Wednesday, November 6, 2019

एमएलए गजानन सिंह से वह कुछ इस तरह प्रभावित हुआ कि सब इंस्पेक्टर की नोकरी छोड़कर उसका खास आदमी बन गया। नेता की खातिर उसने ढेरों अपराध किये, जिसमे ताजा तरीन कारनामा, एक निर्दलीय उम्मीदवार -जिसका जीत जाना तय था- का दिनदहाड़े किया गया कत्ल था। मामले ने कुछ यूं तूल पकड़ा की नेता के संभाले नहीं संभला। आखिरकार अश्विन पंडित गिरफ्तार कर लिया गया। मगर बात वहीं खत्म नहीं हुई, वह पुलिस कस्टडी से भाग निकला। नहीं जानता था आने वाले दिनों में उसके जीवन में कितना भयानक तूफान आने वाला था। उन भयानक पलों का उसे जरा भी एहसास होता तो पुलिस हिरासत से भागने की कोशीश हरगिज़ भी नहीं करता।

Sunday, July 7, 2019

हैरतअंगेज हत्या - शीध्र प्रकाशित

काॅफी का कप उसके हाथ से छूटकर फर्श पर जा गिरा। मैंने हड़बड़ाकर उसकी तरफ देखा। उसके हाथों में हरकत हुई, एक हाथ से उसने अपना गला पकड़ लिया, दूसरा हाथ छाती से चिपक गया। पलक झपकते ही उसका चेहरा नीला पड़ गया। उसने कुछ कहने की कोशिश की मगर जुबान से एक शब्द भी नहीं निकला। उसकी आंखों की पुतलियां एकदम से स्थिर हो गईं। शरीर आगे को झुकने लगा।
मैं बौखला उठा, एकदम से समझ नहीं पाया कि उसे क्या हो गया था? काॅफी का कप बगल की खाली कुर्सी पर टिकाकर मैंने उसे थामने की कोशिश की तभी वो बड़े ही अस्वाभाविक मुद्रा में फर्श पर जा गिरी। कमर से नीचे का हिस्सा बाईं तरफ को घूमा हुआ था जबकि ऊपरी हिस्सा दाहिनी ओर को, उस पोजिशन में उसका खुला हुआ मुंह छत की ओर था। होंठों के कोरों से झाग निकलने लगा। आंखें खुली मगर पुतलियां एकदम स्थिर पड़ गई थीं। पलक झपकते ही उसका खूबसूरत चेहरा इतना डरावना लगने लगा, कि उधर देखने भर से मैं सिहर उठा था।

Thursday, February 28, 2019

10 june ki raat

थाने के सामने आॅटो से उतरकर वो सीधा डियूटी रूम में पहुंचा। जहां एक हवलदार मेज पर रखे एक खूब बड़े आकार के रोजनामचा रजिस्टर पर झुका हुआ पूरी तन्मयता से कुछ लिखने में व्यस्त था।
आहट पाकर उसने एक बार सिर उठाकर पनौती की ओर देखा, फिर अपने काम में व्यस्त हो गया।
पनौती ज्यों का त्यों बना रहा।
‘‘बैठ जा भई क्यों मेरे सिर पर खड़ा है।‘‘ हवलदार पूर्वतः कलम चलाता हुआ बोला।
‘‘मेरे पास इतना फालतू टाइम नहीं है।‘‘
‘‘तो फिर घर जा यहां क्यों खड़ा है?‘‘
‘‘ठीक है जाता हूं, मगर खबरदार जो दोबारा मुझे किसी लाश की शिनाख्त के लिए यहां आने को कहा।‘‘
कहकर वो वापिस जाने को मुड़ा, हड़बड़ाया सा हवलदार लिखना भूलकर जल्दी से बोला, ‘‘अरे रूक भाई! क्यों मेरा भेजा खराब कर रहा है।‘‘
पनौती फिरकनी की तरह वापिस उसकी दिशा में घूम गया।
‘‘किसका फोन आया था?‘‘ हवलदार ने पूछा।
‘‘मुझे नहीं मालूम! महकमा तुम्हारा है, मालूम करो और फटाफट लाश लेकर आओ ताकि मैं उसे पहचानने से इंकार करके अपने घर की राह लगूं, क्योंकि शादी वाली बात तो अभी बनती दिखाई नहीं दे रही।‘‘
‘‘किसकी शादी, क्या बोल रहा है तू?‘‘
‘‘मेरी शादी भाई!‘‘ - पनौती आह भर कर बोला - ‘‘जब वो पहुंची ही नहीं तो बात आगे कैसे बढ़ेगी? समझ गये?‘‘
‘‘नहीं भाई नहीं समझा।‘‘
‘‘कमाल है, सूरत से तो इतने गावदी नहीं लगते।‘‘
पुलिसिये ने तत्काल खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरा फिर किसी तरह जबरन खुद को जब्त करता हुआ बोला, ‘‘लाश तो मथुरा रोड के पास पड़ी है।‘‘
‘‘कमाल है मुझे तो यूं थाने पहुंचने का हुक्म दनदना दिया जैसे एक मिनट भी लेट हो गया तो लाश उठकर भाग जायेगी!‘‘ - वो तल्ख लहजे में बोला - ‘‘लेकर आओ।‘‘
‘‘लेकर आऊं!‘‘ - हवलदार हड़बड़ा सा गया - ‘‘क्या लेकर आऊं?‘‘
‘‘लाश, और क्या मैं तुम्हें चाय-काॅफी लाने को बोल रहा हूं।‘‘
‘‘लगता है सुनाई नहीं दिया तुझे, जब कि अभी-अभी बताकर हटा हूं कि लाश मथुरा रोड के पास पड़ी है।‘‘
‘‘लेकर आओ!‘‘ पनौती जिद भरे स्वर में बोला।
हवलदार को तब तक यकीन आ गया था कि उसके सामने खड़े शख्स का यकीनन कोई स्क्रू ढीला था। इसलिए उसने खुद को भड़क पड़ने से जबरन रोका और बड़े ही शांत भाव से बोला, ‘‘भाई मेरे लाश तो यहां नहीं लाई जा सकती, उसे तो स्पाॅट से पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया जाएगा, ऐसा ही दस्तूर है। इसलिए पुलिस डिपार्टमेंट पर एहसान कर और घटनास्थल पर जाकर एक बार उसकी सूरत देख ले, फिर भले ही जानबूझकर उसे पहचानने से इंकार कर देना।‘‘
‘‘शर्म तो आई नहीं होगी, गैरकानूनी सलाह देते हुए।‘‘
‘‘गैर कानूनी!‘‘ - हवलदार सकपकाया - ‘‘मैंने कौन सी गैरकानूनी सलाह दी है तुझे?‘‘
‘‘क्यों अभी कहकर नहीं हटे हो कि भले ही मैं जानबूझकर लाश को पहचानने से इंकार कर दूं, ये क्या गैरकानूनी सलाह नहीं है।‘‘
‘‘ठीक है भई तू जीता मैं हारा, अब दफा हो यहां से।‘‘
‘‘ठीक है मुझे वहां पहुंचाने का इंतजाम करो।‘‘
‘‘लगता है तू ऐसे नहीं मानेगा।‘‘ - हवलदार का बचा खुचा धैर्य जवाब दे गया - ‘‘इस बात को भूल गया लगता है कि तूं कहां खड़ा है।‘‘
‘‘अगर ये धमकी है, तो उठकर ट्राई क्यों नहीं कर लेता।‘‘ - पनौती उसी के टोन में बोला - ‘‘तोंद वर्दी से बाहर उछलने को तैयार है तेरी, देखना कुर्सी से उठकर मेरे पास आने में ही तू पसीने से नहा जाएगा।‘‘
हवलदार हकबकाकर उसे देखने लगा। पुलिसवाले का मजाक उड़ाना क्या कोई हंसी मजाक था? तब जाकर पहली बार उसने पनौती के सूट-बूट पर गौर किया।

