जैसे उसे शक हो कि मैं पीछे से चुपके से गायब हो जाऊंगा। मुझे बिल्कुल ख्याल नहीं आया कि रात के बारह बज रहे हैं।
मैं कहां जा रहा हूं, कब लौटूगा? कुछ एहसास नहीं था। बस मैं किसी अंजान की तरह भेड़िये के पीछे-पीछे चल रहा था। अचानक कोई गाड़ी मेरे पास से गुजरी तो मैं चौंका। तभी आवाजों ने मुझे घेर लिया। रिक्शा वाले की आवाज, टैक्सियों की आवाजें, सामने के होटल में बर्तनों की आवाजें...। मैंने हैरान होकर अपने चारों तरफ की जिन्दगी के इस जमघटे को देखा और बुरी तरह उछल पड़ा।
यह वह जगह नहीं थी, यह वह इलाका नहीं था। मेरा इलाका तो भूतहा था। वीरान और उजाड़ और उस वक्त मैं शहर के किसी रौनक भरे इलाके से गुजर रहा था और सफेद भेड़िया अभी भी मेरे आगे-आगे चल रहा था।
अब वह मेन रोड से हट कर एक गली की तरफ जा रहा था। मेरा बदन पसीने में सराबोर हो गया। मेरे चारों तरफ लोग आ-जा रहे थे, मगर किसी को एहसास न था कि उनके बीच गुजरने वाले उस आदमी पर क्या गुजर रही है, वह कैसे अजीबो-गरीब हादसे का शिकार हो रहा है या उसके आगे-आगे दौड़ने वाला यह भेड़िया क्या चीज है। यह उसे कहां से, कहां ले आया और कैसे ले आया।
मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता था। अगर कुछ कहता तो मुझे पागल समझते। अब हम गली में दाखिल हो गए थे। पहले पक्के मकान गुजरे। फिर कच्चे मकानों की कतार शुरू हो गई। रोशनी कम होने लगी। अंधेरा बढ़ने लगा। सड़कें टूटी हुई कच्ची पगडंडी में बदल गई। ऊंचा-नीचा रास्ता। मैं चलता ही रहा। अंधेरे की वजह से मेरी रफ्तार भी कम हो गई थी।
सहसा भेड़िया एक अंधेरे में डूबे मकान के पास जाकर रूक गया। उसने सिर के दबाव से दरवाजा खोला। फिर मुझे यूं देखा, जैसे अंदर आने के लिए कह रहा हो। मैं अंदर दाखिल हो गया।
अंदर अंधेरा था। मैंने माचिस जला ली। सामने ही लालटेन रखी थी। मैंने आगे बढ़कर लालटेन जला ली। फिर जब रोशनी फैली तो मेरा खून खुष्क हो गया। कमरे के बीच में एक बड़ा-सा गड्ढा-सा खुदा हुआ था और उसके किनारे भेड़िया बैठा हुआ था।
वह अंदर झांक रहा था। मुझे यहां से ही साफ तौर पर मियां साहब का चेहरा दिखाई दे रहा था। किसी ने जमीन खोदकर उन्हें दफन कर दिया था। मिट्टी उनके चेहरे पर लगी हुई थी। भेड़िया मुंह उठाकर रोने लगा। उसकी ‘हाऊ’ की आवाज से मैं बुरी तरह कांप रहा था।
अचानक ही मैं खौफ से जड़वत हो गया। बिजली की तरह एक ख्याल दिमाग में कौंधा था कि यह कत्ल है और मैं यहां मौजूद हूं। यह ख्याल आते ही मैं उछल कर दरवाजे की तरफ भागा और फिर मुझे कुछ होश नहीं कि मैं किस तरह और किस तरह से निकल कर मेन रोड तक पहुंचा।
मैंने ऑटो लिया। ड्राइवर को पता बताया और अपने कांपते बदन को संभालने लगा। ऑटो सड़क पर दौड़ने लगा।
‘‘अब कहां जाना है?’’ ऑटो ड्राइवर की अवाज ने मुझे चौका दिया। मैंने झांक कर देखा, हम कब्रिस्तान पीछे छोड़ आए थे। गली का मोड़ करीब था।
मैंने उसे इशारे से बताया कि इसी गली में चलो। घर के दरवाजे के पास उतरकर मैंने उसे पैसे दिए। वह चला गया, तो डरते-डरते मैंने घर का दरवाजा खोला।