साला कोई मीडिया वाला तो नहीं है?‘ - उसने मन ही मन सोचा - क्या पता चलता है?‘

Saturday, January 26, 2019

अंतराल
- संतोष पाठक
भूमिका - दीपिका पादुकोण ने शादी कर ली, ये खबर सुनकर बलुआ मोहल्ले में घूम-घूमकर लोगों को बताने लगा कि दीपिका बेवफा है, बलुआ उससे मोहब्बत करता था फिर भी उसने सात फेरे किसी और के साथ ले लिए! ये फिल्मों वाली होती ही ऐसी हैं, कपड़े की तरह अपना प्यार बांटती फिरती हैं।
‘‘नमस्ते।‘‘
प्रोफेसर को वो साढ़े तीन शब्द अपने कानों में मिश्री की तरह घुलते महसूस हुए। उसने नाक पर थोड़ा नीचे ढुलक आए चश्में को ठीक किया और गर्दन उठाकर सामने देखा। एक अल्हड़ युवती, शालीनता की प्रतिमूर्ति बनी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ी थी। उसकी सूरत पर दृष्टि पड़ते ही प्रोफेसर को अपने अंतःकरण में अवर्चनीय किंतु सुखानुभूति से ओत-प्रोत, ना समझ आने वाली सनसनाहट का अनुभव हुआ। वह हकबका कर एकटक युवती को देखने लगा। यूं प्रतीत हो रहा था जैसे कुदरत ने अपनी तमाम सुषमा उसके अद्भुत सौंदर्य को गढ़ने में लगा दी थी। युवती के अप्रतिम सौंदर्य ने कुछ पलों के लिए उसे जड़ कर के रख दिया। दृष्टि अभी तक उसके चेहरे पर जमी हुई थी, जिनकी पकड़ निरंतऱ मजबूत होती जा रही थी।
वक्त जैसे अचानक ही ठहर सा गया था, पलकें थीं कि झपकना भूल गई थीं। प्रोफेसर की यूं फट पड़ने को उतारू आंखें और उनमें अचानक उत्पन्न हुए भाव शोभनीय नहीं थे, इस बात से वह अनभिज्ञ नहीं था, मगर युवती के अकल्पनीय सौंदर्य के चुम्बकीय आकषर्ण से वो खुद को विरक्त नहीं रख पा रहा था। कुछ ही पलों में जैसे उसने एक बहुत लंबी दूरी, जो कल तक असहनीय लग रही थी, तय कर डाली। जीवन के जिस आनंद को वह अब तक भूला बैठा था, सुखानभूति के जिन अद्भुत पलों की उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी, युवती के आगमन ने उसका पल भर में एहसास करा दिया। जिन सपनों को वह देखने से परहेज करता था, उन्हीं को युवती जैसे अपने दामन में समेटे उसके सामने उपस्थित थी। पल भर में वहां अपना साम्राज्य स्थापित कर चुके उसके सौंदर्य जाल में लिपटे प्रोफेसर को उसकी नमस्ते की स्मृति तक नहीं थी।
‘‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं।‘‘
सम्मोहन टूटा, जैसे रति की ओर अनुरागित नेत्रों से देखते कामदेव के सामने साक्षात सरस्वती आ खड़ी हुई हों। तत्काल ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ, प्रोफेसर ने अपने विचलित मन पर मुश्किल से अंकुश लगाया फिर गहरी निगाहों से युवती को यूं देखा जैसे पिछले जन्म की अपनी प्रेयसी को पहचानने का प्रयत्न कर रहा हो। कुछ याद नहीं आया। वह विस्मृत सा एक बार फिर उसे देखने लगा, उसकी आंखों में एक साथ मानो कई प्रश्न आकार लेने लगे थे, मगर वो प्रश्न उनमें नहीं थे, जिसका अनुमान युवती के अपरिपक्व मस्तिष्क को उस वक्त हुआ।
‘‘मैं माधुरी हूं!‘‘ - वह सकुचाई सी बोली - ‘‘दसवीं क्लास में आप मुझे पढ़ाया करते थे। फिर उसी साल आप विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नियुक्त हो गये थे। याद आया आपको?‘‘ युवती ने अपनी जिज्ञासा भरी निगाहें प्रोफेसर के चेहरे पर टिका दीं।
प्रोफेसर ने पलभर में अपने मस्तिष्क को मथ डाला, यूं जब उसके ज्ञानचक्षु खुले, चेतना का संचार हुआ, तो उसे वह लड़की याद आई, मरघिल्ली सी, बात-बात पर आंसू बहाना शुरू कर देने वाली, एक किशोरी जिसका नाम माधुरी था। उन दिनों जिसे हर कोई - स्वयं प्रोफेसर भी - कुपोषण का शिकार समझता था। वह यूं कभी किसी कवि की उपमाओं को साक्षात करती हुई उसके सामने आ खड़ी होगी! प्रोफेसर ने कभी सोचा तक नहीं था।
‘‘माधुरी!‘‘ जैसे उसने स्वंय भाषण किया हो।
‘‘जी हां माधुरी, दसवीं के बाद मैं दिल्ली चली गई थी, अपनी मौसी के यहां, ग्रेज्युएशन तक की शिक्षा मैंने वहीं से ली है। बीच में कई बार वापिस लौटी, कई बार आपसे मिलने की इच्छा मन में बलवती हुई मगर कभी आप उपस्थित नहीं थे तो कभी मेरे पास अवकाश नहीं था। सच कहती हूं, यहां से दिल्ली जाने के बाद मैंने जितना आपका स्मरण किया उतना किसी का नहीं, अपनी सहेलियों का भी नहीं।‘‘
प्रोफेसर के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी, ‘‘अच्छा! स्मरण का कारण कुछ रहा होगा?‘‘
‘‘आप जिस तरह मेरा उत्साह बढ़ाया करते थे, वह विस्मृत नहीं किया जा सकता। विद्यालय में आप मेरे सर्वाधिक प्रिय शिक्षक थे, वर्तमान में भले ही आप मेरे शिक्षक नहीं हैं, मगर आपके प्रति मेरा लगाव ज्यों का त्यों है। मैं आज भी उतना ही, अपितु पहले से ज्यादा आपको पसंद करती हूं।‘‘
माधुरी की बातें प्रोफेसर के अंतर्मन में एक नये आनंद को जन्म दे रही थीं, एक सोता सा फूटा था जिसके बहाव में निरंतर तेजी आती जा रही थी। मुखमंडल पर प्रसन्नता, खिलने को तत्पर कुमुदनी की तरह अपनी छटा बिखेरने लगी थी। वह बहता जा रहा था! आनंद के अचानक फूटे सोते के तेज बहाव में, एक नई ऊर्जा उसे अपने भीतर अनायास ही संचरित होती महसूस होने लगी। वह एक नया पथ था, एक नई - दबी हुई ईच्छा थी, जो सौंदर्य के मुखौटे से पल्लवित होकर उसे अपने भीतर समाहित कर लेने को आतुरता से प्रतीक्षा कर रही थी।
अचानक वह अपनी कुर्सी से उठा, मेज की अर्ध-परिक्रमा करके बाहर निकला, फिर सोफे की तरफ इंगित करता हुआ माधुरी से बोला, ‘‘यहां आराम से बैठ जाओ।‘‘
‘‘पहले आप बैठिए।‘‘
प्रोफेसर ने सहमति में सिर हिलाया और सोफे पर एक किनारे होकर बैठ गया। माधुरी तकरीबन उससे सटकर बैठ गयी। बैठते समय प्रोफेसर को उसके कंधे का हल्का सा स्पर्श मिला तो सहसा उसे अपने शरीर में कंपन सा महसूस होने लगा, सुख की ऐसी अनुभूति हुई जो कदाचित उसने पूर्व में कभी महसूूस नहीं किया होगा।
‘‘मेरा परिचय बहुत हो चुका अब अपने बारे में बताइए, कैसा चल रहा है आप का अध्यापन कार्य।‘‘
‘‘अच्छा चल रहा है, तो अब तुम यहीं रहोगी?‘‘
‘‘जी हां, परिवार पर बोझ जो बन गई हूं, जल्दी से हाथ पीले कर देना चाहते हैं। कल लड़के के परिवार वाले मुझे देखने के लिए आए थे। निगाहों से ऐसे मुझे टटोल रहे थे कि पूछिए मत, मैं एकदम से सिमटकर रह गई। भला ये भी कोई रिवाज हुआ, जैसे बेटे के लिए दूल्हन ना तलाश रहे हों, बाजार से सामान खरीदने निकले हों।‘‘
‘‘हमारा समाज ऐसा ही है, कुछ नहीं हो सकता, सुधार की उम्मीद हम कर सकते हैं माधुरी, मगर बदलाव तो सदियों बाद ही आएगा। तुम्हें वो सब अनोखा इसलिए लगा क्योंकि तुमने जीवन के कई वर्ष मुंबई जैसे बड़े महानगर में व्यतीत किये हैं। यहां तो हर लड़की को जाने कितनी बार ऐसे तौर तरीकों से गुजरकर अपने मांग का सिंदूर मिलता है, तुम्हें भी जल्दी ही इसकी आदत पड़ जाएगी।‘‘
‘‘कह नहीं सकती, लड़के की फोटो दिखाई गई थी मुझे, सूरत से ही गवारों का सरदार प्रतीत होता था। जब पिता जी ने पूछा कि लड़का करता क्या है तो जवाब मिले लड़के को भला कुछ करने की आवश्यकता ही क्या है, बाप दादा की इतनी जमीनें हैं कि बाजार भर जाता है, फिर भी हर साल बहुत कुछ दान कर देना पड़ता है।‘‘
‘‘तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम्हें लड़का पसंद नहीं आया।‘‘
‘‘तनिक भी नहीं, उसकी सूरत देखकर ही मुझे अरूचि हो आई, पिता जी से साफ कह दिया कि मुझे उस लड़के से शादी नहीं करनी। मेरी सारी जिन्दगी इस फैसले पर निर्भर करती है, मैं भला यूं..... अरे कुछ दिखाई तो दे मेरे होने वाले पति में, किसी काबिल तो हो वह! अब आप स्वयं को देखिए, कितना ओज, कितना ठहराव दिखाई देता है आप में, थोड़ा फैशन के साथ रहें तो आज के नौजवान मात खा जाएं। आप बचपन से ही मुझे बहुत अधिक पसंद हैं, मैं अक्सर सोचती थी, अभी भी सोचती हूं कि मेरा पति आपके जैसा हो! - प्रोफेसर विचलित हो उठा, मन में पहले ही स्थान बना चुकीं असामान्य भावनायें एकदम से फन उठाकर खड़ी हो गईं - वह जब बाहर निकले तो लोग उसके सामने नतमस्तक हो जाएं, उसके ज्ञान और व्यक्तित्व के आगे लोग स्वयं को अकिंचन महसूस करें। ताकि मैं गर्व से कह सकूं कि मैं प्रोफेसर नित्यानंद पांडे की पत्नी हूं। सच कहती हूं प्रोफेसर साहब, मैं जब कभी अपने भावी पति का अक्श अपने दिमाग में बनाने की कोशिश करती हूं तो वह आप से मिलता-जुलता ही निकलता है। मन होता है आपसे ही कह दूं कि कोई अपने जैसे व्यक्ति ढूंढ लाइए और अपनी माधुरी का ब्याह उससे करा दीजिए, एहसान होगा मुझपर। कहिए करेंगे ऐसा, बोलिए ना!‘‘
जैसे कोई शिशु मचल उठा हो, उसने प्रोफेसर का हाथ तनिक अपनी ओर खींचा, उस कोशिश में प्रोफेसर थोड़ा उसकी तरफ झुक सा गया, उसकी बांह माधुरी के वक्षस्थल को स्पर्श करने लगी, उस क्षण प्रोफेसर के मन में सैकड़ों ख्याल उभरे जिनसे माधुरी पूरी तरह निर्लिप्त थी। प्रोफेसर ने उसकी तरफ झुक आए अपने शरीर को सीधा करने का प्रयत्न नहीं किया ना ही अपनी बांह को वापिस खींचने की कोशिश की। रति की संलिप्तता नहीं थी परन्तु वह उसकी उपस्थिति और उसके प्रभाव से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया, यथास्थिति बना रहा। माधुरी उससे कुल जहान की बातें करती जा रही थी, मगर उसके शब्द प्रोफेसर के कानों तक नहीं पहुंच रहे थे, उसका सारा ध्यान केंद्रित होकर उस बांह पर चिपका हुआ था जो माधुरी के वक्षस्थल को स्पर्श कर रही थी।
‘‘अब चलती हूं!‘‘ कुछ समय पश्चात वह उठकर खड़ी हो गई, प्रोफेसर उसे दरवाजे तक छोड़ने आया, दरवाजा पार करने से पूर्व वह प्रोफेसर की तरफ घूमी, ‘‘मेरी बात पर विचार कीजिएगा, आप जिसको भी पसंद करेंगे मैं उसे देखे बिना ब्याह रचा लूंगी। इतना विश्वास है मुझे आप पर। बहुत अच्छे इंसान हैं आप!‘‘
उसकी आंखे अचानक ही सजल हो उठीं, बाहर निकलने से पूर्व उसने प्रोफेसर का आलिंगन किया और प्रस्थान कर गयी।
प्रोफेसर चित्रलिखित सा उसे जाता हुआ देखता रहा। उसके मस्तिष्क में माधुरी की कही बातें नगाड़ों सी ध्वनि कर रही थीं। क्या वह इशारा था, यह प्रगट करने का कि माधुरी उसपर मुग्ध हो उठी है। क्या वह ये कहना चाहती थी कि प्रोफेसर को वह अपना जीवनसाथी बनाना चाहती है? प्रश्न अनेक थे, उत्तर भी अनेक हो सकते थे किंतु प्रोफेसर ने उन उत्तरों को तलाशने की कोशिश नहीं की।
शीशे के सामने खड़े होकर अपने बालों में छिटक रही चांदनी का नजारा करने लगा। उसकी उम्र पैंतालिस हो चुकी थी, किंतु कुछ गिने चुने बालों ने ही अपनी रंगत खोई थी। विवाह उसने नहीं किया था, कुछ मिनट पूर्व तक उसके मन में ख्याल तक नहीं आता था वैवाहिक सूत्र में बंधने का, मगर माधुरी का आगमन जैसे ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक गया था, लहरें उठने लगी थीं, जिनपर शीध्र विराम नहीं लगाता तो वह लहरें कालांतर में तूफान का रूख ले सकती थीं। मगर इस समय ज्ञान से उसका रिश्ता टूट चुका था। बुद्धि की देवी कदाचित उसके वाम भाग में जा बैठी थीं। खुद को आईने में निहारता वह निरंतर आत्ममुग्धता का शिकार होता रहा।
तारीख बदलने से पूर्व प्रोफेसर नित्यानंद पांडे की काया परिवर्तित हो चुकी थी। सबसे पहले उस नाई के चेहरे पर आश्चर्य के भाव परिलक्षित हुए जिसे प्रोफेसर ने बालों को रंग करने का आदेश दिया। तत्पश्चात दर्जी की भी आंखें फटी रह गईं, कानों तक पहुंचे शब्दों पर सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ, जब हमेशा कुर्ता पैजामा सिलवाने वाले प्रोफेसर साहब ने उसके सामने पैंट-बुशर्ट का कपड़ा रखकर कहा कि कल तक सिल जाना चाहिए।
दर्जी की दुकान से वापिस लौटने तक प्रोफेसर का पूरा व्यक्तित्व परिवर्तित हो चुका था। गर्दन में अकड़ थी, छाती पांच इंच बाहर निकल आई थी, कदम मजबूती से जमीन पर गड़ते जान पड़ते थे। बीते दो दशक की बात बन चुकी नौजवानी फिर से अंगड़ाई लेने लगी। सबकुछ अचानक ही मनभावन प्रतीत होने लगा मानो ज्येष्ठ मास में बसंत ने दरवाजे पर दस्तक दे दी हो।
अगले दिन फिर माधुरी का आगमन हुआ। वह जींस की काली पैंट और स्लीवलेस टाॅप पहने हुए थे। प्रोफेसर अपनी सुध खोकर उसके सौंदर्यपान में रम सा गया। उस दिन माधुरी को सोफे पर बैठाने के बाद वह अधिकार पूर्ण ढंग से उसकी बगल में बैठ गया। अपने कपड़ों पर उसने कोई इत्र छिड़का हुआ था जिससे कमरे का वातावरण महक रहा था।
‘‘प्रोफेसर साहब!‘‘ - जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई - ‘‘आज आप कुछ बदले बदले से प्रतीत हो रहे हैं।‘‘
‘‘ऐसा नहीं है, तुम बताओ शादी की बात कहां तक पहुंची?‘‘
‘‘कहीं नहीं, मैंने कल कहा तो था आपसे, मैंने पिता जी को इंकार कर दिया था।‘‘
‘‘करना ही चाहिए, ऐसी बातों पर चुप रहना मतलब अपनी जिंदगी को जानबूझकर नर्क की आग में ढकेलने जैसा होता है। तुमने बहुत अच्छा किया, लड़कियों को ऐसे वक्त पर अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन प्रत्यक्ष, बिना सकुचाए करना चाहिए। तभी इस देश की नारी अपना वह सम्मान प्राप्त कर सकेगी, जो उसका हक है। पढ़ने-लिखने का कोई मतलब तो तभी है जब लड़कियों को अपनी आजादी का एहसास हो। वह अपने फैसले खुद कर सकें, ना कि माता-पिता की बताई राह पर नेत्र मूंदे आगे बढ़ जाएं, आखिर स्वयं का विवेक भी तो होना चाहिए। फिर तुम इतनी खूबसूरत हो, पढ़ी-लिखी हो, तुम्हें लड़कों की भला क्या कमी होगी, जो तुम्हारे अभिभावक यूं जल्दी मचा रहे हैं। अभी तुम्हारी अवस्था ही क्या है, मेरे विचार से तुम उन्नीस या बीस वर्ष की होगी।‘‘
‘‘बीस की हूं प्रोफेसर साहब। मगर पिता जी को लगता है उम्र निकली जा रही है। आप ही थोड़ा समझाइए न उन्हें, आपकी बात यहां कोई नहीं टालेगा।‘‘
‘‘मैं समय निकालकर आऊंगा किसी दिन तुम्हारे घर।‘‘
‘‘नहीं अभी चलिए!‘‘ - माधुरी ने प्रोफेसर का हाथ थाम लिया, फिर अधिकार पूर्ण ढंग से खींचती हुई बोली - ‘‘चलकर समझाइए उन्हें, मेरी तो एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे, किंतु आपकी बात को गंभीरता से सुनेंगे, सुनकर उसपर मनन जरूर करेंगे।‘‘
प्रोफेसर ‘बाद में‘ कहता रह गया किंतु माधुरी ने एक नहीं सुनी। प्रोफेसर ने माधुरी के पिता को तरह-तरह के उदाहरण देकर यह समझाने का प्रयत्न किया कि क्यों अभी माधुरी का विवाह आवश्यक नहीं था। उस दिन माधुरी ने अपने घर में प्रोफेसर की खूब खातिर की, माधुरी के अनुरोध पर रात के खाने तक उसे वहीं ठहरना पड़ा था।
अब प्रत्येक दिन माधुरी उसके कालेज से लौटने के बाद उसके घर आ जाती, दोनों के मध्य खूब बातें होतीं, वह माधुरी की बातों को बड़े ही मनोयोग के साथ सुनता, सुनकर उन्हें अपने इच्छानुसार अर्थ देता और पूरी-पूरी रात जागकर उन अर्थों को अपने खुद के बनाये सांचे में नया रूप देकर उन्हें उनकी परिणति तक पहुंचाता।
नींद ना आने की बीमारी उसे पहले से ही थी, अक्सर वो बिस्तर पर जाने से पहले नींद की एक गोली गटक लेता था। मगर अब उसे उन गोलियों की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि वह निद्रा के आगोश में जाना ही नहीं चाहता था। वह जागते हुए स्वप्न देखता, इसलिए सोने पर उन स्वप्नों के टूट जाने के अंदेशे से भयभीत हो उठता था। धीरे-धीरे वह स्वप्न लोक में विचरने का इस तरह अभ्यस्त हो गया कि एक बार भी उसके मन में ये ख्याल नहीं आया कि जिन बातों को लेकर वह एक नई दुनियां का निर्माण करने को तत्पर था, वह बातें मात्र दो पीढ़ियों के अंतराल से उत्पन्न हो रही थीं। उनके कोई मायने नहीं थे, वह सिर्फ उतनी ही थीं जितनी माधुरी के मुख से उसके कानों तक पहुंच रही थीं। उनमें कोई विशेष अर्थ निहित नहीं था। उनका कोई और जवाब संभव नहीं था, जिसे वह रातों को जागकर खोजा करता था।
फिर एक दिन उसने माधुरी का मन टटोलने का निश्चय किया। रविवार होने की वजह से उस दिन माधुरी दोपहर में ही उसके सामने उपस्थित हो गई थी। प्रोफेसर को इस बात का पूरा-पूरा अनुमान था, इसलिए वह सुबह से ही सज-धजकर, नई पैंट-बुशर्ट धारण कर के उसके आगमन का इंतजार कर रहा था।
इधर-उधर की बातें करते हुए चर्चा ज्योंही माधुरी की शादी तक पहुंची, प्रोफेसर ने बात लपक ली, ‘‘तुम बहुत खूबसूरत हो माधुरी और गुणी भी!‘‘ - बहेलिए ने अपना जाल फैलाया - ‘‘मैं तुम्हारी उम्र का होता तो निश्चय ही तुम्हारे पिता के सामने पहुंचकर तुम्हारा हाथ मांग लेता। तुम्हें अपनी जीवन संगिनी बनाकर मैं स्वयं को धन्य महसूस करता।‘‘
‘‘अरे अभी तो आप पूरे जवान हैं प्रोफेसर साहब, मेरी मानिए तो एक बार प्रयत्न कर ही लीजिए, मैं भी इस रोज-रोज की लड़की दिखाने के रस्मो-रिवाज से व्यथित हो चुकी हूं।‘‘ कहकर वह अचानक ही खिलखिला उठी।
प्रोफेसर बड़े ही अनुराग से उसे ताकता रहा, माधुरी की खिलखिलाहट उसके अंतःकरण में स्पंदन पैदा करने लगी। अब इस बात में उसे किंचित मात्र भी संदेह नहीं रह गया कि माधुरी के मन उसकी ब्याहता बनने की चाह है। बस अपनी स्त्रीयोचित संकोच के कारण वह अपने मन के भावों को शाब्दिक रूप नहीं दे पा रही थी।
उस दिन जब माधुरी जाने लगी तो प्रोफेसर ने अपनी बाहें फैला दीं, उसका मन्तव्य समझकर माधुरी उसकी बाहों में समा गई। उसने अपनी बाहों को कसकर प्रोफेसर का आलिंगन किया।
‘‘आप बहुत अच्छे हैं प्रोफेसर साहब, आपसे जब भी मिलती हूं तो मुझे स्वयं के भीतर एक नई प्रकार की ऊर्जा का संचार होता महसूस होता है। वो कुछ ऐसा होता है, जिसे आत्मसात करने के पश्चात मन होता है कि यहीं आपके पास रह जाऊं। सुबह से शाम तक आपसे बातें करती रहूं, आपके ज्ञान के भंडार से कुछ बूंदें चुराती रहूं।‘‘
वह प्रोफेसर से अलग हुई, ‘‘अब चलती हूं, कुछ दिन नहीं आ पाऊंगी, बुआ के यहां जा रही हूं।‘‘
वह हवा के झोंके की तरह कमरे से बाहर निकल गई। प्रोफेसर उसकी आखिरी बात सुनकर सहम सा गया। मन के भीतर कुछ चटकता सा प्रतीत हुआ। वह तो ये भी नहीं पूछ सका कि वापिस कब आओगी।
अगले दिन प्रोफेसर काॅलेज नहीं गया। उसने फोन करके छुट्टी ले ली। उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था। वक्तगुजारी के लिए उसने कई बार कई पुस्तकें उठाईं मगर दो पंक्तियां भी नहीं पढ़ पाता कि माधुरी का चेहरा उसकी आंखों के समक्ष उपस्थित हो जाता और यूं उसका मन पुस्तक से हटकर माधुरी के साथ व्यतीत हुए क्षणों की पुनः कल्पना करने में व्यस्त हो जाता।
तीसरे दिन प्रोफेसर ने धैर्य गवां दिया। सुबह होते ही वह माधुरी के घर पहुंच गया। मालूम हुआ वह सप्ताह भर बाद वापिस लौटेगी। उस बात ने प्रोफेसर पर वज्रपात सा असर किया। पल भर को यूं महसूस हुआ जैसे कोई उसके हृदय को अपनी मुट्ठी में भींच रहा हो। पिछले कुछ दिनों में आनंद की जिस पराकाष्ठा पर वह पहुंच चुका था, माधुरी के वियोग ने उसे पल भर में उससे कई गुणा रसातल में ला पटका था।
वह डगमगाते कदमों से घर पहुंचा। सोफे पर दोनों हाथों से सिर थाम कर बैठ गया।
अचानक माधुरी का स्वर सुनाई दिया, ‘मैं जब भी अपने भावी पति का कोई अक्श बनाती हूं तो वह आपसे मिलता-जुलता ही निकलता है।‘
वह बौखलाया, अनायास ही उसकी निगाह सोफे पर पड़ी जहां माधुरी बैठा करती थी। उस स्थान को वह जाने कब तक अनुरागित नेत्रों से निहारता रहा।
वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? कैसे अपने मन को शांत करे। कहां जाए, किससे मिले जो उसकी अंर्तवेदना को समझ सके, उसे कोई राह दिखा सके। सात दिन! उसे विश्वास हो चला कि सात दिनों तक वह माधुरी को दोबारा देखने के लिए इस संसार में नहीं रह पायेगा।
नख-शिख, प्रेम की चासनी में सराबोर प्रोफेसर अगले ही दिन माधुरी की बुआ के गांव पहुंच गया। उसने कई बार उसके घर के सामने से आना-जाना किया, इस उम्मीद में कि क्या पता उसकी कोई झलक पाने में सफलता मिल जाय। किंतु ऐसा नहीं हुआ, तमाम उद्योग निष्फल रहा। शाम हो आई तो प्रोफेसर वापिस अपने गांव लौट आया।
रात्रि का सफर सबसे मुश्किल साबित हुआ, नींद तो कोसों दूर पहले से ही थी, अब तो उठना-बैठना भी दुस्सह प्रतीत हो रहा था। उसने खुली आंखों से सपना देखना शुरू किया, माधुरी सोलह श्रृंगारों से सुशोभित, दूल्हन के लिबास में उसके सामने सिर झुकाये बैठी थी। उसने आगे बढ़कर उसका घूंघट पलट दिया, फिर उसके नजदीक बैठकर उसके वजूद को उसने अपनी बाहों के घेरे में ले लिया। वक्त का पहिया आगे सरका, तो दो नन्हें-मुन्ने बच्चे घर में किलकारियां मारते दिखाई दिये। दोनों एकदम अपनी मां का प्रतिबिम्ब थे।
उसके देखते ही देखते बच्चे घर से बाहर खेलने चले गये। तब माधुरी उसके नजदीक पहुंची। उसने झुककर उसकी चरणरज ली और अपने मांग में भरती हुई बोली, ‘‘आपने मुझे अपनाकर मुझपर बहुत बड़ा उपकार किया है प्रोफेसर साहब, आपकी भार्या बनकर मैं धन्य हो गई।‘‘
यूं ही अपने मन मुताबिक सपने गढ़ते हुए रात आखों में कट गयी। आखिरी पहर में उसे हल्की सी झपकी आई तो सपने में उसने माधुरी को एक भयंकर चुडै़ल का रूप लेते देखा। जो अपनी बालों से भरी भुजाएं फैलाये उसकी तरफ बढ़ रही थी। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने महसूस किया कि उसका बदन बुरी तरह से तप रहा है।
पांचवे दिन तक उसकी अवस्था ऐसी हो गई कि उसके भीतर बिस्तर से उठ पाने की शक्ति शेष नहीं बची। गांव का डाॅक्टर आकर उसे सुबह शाम दवाईयां दे जाता, मगर मर्ज उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था।
छठें दिन माधुरी लौट आई। प्रोफसर की अवस्था देखकर उसकी आंखें डबडबा गईं। किंतु उसके आगमन का बड़ा ही प्रत्याशित प्रभाव पड़ा। प्रोफेसर के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार हुआ, वह उठकर बैठ गया।
माधुरी ने पानी लाकर उसका मुंह हाथ धुलवाया फिर अपने घर से उसके लिए खाना ले आई, उसने अपने हाथों से प्रोफेसर को जबरदस्ती निवाले खिलाए। उसका प्रेम देखकर प्रोफेसर की आंखे सजल हो उठीं, उसे रोता देखकर माधुरी भी रो पड़ी।
‘‘अपना ख्याल रखा कीजिए प्रोफेसर साहब!‘‘ - माधुरी रोती हुई बोली - ‘‘इस तरह सेहत से दुश्मनी निकालेंगे तो चार दिन भी नहीं जी पायेंगे।‘‘
‘‘तो मत जाया करो मुझे छोड़कर, अब यहीं रह जाओ। भला ऐसा ध्यान मेरा और कौन रख सकता है?‘‘
‘‘आपकी भार्या रखेगी न, मेरी मानिए तो अभी देर नहीं हुई है, विवाह कर लीजिए, आपके लिए तो कन्याओं की लाईन लग जायेगी। मैं खुद ढ़ूढ लाऊंगी आपके लिए आपके योग्य लड़की, आप हामी तो भरिए।‘‘
‘‘और कोई तुम्हारे जैसी नहीं निकली तो?‘‘
‘‘जरूर निकलेगी, इसलिए फौरन इस शुभ कार्य को पूर्ण कर डालिये, या हम दोनों एक ही मंडप में विवाह कर लेंगे, खर्चा भी बच जायेगा।‘‘ - रोते-रोते वह खिलखिला उठी - ‘‘अरे हां मैं आपको बताना भूल गई, मेरा विवाह तय हो गया है। तीन महीने बाद की तारीख निश्चय हुई है। आप कहीं चले मत जाइएगा, क्योंकि सबसे पहले मैं अपने दूल्हे को आपसे ही मिलवाऊंगी। आखिर आप भी तो मेरे पिता की तरह ही हैं, बल्कि मैं तो आपको उनसे भी बढ़कर मानती हूं। देखिएगा मेरा दूल्हा एकदम आप की तरह दिखता है। अच्छा अब चलती हूं आराम कीजिए कल फिर आऊंगी।‘‘
वह उठी और किसी भयंकर तूफान की तरह प्रोफेसर नित्यानंद पांडेय के समूचे वजूद को तहस-नहस कर के दरवाजा खोलकर उसके घर से बाहर निकल गई।
प्रोफेसर आखें फाड़े, बिना सांस लिए उसे जाता देखता रहा, उसके अंतिम शब्द नगाड़े की तरह प्रोफेसर को अपने कानों में बजते प्रतीत हो रहे थे। जाने कितनी देर तक खुले दरवाजे की तरफ मुंह बाये, शून्य में ताकता रहा। यूं महसूस हो रहा था जैसे सोमरस की तरफ बढ़ते उसके हाथों को किसी ने मरोड़कर पीठ के पीछे कर दिया हो।़
आधी रात तक वह विचारों के बवंडर में घिरा किसी बच्चे की तरह आंसू बहाता रहा। फिर बड़े प्रयत्न से अपने स्थान से उठा और दीवार के साथ लगाकर खड़ी की गई आलमारी तक पहुंचा।
‘मुझे मालूम था सभी स्त्रियां ऐसी ही होती हैं, छल-कपट से भरी हुईं, तुम भी तो स्त्री ही थीं, मुझे सोचना चाहिए था, मनन करना चाहिए था। मगर क्या करता तुमने जाल ही इतना सुदृढ़ बुना था, कैसे नहीं फंसता। उफ! क्यों किया तुमने ऐसा, क्यों मेरे मन की बंजर भूमि में बसंत राग गाया, क्यों मरूस्थल में सरिता का बोध कराया! क्यों किया तुमने ऐसा छल मेरे साथ...... मगर करती क्यों नहीं, आखिर स्त्री जो ठहरीं, ऊपर से आधुनिक नारी, तुम लोगों को तो ये सब दिल्लगी लगता होगा। मानस में ठीक ही लिखा है, ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना .......‘
जाने क्या-क्या आत्म भाषण करते हुए उसने आलमारी में रखी नींद की गोलियों की शीशी बाहर निकालकर अपनी हथेली पर पलट लिया, फिर सारी गोलियां एक साथ मंुह में रखकर बिना पानी के निगल गया।
समाप्त