खौफ था कि कहीं वह सफेद भेड़िया अंदर ना बैठा हो, मगर अंदर कोई नहीं था। मेरी बहुत बुरी हालत थी, मैं खुद को कोस रहा था कि क्यों पागलों की तरह मैं उस भेड़िये के कहने पर चल पड़ा था। यह भी रात जागते बीती। सारी रात में मैंने दूसरे शहर जाने की तैयारी कर ली थी।
सुबह होते ही मैं स्टेशन पहुंचा। टिकट लिया, टी.टी. की ‘सेवा’ कर आरक्षण लिया और ऊपर की बर्थ पर घोड़े बेचकर सो गया। शाम तक का सफर आराम से कटा। शाम को मैं मौसी के घर पर था। यहां आकर पता चला कि अब्बू, अम्मी और बच्चांे को लेकर मेरे घर की तरफ आज सुबह ही रवाना हो गए थे। मेरी अजीब हालत हो गई, यानी आज सुबह ही मैंने उनकी वजह से घर छोड़ा था और आज सुबह ही वह घर के लिए रवाना हो चुके थे। यानी अब मैं यहां था और मेरा परिवार वहां था।
मौसी ने जोर देकर मुझे कुछ दिन के लिए रोक लिया। वैसे भी मैं जल्दी जाने के मूड में नहीं था। उन्नीस तारीख का खौफ दिल से निकल चुका था। इसलिए उन्नीस तारीख कब गुजर गई, पता नहीं चला।
बीस की सुबह मैं अभी नाश्ते से फारिग हुआ था कि घर से अम्मी का फोन आ गया। उन्होंने फोन पर जब मेरी आवाज सुनी तो फूट-फूट कर रो दीं। मैं भौंचक्का रह गया, ‘‘क्या हुआ अम्मी?’’
‘‘अब्बू...तुम्हारे अब्बू...।’’
‘‘क्या हुआ अब्बू को...।’’ मैं बेसाख्ता चीख पड़ा।
‘‘तुम्हारे अब्बू तुमसे मिलने के लिए बेचैन थे, इसलिए हमारे साथ ही घर आ गए थे। कल रात कब्रिस्तान के पास किसी ने उन्हें गोली मार कर हलाक कर दिया है...। वह...वह हमारे बीच नहीं रहे...।’’
मेरा दिल किसी ने मुट्ठी में लेकर भींच दिया था। मेरे वजूद में गाढ़ा-सा धुंआ-सा भरता जा रहा था। बड़ी देर बाद मुझे होश आया तो अम्मी फोन काट चुकी थीं। उन्नीस तारीख का शब्द हथौड़े की तरह मेरे दिमाग पर बरसने लगा था। मैंने वापसी का सामान बांधा और शाम को घर पहुंच गया।
मैं खुद को संभालता हुआ घर वापस तो आ गया था, मगर होश गुम थे। इतना होश फिर भी था कि मैंने अपने साथ बीती घटनाएं किसी को नहीं बताईं, वरना मैं खुद चक्कर में आ सकता था।
घर पहुंचते ही मैं फट पड़ा, खूब रोया। रिश्तेदार मुझे संभालते रहे। कुछ हालत ठीक हुई, तो मैंने सोचा कि अम्मी को सब कुछ बता दूं, मगर कुछ सोच कर चुप हो गया।
सारा दिन और सारी रात सोचता रहा कि आखिर उन बड़े मियां को उन्नीस तारीख को घटने वाली घटना के बारे में कैसे पता थे? क्या उन्होंने दहशतगर्दों के प्रोग्राम को सुन लिया था? क्या उन्होंने इसी आधार पर मुझे चेतावनी दी थी? और फिर क्या वह लोग जान ना गए होंगे कि उन्होंने मेरे धोखे में किसी और को मार दिया था।
जैसे-जैसे मैं सोच रहा था, वैसे-वैसे मेरी हालत खराब होती जा रही थी। अब मुझे यकीन हो गया था कि जरूर मियां साहब ने सारा प्रोग्राम सुन लिया था और यह बात वह दहशतगर्द भी जान गए थे, इसलिए उन्हांेने मियां साहब को ठिकाने लगा दिया। उन्हें शायद पता नहीं होगा कि मियां साहब मुझे बता चुके हैं।