Sunday, August 12, 2018

कत्ल की पहेली
शहर के मशहूर बिजनेसमैन साहिल भगत पर इल्जाम था कि उसने अपनी बेवफा बीवी को मौत के घाट उतार दिया था। कत्ल के बाद पुलिस ने उसे मौकायेवरदात से रंगे हाथों गिरफ्तार किया था। सारे सबूत सारे गवाह उसके खिलाफ थे। कहीं से उसके बच पाने की कोई उम्मीद नहीं थी। पहेली सुलझने की बजाय निरंतर उलझती ही जा रही थी। रंगे हाथों कातिल को गिरफ्तार कर चुकने के बावजूद पुलिस उसे जेल भेजने में कामयाब नहीं हो पाई। कातिल इतना शातिर था कि कत्ल के बाद शक की सूई जबरन किसी और की तरफ मोड़ देता था। वो खेल रहा था, कभी पुलिस के साथ तो कभी विक्रांत गोखले के साथ। उसने कई मासूम लोगों के लिए दुश्वारियां खड़ी कीं, कईयों को उसकी वजह से पुलिस की शख्त पूछताछ का शिकार होना पड़ा। जल्दी ही ये बात सामने आ गई कि वो कोई वन मैन शो नहीं था। कातिल भले ही कोई एक जना था, मगर उसके पीछे कई मास्टरमाईंड काम कर रहे थे, जो योजनायें बनाते थे, कातिल के लिए कत्ल का वक्त और सहूलियत के साथ-साथ उसके बचाव के लिए भूमिका तैयार करते थे। उनके पास टैक्नोलाॅजी थी, हैकर था और हत्यारा था। सबकी सम्मलित टीम गुनाह को अंजाम देती थी। सब के सब सात पर्दों के पीछे छिपे हुए थे, कत्ल के बाद जंजीर की सबसे कमजोर कड़ी को तोड़ दिया गया था, लिहाजा पुलिस और गुनहगारों के बीच का फासला निरंतर बढ़ता ही जा रहा था।

Tuesday, July 10, 2018

                                                              चंगेज खान की मुहब्बत

उस रात बड़ी अजीब बात हुई।
रात के 12 बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था। अपनी मेज पर मैं कहानी लिखने के लिए झुका ही था कि एक लंबे-चैड़े आदमी ने कमरे में प्रवेश किया। उसने बड़े ही अजीबो-गरीब किस्म के लबादेनुमा कपड़े पहन रखे थे। वह खरामा-खरामा चलता हुआ मेरी किताबों की अलमारी के पास बिछे सोफे पर जाकर बैठ गया और बड़ी ही बेतकल्लुफी के साथ बोला, ‘‘हैरान मत हो बरखुरदार, मैं चंगेज खान हूं। मंगोलों का सरदार चंगेज खान।’’
मैं उसे देखकर मुस्कुराया, ‘‘जरूर होंगे, मगर मेरे आका, आप अचानक कैसे तशरीफ ले आए? वह भी मुझ जैसे गरीब के गरीब-खाने पर। आपकी तलवार कहां है? फौज-फर्राटा-घोड़े वगैरह भी कहीं नजर नहीं आ रहे? क्या आप 800 साल से कब्र में लेटे-लेटे बोर हो गए थे?’’
‘‘नहीं।’’ उसने अपनी ठोढ़ी पर पूंछ जैसी लटकती अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर कर आंखें मिचमिचा कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पास एक खास मकसद से आया हूं। मुझे पता चला है कि तुमने अभी-अभी एक ‘स्टोरी’ छपवाई है, जिसमें तुमने बड़ी ही बेतकल्लुफी और गैर जिम्मेदाराना तरीके से यह लिख दिया हे कि बामियान में जो मूर्तियां तोड़ी गईं, वह बिल्कुल ‘चंगेजी हरकत’ थी?’’
मैंने सकपका कर कहा, ‘‘माई-बाप! कहानियां लिखना मेरा पेशा है। रोजी-रोटी है। अगर उस लफ्ज से आपको तकलीफ पहुंची हो, तो मुझे माफ कर दें।’’
‘‘हूं।’’ चंगेज खान ने अपनी आंखें, जो उसके भारी भरकम, मगर चीमड़ चेहरे पर नन्ही-नन्ही इलायचियों सरीखी लग रही थीं, मेरे चेहरे पर गड़ाकर मुझे घूरकर हुंकार भरी। फिर बोला, ‘‘नहीं, मुझे उस लफ्ज पर उज्र नहीं। उज्र (आपत्ति) तो इस बात पर है कि दुनिया में जहां भी कहीं आफत, मुसीबत, बर्बादी या तहलका होता है, तुम जैसे लोग उसमें मेरा नाम डाल देते हो। यह अब मेरे लिए नाकाबिले बर्दाश्त होता जा रहा है। मैं चाहता हूं कि तुम मेरी कहानी लिखो।’’
‘‘माई बाप।’’ मैंने थोड़ा संजीदा होकर कहा, ‘‘बेशक कहानियां लिखना मेरा पेशा है। मगर कहानियां तो उनकी लिखी जाती हैं, जिनकी जिन्दगी में थोड़ा-बहुत प्यार-मुहब्बत हो। इश्क वगैरह का किस्सा हो। आपकी लाइफ में तो सिवाय कहर और कयामत के कुछ नहीं है। मैं लिख भी दूं, तो उसे छापेगा कौन? और अगर आपकी दहशत से वह छप भी जाए, तो उसे पढ़ेंगे कौन?’’
‘‘खामोश।’’ अचानक चंगेज गरज उठा। 800 साल बाद भी चंगेज की बूढ़ी आवाज में बादलों जैसी गर्जन थी। उसने दांत किट-किट कर कहा, ‘‘हमारी कहानी लिखी भी जाएगी और पढ़ी भी जाएगी। आखिर यह क्या बकवास है कि दुनिया में जब भी जुल्म और सितम की चर्चा होती है, लोग उसमें मेरा जिक्र कर देते हैं। मैं कहता हूं कि 800 साल में यह दुनिया बिल्कुल नहीं बदली। बल्कि जो कुछ मैंने किया, आज की यह दुनिया उससे भी ज्यादा जुल्मो-सितम करती है।
मैं सिर झुकाए चुपचाप उसकी बात सुन रहा था। मेरी खामोशी से चंगेज थोड़ा नरम हुआ। बोला, ‘‘मैंने जो कुछ किया, पिछले 800 साल से कब्र में पड़े-पड़े मैं उसका प्रायश्चित कर रहा हूं। मगर इस धरती पर 800 साल में क्या नहीं हुआ?
‘‘ 2-2 विश्वयुद्ध, आणविक हथियार, रासायनिक हथियार, ये हिटलर, ये मुसोलिनी, ये स्टालिन, ये ओ डायर!’’
‘‘जो हुक्म!’’ मैंने कहा, ‘‘आप कहानी सुनाएं। मैं उसे टेप कर लेता हूं। बाद में इसे सिलसिलेवार लिख दूंगा।’’
‘‘ठीक है।’’ चंगेज ने कहा, ‘‘सुनो मेरी कहानी और दुनिया को बताओ कि चंगेज सिर्फ वहशी दर्रिदा ही नहीं, एक हंसान भी था और आज दुनिया में हजारों ऐसे इंसान हैं, जिनके भीतर दरिन्दे बसे हुए हैं।’’
‘‘जी।’’ मैंने कहा, और टेपरिकार्डर का बटन दबा दिया।
25 वर्षीय चंगेज खान ने जिस वक्त अपनी प्रेयसी और पत्नी बोर्ताई के तंबू में लगा ऊंट के चमड़े का परदा हटाया, वह बिल्कुल अकेला था। उसकी दाहिनी भुजा की अंगुलियों में फंसी तलवार से खून की बंूदें अभी तक टपक रही थी। जैसे ही बोर्ताई से चंगेज की नजरें मिलीं, उसके सारे जिस्म में वैसी ही सिहरन दौड़ गई, जैसी सिहरन बोर्ताई से पहली मुलाकात के वक्त उसके जिस्म में दौड़ी थी।
बोर्ताई तब भी वैसी थी, जैसी 4 साल पहले थी। वही रेगिस्तानी धूप में तपा चेहरा! छोटी-छोटी चमकदार आंखें! कसकर बांधा गया जूड़ा और पेड़ों की ऊन से बना लंबा-चैड़ा लबादा! गले और हाथों में पहले ढेर सारे चांदी के आभूषणों से फिसलती हुई चंगेज की आंखें बोर्ताई के नाक में पहने उस ‘नकबेसर’ पर जाकर अटक गईं, जो सोने का बना हुआ था और बोर्ताई के जिस्म का एक मात्र सोने का आभूषण था! नकबेसर हमेशा की तरह उसकी नाक के दोनों नथूनों के बीच की उपास्थि में फंसा हुआ था और उसके होंठों को ढंकता हुआ उसकी खूबसूरत ठोढ़ी तक लटक रहा था।
यूं तो सभी मंगोल स्त्रियां इस आभूषण को पहनती थीं, खुद चंगेज की मां ओएबून भी इसे पहनती थी। मगर इस आभूषण को पहनने का जो रहस्य उसे बोर्ताई ने बताया था, वह बड़ा ही अनूठा था। वह कहती थी, ‘‘यह नकबेसर होंठों का पहरेदार है। ताकि बगैर मर्जी के कोई होंठ न चूम सके।’’ फिर वह बड़ी अदा से, अपनी पतली-पतली अंगुलियों से पकड़कर, उस नकबेसर को उलटकर अपने होंठ उसकी तरफ बढ़ा देती जिसे चंगेज प्यार से चूम लेता, वह उससे अलग हो जाती और नकबेसर फिर से उसके होंठों पर ‘बैरियर’ की तरह लटकने लगता।
चंगेज रोमांचित हो उठा। उसने मुस्कुराकर बोर्ताई की ओर देखा। उसने गला खंखार कर जोर से कहा, ‘‘बोर्ताई! मैंने दुश्मनों को खत्म कर दिया है! मैं तुम्हें लेने आया हूं।’’ उसने बाएं हाथ से बोर्ताई को इशारा भी किया कि वह उसके करीब आए। लेकिन बोर्ताई उसकी ओर खामोशी से देखती रही।
चंगेज से रहा नहीं गया। वह धीरे-धीरे उसके करीब जा पहुंचा। उसने बोर्ताई की ओर मुस्कुराकर उसकी आंखों में झांका। वहां सुनापन था। चंगेज ने तलवार एक ओर फेंक दी। उसने जैसे ही बोर्ताई के नकबेसर को हाथ लगाया, उसकी आंखों से आंसुओं का दरिया बह चला। बोर्ताई ने दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा लिया और सुबकने लगी।
तभी तंबू में और लोगों के आने की पदचाप सुनाई पड़ी।
‘‘तेंमुची!’’ यह चंगेज के पिता समान तुगरिल चाचा की आवाज थी, ‘‘दुल्हन को बताओ कि उंगीरा कबीले के उन सभी दुश्मनों को खत्म कर दिया गया है, जो येसूगाई के बेटे की दुल्हन को छीनकर यहां ले आए थे।’’
‘‘हां भाभी!’’ यह चंगेज खान यानी कि तेंमुची के बाल सखा जमूखा की आवाज थी, ‘‘आप बेखौफ हमारे साथ चलें। हमने आपकी राह के सबसे बड़े कांटे सिल्चर को भी मौत दे दी है।’’
सिल्चर का नाम सुनते ही बोर्ताई का सुबकना रुदन में बदल गया। वह विलाप करने लगी। कुछ भी सही, सिल्चर उसका पति था। उसके बेटे जूजी का पिता। उसने रूंधे हुए कंठ से कहा, ‘‘यह आपने क्या किया चाचा जान! मेरे बेटे के बाप को कत्ल कर दिया।’’
‘‘हां दुल्हन!’’ तुगरिल बोला, ‘‘हमारे दादा कबीले का यही उसूल है। जूजी अब तुम्हारा बेटा नहीं, उंगीरा कबीले का बेटा है। हमने अपने कबीले के उसूल के मुताबिक सिल्चर का कत्ल किया है और अब जूजी को भी कत्ल कर दिया जाएगा।’’ बोर्ताई ने तेंमुची की ओर आंसू भरी निगाहों से देखा। तेंमुची के सारे शरीर में रोमांच दौड़ गया। उसे पता नहीं था कि इन चार वर्षों में बोर्ताई एक बच्चे की मां भी बन चुकी है। एक ऐसे बच्चे की, जिसका पिता कोई और है। तेेंमुची ने सिर झुका लिया। बोला, ‘‘चाचा, मुझे थोड़ा सोचने दो। क्या जूजी को भी बेटे की तरह कबूल करना गलत है। अगर मुझे पता होता कि बोर्ताई सिल्चर के बेटे की मां बन चुकी है, तो शायद मैं इस कबीले पर हमला न करता। क्या सिर्फ बोर्ताई को ही अपने उलूस (कबीले) तक ले जाना गलत न होगा। आखिर जूजी को भी कबूल करना चाहिए।’’
तेंमुची के बाल सखा जमूखा को क्रोध आ गया। खून से सराबोर अपनी तलवार को ऊंचा उठाकर उसने कहा, ‘‘यह क्या कह रहे हो तेंमुची! दादा कबीले की आन और शान के खिलाफ बोले जा रहे हो तुम। कबीले का उसूल है कि औरत को हासिल करने के लिए उसके खाबिंद का कत्ल किया जाता है। तुम्हारे अब्बा हुजूर येसूगाई ने गलती की थी, मकीत कबीले के येके चिरादू को छोड़कर। मगर शुक्र है आसमान में बैठे ईलतेंगीरी का, जो उसने येके चिरादू को दोबारा दादा कबीले के लोगों की आंखों के सामने फटकने न दिया। जूजी हमारे दुश्मन का खून है। क्या तुम नहीं जानते कि बच्चे को कबूल करने के लिए ‘कुरिल्तई’ को बुलाना पडे़गा।’’
‘‘मैं येके चिरादू की बात नहीं कर रहा हूं।’’ सहसा तेंमुची की आंखों में खून उतर आया, ‘‘मुझे पता है कि उस नामुराद इंसान का मेरे बाप ने सात पहाड़ियों तक पीछा किया था। मगर मेरी मां ने भी किसी मकीत के बच्चे को जन्म नहीं दिया था। अगर हमने सिल्चर का कत्ल किया है, तो वह कबीले के उसूल के मुताबिक जायज है। क्योंकि सिल्चर बोर्ताई का खाबिन्द था। यह इसलिए भी जायज है, क्योंकि बोर्ताई से पहले हमारी शादी हुई थी। सिल्चर ने भी उसूलन हमें कत्ल करना चाहा था, जो उससे मुनासिब न हुआ। मगर सवाल जूजी का है। उस मासूम का क्या गुनाह है? फिर हमारे कबीले का उसूल भी है कि औरत के नाबालिग बच्चे को बेटे की तरह कबूल करना चाहिए। बेशक कुरिल्तई को बुलाना पडे़।’’
तंबू में धीरे-धीरे दादा कबीले के लोगों का हुजूम बढ़ने लगा। सबके हाथों में नंगी तलवारें थीं, जो खून से रंगी हुई थीं। लगता था जैसे उंगीरा कबीले के इस पूरे गांव को ही कत्ल कर दिया गया हो।
‘‘ठीक है, इसका फैसला कल के ‘कुरिल्तई’ (मंगोलों की पंचायत) में कर लिया जाएगा। इसी वक्त बोर्ताई को हमारे साथ हमारे उलूस (कबीले) तक चलना होगा, अपने बच्चे को छोड़कर।’’ चाचा तुगरिल ने व्यवस्था दे दी।
‘‘रहम चाचा, रहम।’’ सहसा बोर्ताई बिलख कर बोली, ‘‘आसमान में बैठे ईलेतेंगीरी के नाम पर मुझ पर तथा मेरे बेटे पर रहम करें। बेशक मैं उलूस में जाने को तैयार हूं, मगर अपने बेटे के साथ। जूजी अभी मासूम है। दो बरस का मासूम बगैर मां के कैसे रहेगा चाचा?’’ बोर्ताई सहसा अपनी जगह से चलकर चाचा तुगरिल के पास आ गई और उसने तुगरिल के पांवों के पास घुटनों के बल बैठकर अपने लबादे की झोली पसार दी।
तुगरिल का दिल पसीज गया। उसने दो पल सोचा। क्रमशः बोर्ताई और तेंमुची की आंखों में देखा। अपने पीछे खड़े दादा कबीले के लोगों पर गहरी निगाह डाली। फिर दाहिनी भुजा में पकड़ी तलवार उठाकर उसने व्यवस्था दी, ‘‘आसमान में बैठे ईलतेंगीरी के नाम पर एक दिन के लिए बोर्ताई के बेटे को जिन्दगी दी जाती है। कल के कुरिल्तई में जूजी की किस्मत का फैसला हो जाएगा। तब तक जूजी को अपनी मां के साथ रहने की इजाजत दी जाती है। लेकिन बोर्ताई को इसी वक्त दादा उलूस में चलना होगा।’’
बोर्ताई की आंखों से खुशी के आंसू बरस पडे़। ‘‘आमीन।’’ पीछे खड़े दादा कबीले के लोगों ने तलवारें लहराकर नारा लगाया और फिर सभी वापिस दादा कबीले की ओर चल पड़े। इस भीड़ में उंगीला कबीले के वे सभी बच्चे और औरतें थीं, जिनके पति और दूसरे परिवारीजन कत्ल कर दिए गए थे। गांव में आग लगा दी गई थी। उनके झोंपड़े गिरा दिए गए थे। ऊंटो के चमड़े से बने तंबू लूट लिए गए थे। घोड़े, भेड़-बकरियों को खोल लिया गया था। गांव का पूरा माल-असबाब लूट लिया गया था।
जिस समय चंगेज खान की बोर्ताई से शादी हुई थी, उसकी उम्र 9 साल थी और बोर्ताई की 6 साल। चंगेज का नाम उस वक्त तेंमुची था और उसकी पहचान सिर्फ यह थी कि वह दादा कबीले के शासक येसूगाई बहादुर का बेटा था।
येसूगाई बहादुर के बाप का नाम बरतन बहादुर था। बरतन बहादुर के पिता कुबर्लीखान दादा कबीले के शासक थे। यह कबीला आज के तुर्किस्तान और चीन के बीच फैले जेक्सार्टीज नदी के पूर्व से उत्तर तक के विशाल क्षेत्र में था। यह पूरा इलाका शुरू से ही पथरीली पहाड़ियों और पथरीले पर्वतों का विस्तार है। इसी क्षेत्र में गोबी का विशाल मरुस्थल है, जहां चंगेज खान के पूर्वज रहते थे। मंगोलों के ये कबीले दर्जनों ‘उलूसों’ अर्थात् जातीय कबीलों में विभक्त थे।
800 वर्ष पहले इनकी मुख्य जीविका मवेशी पालन, घोड़ों की नस्ल सुधारना और शिकार करना था। ये लोग खेती करना नहीं जानते थे। प्रायः ये लोग पशुओं की खालों से बने तंबुओं में रहते थे। ये तंबू गोल आकर के होते थे और इनमें ऊपर की ओर एक बड़ा-सा छेद होता था, जिसमें से धुआं निकालने का रास्ता था। ये लोग भेड़ की ऊन तथा चमड़े से बने कपड़े पहनते थे और निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक भ्रमण करते रहते थे। एक ‘उलूस’ दूसरे ‘उलूस’ पर हमला करके पशु, मांस, शिकार तथा स्त्रियां छीन लेता था। भूख लगने पर, कई बार अन्य कोई साधन न होने पर ये अपने पशु की किसी एक ऐसी नाड़ी को काटकर वहां मंुह लगाकर खून पी लेते थे, जिसे बाद में जोड़ दिया जाता था।