मैं इसी सोच में लेटा था कि छोटा भाई खाने के लिए बुलाने आ गया। मैं मुंह-हाथ धोकर दूसरे कमरे में गया तो तमाम घरवाले अम्मी के साथ डाइनिंग-टेबल पर मेरा इंतजार कर रहे थे। मैं अम्मी के बराबर में बैठ गया। उसी लम्हे मेरी निगाह अम्मी के पीछे रखी एलबम पर पड़ी।
एलबम खुली हुई थी। शायद कोई देखते-देखते यूं ही छोड़ गया था। मैंने उसे अपनी तरफ सरकाया और जब मेरी निगाह उस तस्वीर पर पड़ी तो मैं उछल पड़ा।
कुछ चेहरे आखिरी दम तक उसी तरह रहते हैं, जैसे कभी वह अपनी जवानी के दौर में हुआ करते थे। हां, वक्त अपने गुजरने के निशान झुर्रियों की शक्ल में जरूर छोड़ जाता है। मियां साहब उन चेहरों में एक थे।
तस्वीर में मियां साहब अम्मी के साथ बैठे हुए थे। यह कॉलेज ग्रुप की फोटो थी। जाहिर है कि यह तस्वीर उनकी जवानी के दौर की थी।
‘‘अम्मी...यह...यह कौन है?’’ मैंने बौखलाए हुए अंदाज में पूछा।
अम्मी के चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई। हया ने अंगड़ाई लेकर चुटकी ली, तो उन्होंने घबराकर निगाहें नीची कर लीं। जल्दी से संभल कर बोली, ‘‘बेटा, यह मेरे दोस्त थे, अंसारी साहब...बेचारे...।’’
‘‘क्या मतलब...?’’ मैं समझा कि वह उनके कत्ल से वाकिफ हो चुकी है, ‘‘थे क्या मतलब, अम्मी? क्या यह अब नहीं है?’’
‘‘नहीं बेटा! आज से तीस बरस पहले किसी ने इन्हें कत्ल कर दिया था।’’
मैं घबरा गया, ‘‘अम्मी, यह आप क्या कह रही हैं। यह तो जिन्दा थे। यह मुझे मिले थे। इन्होंने ही तो मुझे।’’
मैं चकरा कर रह गया। गला खुष्क हो गया और मैंने सिर दोनों हाथों से थाम लिया। अम्मी और तमाम घर के लोग मेरी तरफ आकृष्ट हो गए थे। मैंने शुरू से आखिर तक उन्हें सारी दास्तान सुना दी। अम्मी ने उसे विस्मय और दिलचस्पी से सुना। फिर बताया कि उनका सफेद भेड़िया जैकी भी था, लेकिन उस भेड़िये को भी अज्ञात हत्यारे ने उन्हीं के साथ गोली मार कर उनके कमरे में ही दफना दिया था।
रात गहरी हो गई थी। सभी अपने-अपने बिस्तर पर लेटे बेखबर सो रहे थे और मैं खौफ के आलम में बिस्तर पर करवटें बदल रहा था। रात का ना जाने कौन-सा पहर था कि मैं बाथरूम जाने के लिए कमरे से निकला तो अम्मी के कमरे की लाईट जलते देखी। जिज्ञासावश मैं उनके कमरे की तरफ बढ़ा कि अम्मी अभी तक क्यों जाग रही हैं।
चुपके से कमरे में झांका तो उस खिड़की की तरफ उनकी पीठ थी। उनके सामने वहीं एलबम खुली हुई थी और वह रो-रोकर बड़बड़ा रही थी, ‘‘आखिर तुम ने अपने कत्ल का बदला ले ही लिया अंसारी। मगर तुम बड़े बेेवफा निकले, जब हमने साथ जीने और साथ मरने की कसमें खाई थीं तो तुझे इस दुनिया में तन्हा छोड़ कर क्यों चले गए। मगर नहीं इसमें तुम्हारा क्या कसूर...। हमारी मोहब्बत को तो जमाने की नजर लग गई थी अंसारी। इसलिए हमें जबरदस्ती जुदा किया गया था। मगर तुम फ्रिक मत करो अंसारी। बहुत जल्दी ही मैं भी तुम्हारे पास पहुचंने वाली हूं। मैं जानती हूं, इस दुनिया के बाद एक जहां और भी है, जहां हम साथ-साथ रहेंगे...हमेशा-हमेशा के लिए...।’’


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