निरंतर भ्रमणशील रहने तथा धूप, गर्मी में भटकते रहने के कारण इनके चेहरे चीमड़ (झुर्रियों भरे) रहते थे और स्नान न करने के कारण ये निरंतर अपनी त्वचा को खुजलाते रहते थे। विवाह के संबंध में इनकी मान्यता थी कि जब तक कोई अपना निजी ‘तबू’ न जुटा ले, उसे विवाह नहीं करना चाहिए। विवाह में ‘बहुविवाह’ मान्य था और एक पुरुष कई-कई विवाह कर सकता था। अनेक पत्नियां एक साथ रहती थीं।
किसी की पत्नी पसंद आने पर उसके पति की हत्या किए बिना उसे अपने साथ नहीं रखा जा सकता था। अस्थाई रूप से बसे गांव को ‘उर्त’ कहा जाता था और आपसी मसलेे ‘कुरिल्तई’ अर्थात् पंचायती फैसलों से निबटाए जाते थे। ‘कुरिल्तई’ को बाद में ‘मंगोल राजकुमारों की सभा’ के रूप में भी जाना गया।
मंगोल कबीलों का धार्मिक विश्वास किसी एक ‘ईश्वर’ की सत्ता में था, जिसे वह ‘ईलतेंगीरी’ कहते थे। लेकिन धर्म का कोई कर्मकांड नहीं था। उनके पास न कोई मूर्ति थी, न धार्मिक ग्रंथ। न देवालय, न पुरोहित। उनके पास कोई पौराणिक कथा नहीं थी। लिपी का ज्ञान न होने के कारण वे पढ़े-लिखे भी न थे। उनमें सामूहिक रूप से प्रार्थना करने, ईश्वर आराधना करने, भोजन करने, यहां तक कि नृत्य और गायन करने की भी संस्कृति न थी। उनकी सारी नैतिकता के नियम ‘कुरिल्तई’ द्वारा तय होते थे, जो समय≤ पर बदलते रहते थे। भेड़ की हड्डियों को जलते हुए अंगारों पर रखकर, उसमें बने निशानों को देखकर कबीले का सरदार कहीं चलने या रुकने का ‘मुहूर्त’ निकालता था।
भोजन में वे सभी प्रकार के पशु मांस, जिनमें गिलहरियां, नेवले, जंगली चूहे, सांप तक शामिल होते थे, खाते थे। अन्य खाद्य पदार्थों में पेड़ों की जड़, पत्ते, फल, छाल आदि रहते थे। मंगोल स्त्रियां इन्हें बड़े चाव से एकत्र करती थीं और मांस को भून कर खाने की प्रथा थी। मंगोल स्त्रियों का मुख्य कार्य शिकार को भूनना, फलों, जड़ों, पत्तियों को एकत्र करना, पशु का दूध दुहना, तंबुओं को गाड़ना तथा समेटना तथा प्रजनन करना था। हर तंबू में आग को निरंतर जलाए रखा जाता था, जिसे तंबू उखाड़ने के बाद एक मशाल के तौर पर साथ ले जाया जाता था।
साधारण मंगोल पुरुष एवं स्त्रियां इस प्रकार के अपर्याप्त भोजन एवं अनियमित दिनचर्या के कारण प्रायः बेडौल रहते थे। इनकी पतली बांहें, पतले पेट और कमजोर तथा चीमड़ शरीर रहते थे।
इसके बावजूद मंगोल ‘आदिम’ समाज के प्राणी न थे। उनमें जबरदस्त सैन्यकला थी। वे घुड़सवारी, तीर, तलवार, भाले चलाने में दक्ष थे। भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी सहने की उनमें अद्वितीय क्षमता थी। वे पांवों के निशान देखकर शत्रुओं का पीछा करते थे। आकाश के नक्षत्रों को देखकर दिशा का ज्ञान कर लेते थे।
दु्रतगति से पीछा करने और घात लगाकर आक्रमण करने में उनका सानी नहीं था। साधारण सी हैसियत के बावजूद वे इतने साहसी थे कि दीवारों से घिरे किलों, नगरों को उन्होंने ध्वस्त किया। अपने शत्रुओं से ही उन्होंने पत्थर के गोले फेंकने वाली तोपों को लूटा और फिर उन्हीं से उन पर आक्रमण किया।
मंगोलों का चूंकि अपना कोई निजी ‘धर्म’ या धार्मिक संगठन, पुरोहित या देवालय नहीं था, इसलिए वे तत्कालीन सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु थे और यह उम्मीद करते थे कि अन्य पुरोहित उनकी ‘विजय’ के लिए प्रार्थना करेंगे।
वे अन्तर्जातीय विवाह में विश्वास रखते थे। अपनी पुत्रियों को भी दूसरों को देने में उन्हें कोई ‘गुरेज’ न था।
चंगेज खान का वंश स्वयं को ‘दादा’ कबीला कहता था। जो उनके विश्वास के मुताबिक स्वर्ग में पैदा हुए ‘सलेटी भेड़िया और सफेद हिरणी’ के संयोग से पैदा ह ुए। ये पूर्वज बुर्खान पर्वत की तराई में बस गए थे। इन्हीं में से ‘बातची खां’ उनका आदि पूर्वज था, जिसकी ग्यारहवीं संतान हुआ दुआन मिगनि नाम का व्यक्ति था। मिगनि की पत्नी का नाम ‘एलन गोआ’ था, जिसके 2 पुत्र थे। मिगनी की मृत्यु के बाद उसके 3 पुत्र और हुए। दोनों वैध पुत्रों ने जब अपनी मां पर एक नौकर के साथ व्यभिचार का आरोप लगाया, तो एलन गोआ ने कहा, ‘‘तुम्हें यह मालूम नहीं है, क्योंकि प्रत्येक रात को सुनहरे रंग का एक इंसान मेरे तंबू की चमकती हुई खिड़की से आकर मेरे वक्षस्थल के संपर्क में आता था। मेरे वक्षस्थल में उसका सारा प्रकाश समा जाता था। वास्तव में मेरे तीनों पुत्र स्वर्ग के पुत्र है।’’
इसी एलन गोआ के पुत्रों में से ही चंगेज खान का प्रपितामह कुबलई खाकान था जो समस्त दादा जाति का प्रथम शासक था। कुबलई का उत्तराधिकारी ‘अन्हबई’ एक युद्ध में तातारियों के हाथों बंदी बनाकर ‘किन’ नामक सम्राट को सौंप दिया गया। ‘अन्हबई’ खाकान के 7 पुत्रों में से न था। ‘अन्हबई’ ने तातारियों से 13 बार युद्ध किया। इन्हीं युद्धों के दौरान चंगेज खान का जन्म हुआ। कहते हैं, जब चंगेज का जन्म हुआ था, वह अपने हाथों में रक्त का एक लोथड़ा पकड़े हुए था। उसके पिता येगुसाई बहादुर ने एक बंदी तातार के नाम पर चंगेज का नाम, बचपन में तेंमुची रखा था।
तेंमुची का पिता येसूगाई बहादुर, कुबलई खाकान के द्वितीय पुत्र बरतन बहादुर का पुत्र था। उसने अपने 2 भाइयों की सहायता से एक मकीत जाति के ‘येकेचिरादु’ नामक व्यक्ति की पत्नी ‘ओएलून’ का अपहरण करके विवाह कर लिया। येगूसाई ‘येके चिरादू’ की हत्या नहीं कर सका। वह भाग गया था। ओएलून के 4 पुत्र हुए-तेंमुची, खसर, खाचिऊन और तेमूलून। येगूसाई ने एक और विवाह किया था, जिससे उसें 2 पुत्र बेक्तोर और बेल्गूताई हुए। जब तंेमुची 9 वर्ष का हुआ, तो येसूगाई ने उंगीरा नामक कबीले के ‘दाई सेचेन’ नामक व्यक्ति की पुत्री ‘बोर्ताई’ से उसकी सगाई कर दी। तेंमुची को उसके भावी ससुर के घर छोड़कर जब येसूगाई वापिस आ रहा था, तो तातारियों ने येसूगाई को भोजन में विष दे दिया और वह मर गया।
चमड़े के तंबुओ से वहां जैसे पूरा नगर ही बसा हुआ था। गोलाकार तंबुओं, जिनके ऊपर एक बड़ा-सा छेद था, की संख्या हजारों में थी। एक तरफ भारी संख्या में घोड़े, भेड़, बकरियां और ऊंट बंधे हुए थे। उनके पास ही हजारों की संख्या में गाड़ियां खड़ी थीं। गाड़ियों में भारी मात्रा में पशुओं का चारा, ऊन तथा शिकार करने के सामान-औजार भरे हुए थे।
इन्हीं गोलाकार तंबुओं के बीचों बीच चमड़े का एक विशाल फर्श बिछाया गया था। यह ‘कुरिल्तई’ का दृश्य था। फर्श पर सैकड़ों की संख्या में मंगोल सरदार बैठे हुए थे, जिनके सिर मुंड़े हुए थे और जो ऊन के लबादे पहने हुए थे। सैकड़ों की संख्या में मंगोल चारों तरफ खड़े भी हुए थे। एक तरफ उनकी स्त्रियां अपने-अपने बच्चों को गोद में लिए खड़ी थीं। एक तरफ तेंमुची की मां अपनी बेटी तेमूलून के साथ स्त्रियों की भीड़ में खामोश खड़ी थी।
शाम के समय 60 वर्षीय तुगरिल जिसे ‘दादा’ कबीले के सभी लोग ‘तुगरिल चाचा’ कहते थे, उठ खड़ा हुआ। उसके आदेश से एक युवा मंगोल गड़रिए ने मिट्टी के एक बर्तन में दहकते हुए कोयले लाकर बीचोंबीच रख दिए। थोड़ी देर बाद वही गड़रिया भेड़ के कंधे की 3-4 हड्डियां वहां लेकर आया, जिसे तुगरिल ने हाथ में लेकर आकाश की ओर देखा और कुछ मंत्र बुदबुदाए। इसके बाद उसने ‘ईलतेंगीरी’ का नाम लेकर वह हड्डियां उन दहकते कोयलों के ऊपर रख दीं।
दहकते कोयलों पर हड्डियां ‘चट-चट’ की आवाज के साथ जलने लगीं। तुगरिल अपनी ठोढ़ी पर उगी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए उन्हें चटकते देखता रहा। मंगोल भीड़ शांत भाव से यह दृश्य देख रही थी। थोड़ी देर में ही, जब हड्डियां जलकर कोयला बन गईं, तो तुगरिल घुटनों के बल झुककर उन पर बने निशान देखने लगा। काफी देर तक उन निशानों का अध्ययन करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ। भीड़ की ओर मुखातिब होकर उसने कहा, ‘‘तेंमुची वल्द येसूगाई वल्द बरतन बहादुर ‘ईलतेंगीरी’ के इस पवित्र स्थान पर हाजिर हो।’’
फर्श पर बैठा तेंमुची उठकर खड़ा हो गया और धीरे-धीरे चलकर तुगरिल की बगल में जाकर खड़ा हो गया।
तुगरिल ने दोनों हाथ आकाश में उठाकर फिर कुछ मंत्र बुदबुदाए। फिर हुक्म दिया, ‘‘ईल-तेंगीरी के हुक्म से मैं हुक्म देता हूं कि उंगीरा कबीले के दाई सेचेन की दुख्तर और भकीत कबीले के सिल्चर की बेवा बोर्ताई इस पाक ‘कुरिल्तई’ में हाजिर हो।’’
भीड़ की निगाहें बोर्ताई की ओर घूम गईं। बोर्ताई, जो मंगोल कबीले की स्त्रियों के बीच ऊन का मोटा झबला लपेटे, अपनी गोद में बच्चे को लिए खड़ी थी, सिर झुकाए धीरे-धीरे चलती हुई वहां आई और तुगरिल के दाहिनी और थोड़ा हटकर सिर झुकाकर खड़ी हो गई। उसकी गोद में अभी भी बच्चा था, जो भीड़ को देखकर रो रहा था। बच्चे के रोने की आवाज उस भारी भीड़ के सन्नाटे में साफ सुनाई दे रही थी।
थोड़ी देर की खामोशी के बाद तुगरिल ने कहना शुरू किया, ‘ईलतेंगीरी के हुक्म से और ‘दादा’ उलूस के कायदों के मुताबिक कल दादा उलूस के बहादुर जवानों ने भकीतों के खिलाफ कूच किया। इस कूच में 20000 किरातों और दादा कबीले के बहादूरों ने हिस्सा लिया। इस पाक युद्ध में भकीतों के 300 गुनहगारों को कत्ल की सजा दी गई और उनके कब्जे से दादा उलूस की इज्जत ‘बोर्ताई’ को बाइज्जत वापिस लाया गया।’’
तुगरिल सांस लेने के लिए थोड़ी देर रूका। उसने शांत खड़े और बैठे मंगोलों पर एक निगाह डाली और फिर कहना शुरू किया, ‘‘दादा उलूस के बहादुर नौजवान तेंमुची, हमारे बचपन के दोस्त और दादा कबीले के पहले सम्राट कुबलई खाकान के वंशज येसूगाई बहादुर के बेटे हैं। येसूगाई ने आज से 16 साल पहले उंगीरा कबीले के दाई सेंचेन नामक व्यक्ति की बेटी बोर्ताई से अपने बेटे तेंमुची की शादी की थी। चूंकि येसूगाई ने भकीत कबीले की ओएलून से शादी की थी और उसके खाबिंद को जिंदा छोड़ दिया था, इसलिए भकीत इस बात से नाराज थे कि दादा कबीले के लोग भकीत कबीले के सगोत्री उंगीरा कबीले की किसी बेटी से रिश्ता करें। इसलिए उन्होंने तातारियों से कहकर पहले ही येसूगाई को खाने में जहर देकर मरवा डाला।’’
‘‘मगर येसूगाई ने ओएलून से शादी के वक्त यह क्यों नहीं देखा कि उसका खाबिंद येकेचिरादू जिन्दा है। कबीले के कानून के मुताबिक येसूगाई को या तो येकेचिरादू की मौत का इंतजार करना चाहिए था, या उसे कत्ल करना चाहिए था।’’ अचानक दादा कबीले में से ही एक बुजुर्ग मंगोल उठकर खड़ा हो गया। उसकी जोरदार तर्कपुर्ण बात सुनकर पहले से ही सन्नाटे में डूबी सभा में सन्नाटा और गहरा हो गया।
‘‘मेरे बुजुर्ग दोस्त ने बजा फरमाया।’’ तुगरिल ने उस बुजुर्ग की बात का इस्तकबाल करते हुए कहना शुरू किया, ‘‘यह सच है कि दादा उलूस के कानून के मुताबिक येसूगाई को येकेचिरादू की मौत से पहले ओएलून से शादी नहीं करनी चाहिए थी। मगर येसूगाई का दोस्त होने के नाते, मैं इस बात की गवाही देता हूं और तस्दीक करता हूं कि येसूगाई ने येकेचिरादू का सात पहाड़ियों तक पीछा किया था। मैं उसके साथ खुद था। मगर येकेचिरादू भाग गया। ऐसी हालत में ओएलून से येसूगाई की शादी जायज थी। खुद ओएलून ने इस शादी को कबूल किया था।’’
भीड़ की निगाहें ओएलून की ओर घूमीं। ओएलून ने सिर झुकाकर अपनी मौन स्वीकृति दी और वह अपनी बेटी तेमूलून के सिर पर हाथ फेरने लगी।
तुगरिल ने अपनी बात जारी रखते हुए कहना शुरू किया, ‘‘लेकिन इस पुरानी रंजिश की बिना पर भकीतों ने एक और कबीले ‘ताईचू’ की मदद से येसूगाई की औलादों को बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। येसूगाई की मौत के बाद ओएलून ने जड़ें खोदकर, पत्ते खाकर और खुद शिकार करके अपने 4 बेटों को पाला। मगर भकीत तेंमुची को मारने की फिराक में लगे रहे। भकीतों के डर से तेंमुची महीनों जंगल में रहा और इधर-उधर छिपता रहा। आखिरकार जब उसने अपना खुद का तंबू बना लिया और नौ घोड़े इकट्ठे कर लिए तो उसने बोर्ताई से शादी की। फिर भकीतों को क्या हक था कि वे उसके घर पर हमला करें। उसके तंबू में आग लगा दें। उसके घोड़ों, भेड़ों और ऊंटों को छीन लें और उसकी बीवी बोर्ताई को छीनकर उसकी शादी भकीत कबीले के एक दूसरे इंसान सिल्चर से कर दें?’’
सभा में बैठे सभी मंगोलों में जोश आ गया। वे चिल्लाने लगे, ‘‘सभी भकीतों को इसकी सजा मिलनी चाहिए। उनका कत्ल-ए-आम होना चाहिए।’’
‘बेशक।’’ तुगरिल ने मुट्ठियां भींच लीं, मगर फिर आकाश की ओर हाथ उठाकर उसने कुछ मंत्र बुदबुदाए और फिर खामोशी से कहना शुरू किया, ‘‘मगर ईलतेंगीरी ने मुझे हुक्म दिया कि इसमें सभी भकीतों को सजा नहीं देनी चाहिए। सजा सिर्फ गुनहगारों को मिलनी चाहिए। इसलिए मैंने और मेरे भाई जमूखा ने, जो खुशकिस्मती से तेंमुची का दोस्त है और उसे प्यार से ‘अंदास’ (सगा भाई) कहता है, ने आप लोगों की मदद से, भकीतों के खिलाफ कूच किया और बोर्ताई को उनके कब्जे से आजाद किया। ‘ईलतेंगीरी’ के हुक्म से और दादा कबीले के उसूलों के तहत बोर्ताई से दूसरी शादी करने वाले सिल्चर को कत्ल करके सजा दी गई। खिलाफत करने वाले 300 भकीतों को भी कत्ल करके सजा दी गई।’’
भीड़ में सन्नाटा अभी तक छाया हुआ था। ‘‘लेकिन अब मसला दूसरा है।’’ तुगरिल सहसा रूका, उसने खामोशी से निकट सिर झुकाए खड़ी बोर्ताई पर एक गंभीर निगाह डालकर कहना शुरू किया, ‘‘अब मसला यह है कि बोर्ताई की गोद में भकीत सिल्चर का दो साल का बच्चा है। इस बच्चे का क्या किया जाना चाहिए?’’
वही बुजुर्ग फिर से खड़ा हो गया। बोला, ‘‘बेशक, पहले इसी कबीले का उसूल था कि दुश्मन के बच्चे को भी कत्ल कर देना चाहिए। मगर हमारे ही खाकान ने इस कबीले में यह हिदायत रखी थी कि छोटे बच्चे का कोई कसूर नहीं होता। उस बच्चे को तेंमुची ही अपने बड़े बेटे की तरह पालने का वायदा इस ‘कुरिल्तई’ में करे। उसे अपना हक दने का भी वायदा करे।’’
बुजुर्ग इतना कहकर बैठ गया। कुरिल्तई में बैठे मंगोलों की निगाहें वापिस तेंमुची की ओर उठ गईं। तेंमुची के होंठ भिंचे हुए थे। क्रोध की चिंगारियां निकल रही थीं। उसने अपनी दाहिनी हथेली को मुट्ठी बनाकर बायीं हथेली पर मारा। फिर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘इतनी बड़ी ‘कुरिल्तई’ में इतनी बड़ी बेइज्जती मैंने कभी नहीं सही। आखिर मैं इस बोझ को अपने सीने में रखकर कब तक जीऊंगा कि मैं जिसे अपना ‘बेटा’ कह रहा हूं, वह मेरा नहीं, मेरे दुश्मन का बेटा है?’’
अब तक खामोश खड़ी बोर्ताई ने चैंककर तेंमुची की तरफ देखा। उसकी सूनी आंखों से सहसा आंसुओं का दरिया फूट चला। वह फिर से सुबकने लगी।
‘‘मगर’’, तेंमुची कह रहा था, ‘‘इस पूरे ‘करिल्तई’ में, आप सब लोगों की मौजूदगी में, मैं ‘ईलतंेगीरी’ की ओर दोनों हाथ उठाकर आपसे वायदा करता हूं कि मैं बोर्ताई को बेहद प्यार करता हूं। बोर्ताई सिर्फ मेरा प्यार ही नहीं, दादा उलूस की, मेरे खानदान की इज्जत भी है। मैं यह भी वायदा करता हूं कि उसके बेटे जूजी को, मैं अपने सबसे बड़े बेटे की तरह पालूंगा। उसे बड़े बेटे की इज्जत और हक दूंगा।’’
इतना कहकर तेंमुची का गला भर्रा गया। इससे ज्यादा वह बोल नहीं सका और वहां से एक तरफ धीरे-धीरे चला गया। भीड़ अवाक् होकर उसे जाता देखती रही।
‘बोर्ताई!’’ तुगरिल ने भावुक स्वर में कहा, ‘‘बोर्ताई, क्या तुम्हें भी अपने हक में कुछ कहना है? अगर तुम चाहो तो अपने बेटे को उसके बाप के रिश्तेदारों को दे सकती हो। यह ‘कुरिल्तई’ वादा करता है कि अगर तुम चाहो तो तुम्हारे बेटे को भकीतों के पास वापिस पहुंचा दिया जाएगा।’’
‘‘बोर्ताई ने आंसुओं से भीगा अपना चेहरा ऊपर उठाया। गोद में खामोश बैठे अपने अबोध शिशु को उसने चूमा, फिर उसे ‘कुरिल्तई’ के बीच में बिछे चमड़े के फर्श पर लिटा दिया। बच्चा मां की गोद छिनते ही रोने लगा। उसका रूदन पूरे ‘कुरिल्तई’ में एक हाहाकार की तरह गूंज रहा था। बच्चे के रोने की परवाह न करते हुए बोर्ताई ने अपना दुपट्टा अपने सिर पर रखा। ‘कुरिल्तई’ को दोनों हाथ जमीन से लगाकर प्रणाम किया। फिर आकाश की ओर मुंह करके दोनों हाथ उठाकर उसने कहा, ‘‘मैं बेबस बोर्ताई ‘ईलतेंगीरी’ की खिदमत में इस कुरिल्ताई के जरिए अपनी अर्ज रखना चाहती हूं कि वह मुझे मेरा कसूर बताएं कि आखिर मेरे बेटे को मुझसे जुदा क्यों किया जा रहा है?’’
कुरिल्तई में सन्नाटा छा गया। लोग अवाक् होकर देखते रह गए। बोर्ताई भीड़ में होकर जाने कहां जा रही थी।
मैं खामोश और रोमांचित होकर चंगेज खान के मुंह से उसकी कहानी सून रहा था। मैं हत्प्रभ था। मैंने अब तक सिर्फ यही सुना और पढ़ा था कि चंगेज खान जैसा दुर्दान्त और क्रूर व्यक्ति आज तक पैदा नहीं हुआ। इतिहास उसे आज तक का सबसे बड़ा ‘संहारक’ बताता आया है। चंगेज के जिम्मे अब तक  40 लाख के आसपास लोगों के कत्ल किए जाने का आरोप है।
जब मुझे मालूम पड़ा कि बोर्ताई अपने बेटे जूजी को भरे ‘कुरिल्तई’ में एकाएक छोड़कर न जाने कहां चली गई है, तो मेरे हृदय में हाहाकार मच गया था। चंगेज खान खामोशी से अपनी कहानी मुझे सुनाए जा रहा था। मेरे लिए यह किसी सदमे से कम न था। मैं नहीं समझ पाया कि अचानक ऐसा कैसे और क्यों हुआ? मैं तो भरी सभा में उसके बेटे को अपनाने, उसे सबसे बड़ा ‘बेटा’ मानने और वैसी ही इज्जत बख्शने का वायदा करके आया था। फिर वह अचानक चली क्यों गई? और फिर अपने बेटे को छोड़ क्यों गई?
मैं उस समय अपने तंबू में बैठा आंसू बहा रहा था, जब जमूखा मेरे पास यह खबर लेकर आया कि बोर्ताई जूजी को ‘कुरिल्तई’ में छोड़कर चली गई। जमूखा मेरे चाचा तुगरिल का भाई था। तुगरिल भी मेरा खास सगा ‘चाचा’ न था। मेरे पिता येसूगाई पर जब मेरे चाचा गोरखान ने हमला किया था तो तुगरिल ने मेरे पिता की मदद की थी। तभी से मैं तुगरिल को अपने पिता तुल्य ही मानता था। जमूखा बचपन में मेरे साथ खेला था, इसलिए वह मेरा दोस्त था और मैं उसे अंदास (सगा भाई) कहता था।
‘‘वह कहां गई होगी?’’ मैंने जमूखा से पूछा, तो जमूखा ने कहा, ‘‘कह नहीं सकता। शायद वह वापिस भकीतों के पास चली गई हो। मगर जिस तरह वह अकेली चल दी है, उससे मुझे शक होता है कि कहीं यह कोई चाल न हो।’’
जमूखा की बात सही भी हो सकती थी। ‘कुरिल्तई’ खत्म हो चुका था। तुगरिल ने ही जमूखा को मेरे पास भेजा था कि मैं जाकर किसी तरह बोर्ताई का पता लगाऊं, क्योंकि तुगरिल ने शुरू में यही समझा था कि बोर्ताई अपने दुख की वजह से औरतों वाले किसी तंबू में अपने बच्चे को छोड़कर चली गई होगी।
‘‘जूजी कहां है?’’ मैंने दोबारा जमूखा से पूछा, तो जमूखा ने धीरे से कहा, ‘‘उसे चाची ओएलून ने अपने पास रख लिया है। लेकिन वह लगातार रोए जा रहा है।’’
मैंने ज्यादा सोच विचार करना उचित नहीं समझा। मैं तंबू से बाहर आया। जमूखा मेरे साथ था। मैंने एक घोड़े को खोला और उस पर चढ़कर चल पड़ा। चलते-चलते मैंने जमूखा से कहा, ‘‘तुम जाकर अपनी चाची ओएलून से कहो कि वह बच्चे को संभाले। मैं बोर्ताई को लेकर अभी आता हूं।’’
मैं जंगल में दौड़ पड़ा। मेरा घोड़ा जिस ‘काले जंगल’ की तरफ भाग रहा था, वह हमारे ही सगोत्री किरातों का इलाका था। पास के ही जंगलों में ताईचू रहते थे, जिनसे हमारी दुश्मनी थी। मुझे रास्ते में सिर्फ एक व्यक्ति मिला था, जिसने बोर्ताई को काले जंगल की ओर आंसू बहाते हुए जाते देखा था। मेरे लिए यह बड़े ताज्जुब की बात थी कि जिस बोर्ताई को हासिल करने के लिए मेरे कबीले के लोगों ने 300 भकीतों का कत्ल किया था, उसे यूं इस तरह रोते-बिलखते जाने दिया गया।
अभी मैंने आधा मुकाम भी पार न किया था कि मैंने एक छाया को तेजी से ओनान नदी की ओर जाते देखा। वह छाया बोर्ताई की ही थी। मैंने घोड़े को तेजी से ऐड़ लगाई। घोड़ा सरपट भाग चला। मैं रूंआसा हो उठा। यह वही नदी थी, जहां मैं एक बार भकीतों के भय से छिपकर सिर्फ सांस लेने की एक बांस की नलकी के सहारे सुबह से शाम तक पड़ा रहा था। भकीतों ने तब यही समझा था कि मैं ओनान में डूब कर मर गया था और वे चले गए थे। और आज इसी नदी में बोर्ताई अपनी जान देने जा रही थी।
मगर मैं ठीक समय पर पहुंच गया। मैंने उसके ठीक सामने अपना घोड़ा अड़ा दिया। बोर्ताई का चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। उसकी नाक में पड़ा नकबेसर उसके फड़फड़ाते होंठों पर झूल रहा था। उसने डबडबाई आंखों से मेरी तरफ देखा, फिर बोली, ‘‘मुझे मौत को गले लगाने दो खाकान! औरत की जिन्दगी में यही लिखा रहता है कि वह या तो अपने महबूब के बच्चे की मां बने, या फिर अपनी जान दे दे।’’
‘‘बेवकूफ औरत!’’ मैंने उसे समझाने की गरज से कहा, ‘‘जिस जूजी की वजह से तुम मरना चाहती हो, उसे तुम किसके सहारे छोड़ कर जा रही हो? जुजी को उसका बाप तो नहीं मिला। मां का हक भी तुमने छीन लिया। अगर उसे मारना ही था, तो उस वक्त उसे मारने से क्यों रोका, जब तुगरिक के साथ गए लोग उसे कत्ल कर देना चाहते थे?’’
मैं घोड़े से उतर आया। बोर्ताई की आंखों में आंसू थे या नहीं, यह मैं देख नहीं सका, क्योंकि सूरज बस छिपना ही चाहता था। मगर उसकी सिसकारियों से मैंने यह अंदाजा जरूर लगाया कि वह रो रही थी। मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि आखिर मुझसे गलती कहां हुई? और बोर्ताई इस तरह जूजी को बेसहारा छोड़कर मरना क्यों चाहती थी?
‘‘आओ लौट चलो।’’ मैंने बोर्ताई का मुलायम हाथ पकड़ा, ‘‘मैंने कुरिल्तई में हजारों लोगों के सामने वायदा किया है कि मैं जूजी को अपने बड़े बेटे का हक और इज्जत दूंगा। उस दिन तुम्हारे घर भी यही बात कही थी। और आज यहां, सूरज की तरफ हाथ उठाकर ‘ईलतेंगीरी’ की गवाही में तुम्हें यही वादा देता हूं।’’
बोर्ताई की सिसकियां और तेज हो गईं।
मैंने खामोशी से उसका आंसुओं भरा चेहरा ऊपर उठाया। उसकी आंखें गीली थीं। होंठों पर झूलता नकबेसर भी आंसुओं की बूंदों से भीगा हुआ था। मैंने उसके नकबेसर को अपनी अंगुलियों से उलटकर उसके गालों पर पलट दिया। बोर्ताई ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। सूरज की बहुत क्षीण, मद्धिम रोशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। मैंने हौले से कहा, ‘‘बोर्ताई, आखिर तुम मरना क्यों चाहती हो?’’
‘‘तेंमुची!’’ बरसों बाद पहली बार बोर्ताई ने अपनी जुबान से मेरा नाम लिया। भर्राए गले से बोली, ‘‘मेरे खाकान, तुम नहीं जानते कि औरत का दर्द क्या होता है? तुमसे मेरी शादी हुई, तो भकीत कबीलों के लोगों ने मुझे तुम्हारे साथ नहीं रहने दिया। जबकि मैं बचपन से ही तुमसे मुहब्बत करती थी। भकीतों ने जबरदस्ती मुझे तुमसे छीन लिया और सिल्चर से मेरी शादी कर दी। मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मैं इस वाकये के बाद कितना छटपटाई। मगर मैंने इसे ‘ईलतेंगीरी’ का हुक्म समझकर बर्दाश्त किया। तुम्हें भुलाने की बहुत कोशिश की, मगर भुला न सकी। मेरी जिन्दगी खत्म हो गई थी। मगर सिल्चर ने मुझे एक मासूम बच्चे जूजी की मां बना दिया। मेरी बेबसी की कोई इन्तहा नहीं थी। उस मासूम के जरिये मैंने जीने का बहाना ढूंढा। मैंने किसी तरह खुद को इसके लिए तैयार ही किया था कि यह हादसा हुआ। तुम दोबारा से मेरी जिन्दगी में आ गए। आए भी तो इतने बड़े खून खराबे के बाद। मेरे बेटे के बाप की जिन्दगी छीनने के बाद। खाकान! जरा ठंडे दिल से सोचो, मेरी जैसी औरत इस हालत में यकायक तुम्हें कैसे अपनाती? मगर मैंने बर्दाश्त किया। एक बार फिर से इन हालातो को ‘ईलतेंगीरी’ की मरजी माना। मगर ये ‘कुरिल्तई’, सारी दुनिया के बीच अपनी इज्जत और मुहब्बत का तमाशा, यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होता खाकान! बर्दाश्त नहीं होता!’’ इतना कहते-कहते बोर्ताई भरभरा कर रो पड़ी और रोते-रोते मेरी बांहों में ही झूल गई।
मैं तड़प कर रह गया। मैंने बेहोश बोर्ताई को होश में लाने की कोशिश करते हुए जल्दी से कहा, ‘‘होश में आओ बोर्ताई! होश में आओ। बताओ, मैं तुम्हारे लिए और क्या कर सकता हूं?’’
‘‘तुम चाहो, तो भी कुछ नहीं कर सकते खाकान!’’ बोर्ताई उसी तरह मंद स्वर में कहती जा रही थी, ‘‘कल मुझे तुमसे भकीतों ने छीना। आज तुम मुझे भकीतों से छीन लाए। कल फिर भकीत मुझे तुमसे छीनेंगे। यह सिलसिला चलता रहेगा। मैं छिनती रहूंगी। जूजी जैसे बच्चे इसी तरह मिट्टी के ढेर में दम तोड़ते रहेंगे। इससे तो बेहतर है, मैं ही जान दे दूं, ताकि कल कोई दूसरा जूजी पैदा न हो।’’
इतना कहकर बोर्ताई ने आंखें बंद कर लीं। उसकी गर्दन एक ओर मेरी बांहों में लुढ़क गई।
इसके बाद तेंमुची उर्फ चंगेज खान ने वही किया, जो वह कर सकता था। सिर्फ वही! तेंमुची यानी चंगेज खान।
सन् 1220!
यद्यपि समरकंद निकट था, किन्तु चंगेज ने पहले जनकि और नूर के मार्ग से बुखारा के विरूद्ध कूच करने का निर्णय लिया। वह एक लम्बा, तगड़ा, स्वस्थ तथा सुडौल शरीर वाला व्यक्ति था। उसकी आंखें बिल्लियों जैसी थीं और उसकी छितरी दाढ़ी के बाल जल्दी ही सफेद हो गए थे। ऊंट के चमड़े की बनी जैकेट वह हमेशा पहनता था और एक बड़ी तलवार हर वक्त उसके हाथ में रहती थी। बुखारा नगर कोक खान नामक मंगोल के अधीन था। यह व्यक्ति चंगेज खां के पास से भाग आया था और उसने सुल्तान के यहां शरण ले ली थी। कोक चंगेज की बेरहम मानसिकता से वाकिफ था। अतः उसने युद्ध करने का ही संकल्प किया, क्योंकि बगैर युद्ध के भी चंगेज उसे जीवित नहीं छोड़ने वाला था। लेकिन नागरिकों ने चंगेज के पास अपना एक धार्मिक व्यक्ति संदेश लेकर भेजा कि वह नगर में प्रवेश करे।
चंगेज जामा मस्जिद के मंच पर प्रकट हुआ। उसने खुलेआम मांग की, ‘‘मैं ईश्वर का दंड हूं। यदि तुमने भयंकर पाप न किए होते, तो ईश्वर ने मेरे समान दंड तुम्हारे विरूद्ध न भेजा होता। इस भूमि के ऊपर तुम्हारे पास जो संपत्ति है, उसे बताने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भूमि के नीचे है, वह मुझे बता दो। तुम्हारा यह मुल्क निहायत बेहूदा है। प्रदेश में रातिब (चारा) तक नहीं है। हमारे घोड़ों के पेट भरने का इंतजाम करो।’’
जिस समय चंगेज खान यह कह रहा था, उस समय तक बुखारा के बड़े-बड़े नेता मंगोलों के घोड़ों की देखभाल कर रहे थे। वे संदूकें, जिनमें कुरान रखी जाया करती थीं, घोड़ों को चारा खिलाने की नांद बनाने के लिए एकत्र कर ली गई थीं। चंगेज खान ने बुखारा के 280 धनी व्यक्तियों को अपने शिविर में बुलाकर बंधवा दिया और प्रत्येक पर एक-एक मंगोल सैनिक की ड्यूटी लगा दी कि वह प्रत्येक से जितना संभव हो सके, धन वसूल करें।
किन्तु समस्या फिर भी बनी ही रही। नगर की रक्षक सेना कोक खां अपने प्राणों की आहूति देेने को कटिबद्ध थे। वे दिन-रात मंगोल सेेनाओं का सामना कर रहे थे। उन दिनों बुखारा में जामा मस्जिद और राज महल के सिवाय सभी नागरिकों के मकान लकड़ी के बने हुए थे। ईंट-पत्थरों से मकान बनाना हर किसी के बूते न था। जब चंगेज ने सुना कि कोक खां बाज नहीं आ रहा है, तो उसने नगर के मकानों को जला डालने का हुक्म दे दिया।
सारा नगर आग की लपटों से घिर कर भस्मसात् हो गया। अंत में नगर पर पूर्ण अधिकार कर लिया गया और कोक के सारे सैनिकों को मार डाला गया। गिरफ्तार किए गए युवाओं में, जो भी बालक कोड़े के दस्तों की ऊंचाई से लंबा था, मार डाला गया। तीस हजार शवों की गणना की गई। सैकड़ों बच्चों तथा स्त्रियों को दास बना लिया गया। बाकी, बुखारा के समस्त नागरिकों को मुसल्ला नामक मैदान में गणना के लिए लाया गया। युवक तथा अधेड़ आयु के लोग, जो अगले कूच, जो समरकंद की ओर था, जो सैनिक सेवा के लायक थे, चुन लिए गये। चंगेज जब वहां से चला, तो बुखारा, जो कभी एक जीता-जागता नगर था, एक धुआं देता कब्रिस्तान बन चुका था।
चंगेज ने बुखारा के बाद समरकंद का दुर्भाग्य निश्चित किया। सुल्तान ने समरकंद की हिफाजत के लिए 60000 तुर्क तथा 50000 ताजिक सैनिक नियुक्त किए थे। मगर चंगेज ने नगर को घेरने के 2 दिनों तक कोई युद्ध नहीं किया। तीसरे-चैथे दिन कुछ झड़पें हुईं। पांचवें दिन नगरवासियों ने अपना काजी और शेख-उल-इस्लाम आत्मसमर्पण के लिए भेजा। लेकिन चंगेज ‘देरी’ की वजह से नाराज था। नगर की दीवारें गिरा दी गईं और दूसरे दिन, दूसरी नमाज के वक्त तक उसने पूरे नगर पर कब्जा कर लिया। सुल्तान के 20 वरिष्ठ मंत्रियों सहित 300 सैनिकों का कत्ल कर डाला गया। 1221 की बसंत ऋतु चंगेज ने ऐसे ही गुजारी और फिर वह नकशब के हरे-भरे मैदान में चला आया।
सन् 1221!
चंगेज ने अपने सबसे छोटे पुत्र तुलुई को सदा अपने साथ रखा था। तुलुई अपना जीवन एक अभिशप्त शराबी की तरह बिताता था, लेकिन जब चंगेज ने उसे खुरासान पर हमले के लिए भेजा, तो उसने साबित कर दिया कि वह वाकई चंगेज का बेटा है। खुरासान में ऐसे लोगों की संख्या लाखों में थी, जो आत्मसमर्पण करना चाहते थे। काफी लोग भागकर मर्व नामक घाटी में भी चले गए थे। इन भागने वालों में 70000 तुर्क थे। तुलुई ने अपने पिता का अनुसरण करते हुए सभी तुर्कों की हत्या करवा दी। मर्व की घाटी में छिपे सभी निवासी स्त्रियों, पुरुषों को गणना के लिए नगर के बाहर एक मैदान में 4 दिनों तक भूखा-प्यासा रखकर उनकी गणना करने के बाद ‘कत्ल-ए-आम’ का हुक्म दे दिया गया।
प्रत्येक मंगोल सैनिक को इस आदेश का पालन लाजमी था। अतः प्रत्येक मंगोल सैनिक ने तीन सौ से चार सौ व्यक्तियों की हत्या की। सैयद नसीब ईजुद्दीन नामक एक व्यक्ति इस नरसंहार से किसी तरह भाग निकला था। उसने बाद में शवों की गणना की। फरवरी, 1221 में 13 दिनों में वह सिर्फ 13 लाख शवों की ही गणना कर पाया था। मर्व की घाटी उपजाऊ है, इसलिए यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है।
खुरासान का विनाश, जिसे मंगोल साहित्य में  ‘महान् विजय’ कहा जाता है, के बाद नैशापुर नामक एक अन्य नगर के विनाश का निश्चय किया गया। बहाना ढूंढना कठिन नहीं था। जिस समय तुलुई ने मर्व पर आक्रमण किया था, उसी समय चंगेज का एक दामाद, जिसका नाम तोगाचार कुर्गेन था, अपने 10000 सैनिकों के साथ नैशापुर में आया था। उसे अचानक एक वाण लगा और वह मारा गया। तुलुई का बहनोई और चंगेज का दामाद मारा जाए और नगर का सर्वनाश न हो? तोगाचार की सेना तुलुई के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी। दुर्भाग्य तो तय हो गया था, केवल उसके विनाश के ‘प्रकार’ के निर्णय की प्रतीक्षा थी।
सब्जवार, जिसे बैहाक भी कहते हैं, पर तीन दिन के भीषण युद्ध के बाद, विजय प्राप्त कर ली गई। स्पष्ट कत्ले आम का आदेश दिया गया और 70000 लाशें गिनी गईं। तोगाचार सेना तुलुई के आने में बेकरार थी। इसी बेकरारी में उसने नुकान तथा कार नामक 2 नगर ध्वस्त कर डाले। 7 अप्रैल, 1221 को तुलुई नैशापुर पहुंच गया। उसने नैशापुर के सुल्तान के आत्मसमर्पण का प्रस्ताव निर्ममता से ठुकरा दिया। बुध से शनि यानी महज 4 दिनों में पूरा नगर मंगोलों ने लाशों से पाट दिया।
खूंखार चंगेज की बेटी हृदयहीन तुलुई की बहन और रक्त पिपासु तोगाचार की पत्नी तामुची ने नगर में प्रवेश किया, जहां उसके पति का वध किया गया था। नगर में चारों और जले हुए मकानों का धुंआ और लाशें थीं। तोगाचार की पत्नी के लिए बदला लेने को वहां कुछ न था। शेष नागरिकों का भी वध कर दिया गया। यहां तक कि कुत्तों और बिल्लियों को भी मार डाला गया।
नैशापुर में जीवित बचे कुल 40 कारीगरों को तुर्किस्तान ले जाया गया। सात दिन और सात रात नहर के जरिए नगर में पानी बहाया गया, ताकि वहां जौ बोया जा सके। शवों की 12 दिनों तक गणना में बच्चों तथा स्त्रियों को छोड़कर 10 लाख चालीस हजार शव वहां पाए गए। यहां पर कुछ रेत के टीले अब भी नजर आते हैं। कहा जाता है, उन्हें शवों के ढेर की वजह से वैसा बनाना पड़ा, वरना वहां ‘खेती’ नहीं हो पाती।
भेड़ों की जली हुई हड्डियों के कोयले से बने चिन्हों के आधार पर चंगेज अपने कूच का निर्णय किया करता था। इन्हीं चिन्हों ने चंगेज को भारत वर्ष होकर चीन जाने का मुहूर्त नहीं निकलने दिया। वरना उसके हाथों भारत के उत्तरी प्रांतों पंजाब तथा सिंध का तो विनाश निश्चिय था। तब भी नहीं जब जलालुद्दीन ख्वारज्म शाह ने अपना राज्य 1222 के आसपास अपने बेटे सुल्तान जलालुद्दीन मंगबरनी को सौंपा था। जलालुद्दीन ने बामियान में मंगोलों को पराजित किया था। बाद में जब चंगेज ने स्वयं कूच का ऐलान किया, तो जलालुद्दीन ने युद्ध लड़ते हुए अपना घोड़ा, मंगोलों से घिर जाने के बाद सिंध नदी में डाल दिया, ताकि भारत में शरण ले सके।
शाही छत्र अपने हाथों में लिए-लिए ही मंगबरनी ने सिंध नदी पार की। किनारे पहुंचकर उसने अपना छत्र जमीन पर गाड़ा और अकेला ही छांव में बैठा। दूसरी पार खड़े चंगेज ने यह दृश्य देखकर अपने सैनिकों से उस पर बाण नहीं चलाने का आदेश दिया और खुश होकर कहा था, ‘‘किसी भी पिता का पुत्र ऐसा ही तेजस्वी होना चाहिए।’’ बाद में मंगबरनी कुछ कुर्द लोगों द्वारा मार डाला गया था, लेकिन चंगेज ने इसके बाद भी सिंध नदी कभी पार नहीं की। यद्यपि चंगेज ने लाहौर को लूटा।
इसी समय चंगेज को बामियान के युद्ध में अपने बेटे चुगताई के बेटे के मारे जाने का समाचार मिला था। चंगेज ने प्रतिकार में अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे शीघ्रातिशीघ्र उस दुर्ग पर विजय प्राप्त कर लें और किसी भी प्राणी को, यहां तक कि कुत्ते और बिल्लियों को भी न छोड़ें। उसकी आज्ञा का पालन हुआ। गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़ डाले गए। बच्चों के सिर काट डाले गए। परकोटे, राज प्रासाद तथा सरकारी-गैर सरकारी भवन मिट्टी में मिला दिए गए।
जब चंगेज को खबर मिली कि उसके प्रदेश के शासक वंश किन का रवैया फिर से शत्रुतापूर्ण हो गया है, तो उसने अपने देश की यात्रा शुरू की। पहली बार लौटते समय समरकंद के दुर्ग में उसने दो मुस्लिम विद्वानों से वार्तालाप किया और इस्लाम धर्म में अल्लाह पर विश्वास और ‘हज’ के अलावा उसके चारांे अन्य कर्म-कांडों में अपनी सहमति दी। उसने  इमामों और काजियों पर लगे ‘कर’ हटा दिए।
चंगेज खान 1224 में स्वदेश पहुंचा। अपने अंतिम वर्ष उसने तंगूत में बिताए। तंगूत विजय से पूर्व ही रमजान, 624 हिजरी यानी अगस्त, 1227 में वह मर गया। मंगोलों की युगीन परंपरानुसार उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
चंगेज की समाधि के लिए भूमि या भवन के नीचे एक विशेष कोठरी जिसे ‘सुफ्फा’ कहा जाता है, बनाई गई। वहां सिंहासन, कालीन, बर्तन और प्रचुर मात्रा में दूसरी वस्तुएं रखी गईं। उसके हथियार तथा उसकी अन्य प्रिय वस्तुएं भी वहां रखी गईं। उसकी कुछ प्रिय पत्नियों, दासियों तथा कुछ व्यक्तियों को भी उसी कोठरी में रखा गया। इसके बाद उस स्थान को मिट्टी से भर दिया गया। इसके बाद वहां पेड़-पौधे रोप दिए गए, ताकि उस जगह का किसी को भी पता नहीं चल सके। मंगोलों की यह परंपरागत प्रणाली थी। यही कारण है कि चंगेज की समाधि का आज तक पता नहीं है। यहां तक कि उसकी मौत को भी 3 मास तक गुप्त रखा गया, ताकि उसके सैनिक तंगूत पर विजय प्राप्त कर सकें।
वह व्यक्ति जिसने इतिहास में अब तक के सबसे बड़े नरसंहार करके अपनी कीर्ति पर गर्व किया था, जो अपने शत्रुओं के सड़ते शव देखकर खुश होता था, तथा उनके कपालों से मद्यपान के प्याले बनाता था, समय आने पर कीड़े-मकोड़ों का ग्रास बना।
चंगेज खान के पुत्र-पौत्रों की संख्या 10000 से भी अधिक थी। प्रत्येक के पास पद (मुकाम), प्रदेश और सेना संपत्ति थी। स्थानीय दलों के समस्त नेता चंगेज ने मौत के घाट उतार दिए थे, उसका उत्तराधिकारी तैमूर था, जिसे इतिहास तैमूरलंग के नाम से जानता है।
सफलता की भांति कुछ भी सफल नहीं होता। समस्त स्वतंत्र और विरोधी नेताओं के सम्पूर्ण विनाश ने यह निश्चित कर दिया था कि अजम के सभी गृह युद्ध चंगेज के वंशजों और उनके अधिकारियों के बीच होंगे और उन्हीं उपायों द्वारा वे एक-दूसरे का विनाश करेंगे, जिनकी शिक्षा उन्हें चंगेज से मिली थी।
इतिहास साक्षी है, वैसा ही हुआ। आज चंगेज के वंशज कहां है? कोई नहीं जानता।
उसके बाद तेंमुची उर्फ चंगेज खान ने वही किया था, जो वह कर सकता था।
बोर्ताई को तो वह वापिस घोड़े पर बिठाकर ले आया था। कुछ दिनों बाद वह ठीक भी हो गई। मगर तेंमुची शांत नहीं बैठा। उसे बोर्ताई का कहा एक-एक शब्द याद था, ‘‘कल भकीतों ने मुझे तुमसे छीन लिया था, आज तुम भकीतों से मुझे छीन लाए। कल फिर भकीत मुझे तुमसे छीन लेंगे। तब यह सिलसिला यू हीं चलता रहेगा। तेंमुची ने बोर्ताई से और खुद से वादा किया कि वह कभी ऐसी नौबत नहीं आने देगा कि भकीत दोबारा बोर्ताई को उससे छीन सकें। उसने भकीतों को कुचलना शुरू किया। एक के बाद एक युद्ध उसने लड़े। गांव के गांव, उलूस के उलूस उसने बर्बाद किए। वह बर्बाद करता चला गया। वह उस प्रवृत्ति को खत्म कर देना चाहता था, जो बोर्ताई को वापस छीनने को उकसाती है। और इसी कोशिश में वह इस धरती का अब तक का सबसे बड़ा संहारक बन गया।
वह कहां गलत था? उसने बोर्ताई को बचाया था। जूजी को अपने सबसे बड़े बेटे होने का हक और दर्जा दिया था। बोर्ताई से उसे 4 बेटे और हुए थे। चुगताई, ओगताई, हलाकू और ओलिचिरीन। उसने बदला लेने की प्रवृत्ति का सर्वनाश करने के लिए इतिहास का सबसे बड़ा और क्रूर नरसंहार किया।
वह पिछले 800 वर्षों से आज भी अपनी अज्ञात कब्र में लेटा ‘ईलतेंगीरी’ से अपने गुनाहों के प्रायश्चित की दुआ मांग रहा है। मगर बदला लेने की प्रवृत्ति अभी तक खत्म नहीं हुई। शायद कभी होगी भी नहीं। इसीलिए चंगेज पैदा होते रहेंगे। कभी हिटलर की शक्ल में, कभी किसी और की शक्ल में। जमाने ने अपनी सूरत बदल ली है, मगर उसकी सीरत आज भी वैसी ही है।
कुछ ऐसी ही बातें कहकर चंगेज खान जिस रास्ते से आया था, उसी रास्ते से वापिस चला गया। मैं हैरान सा सोचता रह गया कि इस विषय पर कहानी कैसे लिखूं?